इजराइली सरकार आज भी हाइफा, यरुशलम, रमल्लाह और ख्यात के समुद्री तटों पर बनी 900 भारतीय सैनिकों की समाधियों की देखरेख करती है। वर्ष 2017 के इजराइल दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाइफा में भारतीय सैनिकों को समर्पित स्मारकों का दौरा करते हुए पराक्रमी दलपत सिंह शेखावत की याद में एक पट्टिका का भी अनावरण किया था।
देश की राजधानी नई दिल्ली में ‘तीन मूर्ति भवन’ है। यह वही स्थान है, जहां कभी ब्रितानी सैन्य कमांडर, फिर स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू रहते थे। आज इसे ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’ और ‘प्रधानमंत्री स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय पुस्तकालय’ कहा जाता है। इसके ठीक सामने पर तीन मूर्तियां स्थापित हैं और इसी कारण इसे वर्षों तक ‘तीन मूर्ति चौक’ नाम से जाना गया। बहुत कम पाठक जानते है कि इन मूर्तियों का रिश्ता भारत द्वारा इजराइल की स्वतंत्रता से गहराई से जुड़ा है। इसी पक्ष को इजराइल नया आयाम देने जा रहा है। दुनिया के एकमात्र यहूदी राष्ट्र में हाइफा के महापौर योना याहाव के अनुसार, “शहरी स्कूलों की किताबों में सुधार किया जा रहा है कि हाइफा को इस्लामी ओटोमन शासन से आजाद कराने वाले अंग्रेज नहीं, बल्कि भारतीय सैनिक थे।”
भारतीय सेना हर साल 23 सितंबर को ‘हाइफा दिवस’ के रूप में मनाती है। यह दिन उन तीन बहादुर भारतीय घुड़सवार सैन्य टुकड़ियों— मैसूर, हैदराबाद और जोधपुर लांसर्स को श्रद्धांजलि देने के लिए है, जिन्होंने 1918 में 15वीं इंपीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड की आक्रामक कार्रवाई के बाद हाइफा को आजाद कराने में मदद की थी। बीते सोमवार (29 सितंबर) को भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हुए हाइफा के महापौर योना ने बताया, “मैं यहीं पैदा हुआ और यहीं पढ़ा। हमेशा यही बताया जाता था कि अंग्रेजों ने हमें आजाद कराया। लेकिन एक दिन किसी ऐतिहासिक सोसायटी के व्यक्ति ने कहा कि उनके शोध से पता चला है कि हाइफा को स्वतंत्र कराने में असली मेहनत भारतीयों ने की थी, न कि अंग्रेजों ने।”
दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत की तीन रियासतों— जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के सैनिकों को अंग्रेजों ने अपनी ओर से तुर्की भेजा था। उस समय ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, इटली, रोमानिया, जापान और अमेरिका (मित्र राष्ट्रों की ताकतों) तथा जर्मनी, ऑस्ट्रिया और हंगरी के बीच युद्ध लड़ा जा रहा था। जैसे ही ओटोमन तुर्की के खलीफा ने अंग्रेजों के खिलाफ जाकर जर्मनी का दामन थामा, वैसे ही अंग्रेजों ने तुर्की पर धावा बोल दिया। इसके बाद तुर्की में खलीफा की सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई और मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में उदारवादी-आधुनिक तुर्की का उदय हुआ। तब इस अल्पकालीन नई व्यवस्था में इस्लामी खलीफा के लिए कोई स्थान नहीं था।
कुटिल अंग्रेज खलीफा के प्रति मुस्लिमों की मजहबी भावना से परिचित थे। जब तीनों भारतीय सैन्य टुकड़ियों को खलीफा की फौज से लड़ने हाइफा भेजा गया, तब अंग्रेजों ने हैदराबाद निजाम की टुकड़ी, जिसमें शत-प्रतिशत मुसलमान थे और वे किसी धर्मसंकट में नहीं फंसे— उन्हें अग्रिम मोर्चे पर खलीफा की फौज के खिलाफ लड़ने नहीं भेजा। केवल मैसूर और जोधपुर के रणबांकुरों को कूच करने आदेश दिया गया, जबकि हैदराबाद लांसर्स को अन्य सैन्य उपयोग के लिए आरक्षित रखा गया। जब अंग्रेज सेनापति को समाचार मिला कि दुश्मनों के पास अत्याधुनिक हथियार (मशीनगन तोप सहित) हैं और भारतीय सैनिक केवल भाले-तलवार लेकर घोड़ों पर सवार हैं, तो उन्होंने हमला रोकने का आदेश दिया। मगर स्वाभिमानी भारतीय वीरों ने इससे मना करते हुए कहा— “अगर हम बंदूक तोपों से डरकर अपने बढ़ते कदम रोक देंगे, तो हम अपने महाराजा और वतनवासियों का सामना कैसे करेंगे?” इसके बाद भारतीय शूरवीर आंधी-तूफान की तरह दुश्मनों पर टूट पड़े।
एक ओर तलवार और भाले, दूसरी ओर गोलियों और तोप के गोलों की बौछार। लेकिन भारतीय सैनिक बिना जान की परवाह किए आगे बढ़ते गए। माउंट कार्मेल की चट्टानी ढलानों से ओटोमन सेना को खदेड़कर और 900 जवानों के बलिदान के बाद हाइफा को मुक्त करा लिया, जिसे अधिकांश युद्ध विशेषज्ञ इतिहास का अंतिम महान घुड़सवार अभियान मानते हैं। यह युद्ध 22-23 सितंबर 1918 के बीच लड़ा गया था। दुर्भाग्य से भारतीयों के इस अभूतपूर्व साहस को उचित वैश्विक (अमेरिका-फ्रांस सहित) सम्मान नहीं मिला।
वीर बलिदानी और जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह शेखावत को आज भी वहां “हाइफा का नायक” माना जाता है। उनके नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की अभूतपूर्व बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कालांतर में अंग्रेजों ने उन्हें उनकी वीरता के लिए ‘मिलिट्री क्रॉस’ प्रदान किया था। हाइफा के महापौर के अनुसार, “दलपत सिंह ने न केवल मेरे शहर का इतिहास बदला, बल्कि पूरे मध्यपूर्व का इतिहास भी बदल दिया।” मेजर शेखावत के अलावा अंग्रेजों ने कैप्टन अनोप सिंह और सेकेंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह को भी उनकी बहादुरी के लिए ‘मिलिट्री क्रॉस’ से, तो कैप्टन अमन सिंह बहादुर और दफादार जोर सिंह को ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ (IOM) से सम्मानित किया था। जब मेजर दलपत सिंह दुश्मन की गोली का शिकार हुए, तब कैप्टन अमन ने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए हाइफा शहर को आजाद कराया। बाद में ब्रितानियों ने हाइफा युद्ध में भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस को स्वीकारते हुए दिल्ली में अपने तत्कालीन सेनापति के निवास के सामने तीनों सैन्य टुकड़ियों की प्रतीकात्मक मूर्तियों को स्थापित किया।
इजराइली सरकार आज भी हाइफा, यरुशलम, रमल्लाह और ख्यात के समुद्री तटों पर बनी 900 भारतीय सैनिकों की समाधियों की देखरेख करती है। वर्ष 2017 के इजराइल दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाइफा में भारतीय सैनिकों को समर्पित स्मारकों का दौरा करते हुए पराक्रमी दलपत सिंह शेखावत की याद में एक पट्टिका का भी अनावरण किया था। यह दुखद है कि स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक नेतृत्व की संकुचित राजनीति और सेकुलरवाद के नाम पर मुस्लिम कट्टरपंथियों को नाराज नहीं करने की संकीर्ण नीति ने इस शौर्यगाथा को छिपाए रखा।
इजराइल हर वर्ष भारतीय वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है, वही स्वतंत्र भारत अपने ही रणबांकुरों के पराक्रम की अवहेलना करता रहा। वर्ष 2018 में इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भारत दौरे के समय मोदी सरकार ने हाइफा के भारतीय नायकों के सम्मान में ‘तीन मूर्ति चौक’ का नाम बदलकर ‘तीन मूर्ति हाइफा चौक’ किया था। भारत के इस गौरवशाली घटनाक्रम पर देश में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। जब भी कोई पाठक दिल्ली जाए, तो इस चौक पर जाकर भारतीय वीरता के इस प्रतीक को श्रद्धापूर्वक नमन अवश्य करे— यही हमारे शूरवीरों के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी।