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इजराइल की दरकती बुनियाद देखिए!

गजा में 22 महीनों से जारी मानव संहार से पश्चिमी देशों की जनता में फैली व्यग्रता का परिणाम अब इसी समर्थन में सेंध लगने के रूप में आ रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कि अमेरिका और उसके साथी देशों ने गुजरे वर्षों के दौरान फिलस्तीन की स्वतंत्रता के सवाल को पृष्ठभूमि में डालने के जो प्रयास किए, उनका उलटा नतीजा सामने आ रहा है।

फिलस्तीन के गज़ा इलाके के बाशिंदों की कुर्बानी बेकार नहीं गई है। उनमें से लाखों (हजारों की तो प्रत्यक्ष हमलों में मौत हुई है) लोग इजराइल के बर्बर मानव संहार का शिकार हुए हैं। वहां की 20 लाख की लगभग पूरी आबादी ने अकथनीय पीड़ा झेली है, और अब वहां के निवासियों को भूख से मार डालने पर इजराइल तुला हुआ है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की तरफ से पहुंचाई खाई खाद्य सामग्रियों को नष्ट कर इलाके के लोगों को उसने दाने-दाने के लिए मोहताज कर रखा है। मगर इजराइल सरकार की बर्बरता अब उसे भारी पड़ने वाली है।

गुजरे 22 महीनों में गजा के लोगों ने जो दर्द झेला है, विश्व समुदाय में उससे आहत लोगों की संख्या बढ़ती चली गई है। और अब बात inflection point या वैसे बिंदु पर पहुंच गई है, जहां से सूरत बदलने लगती है। इजराइल को अपने गढ़ के रूप इस्तेमाल करने वाले पश्चिम के अनेक साम्राज्यवादी देशों में इस मुद्दे पर मची हलचल इसी बात का प्रमाण है।

जिन पश्चिमी देशों ने अपने Settler Colonialism (उपनिवेशवाद का वो मॉडल जिसमें बाहरी आबादी को किसी देश या इलाके में जबरन बसा दिया जाता है) परियोजना के तहत इजराइल को बनाया और बसाया था, अब वहां अब Zionism की बुनियाद दरकने लगी है। Zionism (यहूदीवाद) एक नस्लवादी सोच है, जिसे 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों (जिनमें तब ब्रिटेन प्रमुख था) ने पश्चिम एशिया पर अपना शिकंजा कसने के लिए अपनाया। इसी सोच के तहत फिलस्तीन की जमीन पर- वहां के मूल बाशिंदों के बेदखल करते हुए- इजराइल की स्थापना हुई। इजराइल अगर आज भी टिका हुआ है, तो यह अमेरिका, ब्रिटेन एवं अन्य पश्चिमी देशों के हर तरह (सैन्य- आर्थिक- कूटनीतिक) के समर्थन की वजह से ही संभव हुआ है।

मगर गजा में 22 महीनों से जारी मानव संहार से पश्चिमी देशों की जनता में फैली व्यग्रता का परिणाम अब इसी समर्थन में सेंध लगने के रूप में आ रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कि अमेरिका और उसके साथी देशों ने गुजरे वर्षों के दौरान फिलस्तीन की स्वतंत्रता के सवाल को पृष्ठभूमि में डालने के जो प्रयास किए, उनका उलटा नतीजा सामने आ रहा है।

दरअसल, स्वतंत्र फिलस्तीनी राष्ट्र की स्थापना के सवाल को पृष्ठभूमि में डालने का प्रयास नहीं होता, तो संभवतः सात अक्टूबर 2023 को इजराइल पर हमास का हमला नहीं होता। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल में डॉनल्ड ट्रंप ने “अब्राहम समझौतों” के जरिए स्वतंत्र फिलस्तीन की मांग को हमेशा के लिए दफना देने की चाल चली थी। प्रयास यह था कि आसपास के अरब (मुस्लिम) देशों के साथ इजराइल से कूटनीतिक संबंध बनवा दिए जाएं, जिसके बाद अकेले पड़े फिलस्तीनियों की आवाज सुनने वाला कोई नहीं बचेगा। ट्रंप तब यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान का इजराइल से ऐसा समझौता कराने में सफल भी हुए थे।

जो बाइडेन के कार्यकाल में भी अमेरिका इसी नीति पर चलता रहा। तब चर्चा थी कि सऊदी अरब भी कुछ शर्तों से साथ “अब्राहम समझौते” का हिस्सा बनने को तैयार हो रहा है। इस घटनाक्रम से फिलस्तीनियों का खुद को हाशिये पर महसूस करना लाजिमी था। इसकी प्रतिक्रिया में हमास ने सात अक्टूबर का हमला किया। उस हमले ने घटनाओं का रुख मोड़ दिया। उसके जवाब में एक तरफ इजराइल ने अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के संरक्षण में मानव संहार शुरू किया, तो दूसरी तरफ ग्लोबल साउथ के ज्यादातर हिस्सों में इसके खिलाफ लामबंदी शुरू हुई।

दुनिया की अधिसंख्य आबादी ने इस युग में प्रत्यक्ष रूप से देखा कि पश्चिमी देशों का लोकतंत्र मानव अधिकार, और नियम आधारित विश्व व्यवस्था का संरक्षक होने का दावा कितना खोखला और पाखंड से भरा हुआ है। रोजमर्रा के स्तर पर गजा से आने वाली खून से लथपथ- मृत और जख्मी, निहत्थे एवं असहाय लोगों की तस्वीरों ने पूरी दुनिया में जैसी व्यग्रता पैदा की, वैसा शायद ही पहले कभी हुआ होगा। इस क्रम में अमेरिका के मशहूर राजनीति-शास्त्री जॉन मियरशाइमर का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि गजा में हो रहा मानव संहार ऐसा पहला है, जिसका (सोशल मीडिया पर) लाइव प्रसारण भी हो रहा है।

मतलब यह कि गजा में जो हुआ है, उसके नजारे को दुनिया के करोड़ों लोगों ने अपनी आंखों से देखा है। नतीजा, इसके खिलाफ बना विश्व जनमत है। इस जनमत के आक्रोश का इजहार अमेरिका, ब्रिटेन, और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की सड़कों पर, विश्व  विद्यालयों में, सोशल मीडिया पर और बौद्धिक जगत में भी उतनी ही शिद्दत से हुआ है। और अब यह उस सीमा तक पहुंच गया है, जहां उनमें से अनेक देशों के शासक वर्ग के लिए इसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं रह गया है।

तो वहां स्वतंत्र फिलस्तीन का प्रश्न फिर से जीवित हो उठा है। इन तमाम देशों ने दो चरणों (1993 और 1995) में हुए ओस्लो समझौते के प्रति खुद को वचनबद्ध किया था। इस समझौते में इजराइल के साथ-साथ स्वतंत्र फिलस्तीन की स्थापना का प्रावधान है। 1995 में हुए ओस्लो-2 समझौते में उस भूभाग की सीमा भी तय कर दी गई थी, जहां स्वतंत्र देश के रूप में फिलस्तीन की स्थापना पर इजराइल भी सहमत हुआ। मगर वो समझौता आज तक कागजों पर ही है। इजराइल ने खुलेआम उसे ठेंगा दिखाया और इस वादाखिलाफी में पश्चिमी देशों का उसे पूरा समर्थन मिलता रहा है।

यही वो पृष्ठभूमि है, जिसकी वजह से अब पश्चिमी देशों की तरफ से फिलस्तीन को मान्यता देने के जताए जा रहे इरादों पर लोग सहज यकीन नहीं कर रहे हैं। बहरहाल, यह उल्लेखनीय है कि अपनी जनता के बने दबाव के कारण ये देश फिर से स्वतंत्र फिलस्तीन के प्रति अपना समर्थन जताने को मजबूर हुए हैं। ध्यान दीजिएः

– फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने एलान किया है कि इस वर्ष सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन के दौरान उनका देश फिलस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दे देगा। हालांकि ये सवाल वाजिब है कि जब मान्यता देने का फैसला फ्रांस ने ले लिया है, तो उसके लिए संयुक्त राष्ट्र महाधिवेशन का इंतजार क्यों है? क्या इसके लिए किसी मुहूर्त की जरूरत है?  (https://x।com/EmmanuelMacron/status/1948482142356603089)

– कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने भी संयुक्त राष्ट्र महाधिवेशन के दौरान फिलस्तीन को मान्यता देने का इरादा जताया है।

(https://www।middleeastmonitor।com/20250725-canada-to-recognise-palestinian-state-at-united-nations/)

(https://x।com/Keir_Starmer/status/1948446458216058927)

(https://x।com/AlboMP/status/1948571993760202964)

(https://edition।cnn।com/2024/05/28/middleeast/spain-ireland-norway-recognize-palestinian-statehood-intl/index।html)

यह तो ग्लोबल नॉर्थ- यानी पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों की बात हुई। अगर ग्लोबल साउथ- यानी विकासशील दुनिया पर निगाह डालें, तो फिलस्तीन के पक्ष में वहां समर्थन लगातार मजबूत हुआ है। गौरतलब है कि दक्षिण अफ्रीका ने इजराइली मानव संहार के खिलाफ हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में याचिका दी। बाद में 50 से भी ज्यादा देशों ने इस याचिका के खुद को संबद्ध किया। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने अंतरिम फैसले में कहा कि गजा में इजराइली की गतिविधियां मानव संहार जैसी (genocidal) हैं। इसे रोकने के लिए उसने इजराइल को कई निर्देश दिए। मगर इजराइल ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय को भी ठेंगे पर रखा है, जिसमें उसे पश्चिमी देशों का पूरा साथ मिला है।

इस फैसले पर अमल करवाने के लिए कई देशों ने मिल कर इस वर्ष जनवरी में हेग ग्रुप की स्थापना की। इनमें दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, नामीबिया, कोलंबिया, बोलिविया, चिले, सेनेगल, होंडूरास आदि शामिल हैँ। कोलंबिया के वामपंथी राष्ट्रपति गुस्तावो पेत्रो ने इसी महीने हेग ग्रुप की एक बैठक अपने यहां आयोजित की। इसमें सर्व-सम्मति से प्रस्ताव पारित संबंधित देशों ने निर्णय लियाः

(https://x।com/pawelwargan/status/1945545449751933123)

 

संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुए मतदानों पर गौर करें, तो यह साफ है कि दुनिया के 140 से ज्यादा देश दो टूक लहजे में स्वतंत्र फिलस्तीन की स्थापना का समर्थन करते हैँ। इन देशों में विश्व की तीन चौथाई आबादी रहती है। मगर इतने बड़े विश्व जनमत का अनादर करते हुए पश्चिमी देश अभी तक फिलस्तीन की स्थापना को रोके रहने में सफल रहे हैं। ऐसा वे क्यों करते हैं, इस पर से संयुक्त राष्ट्र की विशेष रैपोटियर फ्रांसेस्का अल्बानीज ने अपनी रिपोर्ट- From economy of occupation to economy of genocide- के जरिए परदा हटाया है। इस रिपोर्ट से अमेरिका इतना आहत हुआ कि उसने अल्बानीज पर प्रतिबंध लगाने की पहल कर दी।

(https://www।ohchr।org/sites/default/files/documents/hrbodies/hrcouncil/sessions-regular/session59/advance-version/a-hrc-59-23-aev।pdf)

इस रिपोर्ट में अल्बानीज ने उन कंपनियों का नाम लेकर उल्लेख किया, जिनका सीधा हित गजा में मानव संहार जारी रखने से जुड़ा बताया जाता है।

(https://www।aljazeera।com/news/2025/7/1/un-report-lists-companies-complicit-in-israels-genocide-who-are-they)।

दुनिया के अनेक मशहूर अर्थशास्त्रियों ने इस रिपोर्ट में दिए गए विवरण एवं इसके निष्कर्षों को अपना समर्थन दिया है। उन्होंने एक बयान में कहा- “इतिहास हमें सिखाता है कि आर्थिक हित औपनिवेशक कदमों एवं उन मानव संहारों के पीछे प्रमुख कारक और कारण रहे हैं, जिन्हें औपनिवेशिक शक्तियों ने अंजाम दिया है। आरंभ से ही कॉरपोरेट सेक्टर उपनिवेशवाद से अंतर्संबंधित रहा है। ऐतिहासिक रूप से बड़ी कंपनियों ने मूलवासियों के खिलाफ हिंसा एवं उनकी जमीन के शोषण तथा वहां से उनकी बेदखली में योगदान करती रही हैं। वर्चस्व के इस स्वरूप को नस्लीय औपनिवेशिक पूंजीवाद के रूप में जाना जाता है। फिलस्तीनी इलाकों पर इजराइल का कब्जा भी कोई अपवाद नहीं है।”

(https://x।com/yanisvaroufakis/status/1942356885060845776)

 

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना इसलिए जरूरी है, क्योंकि अभी खासकर यूरोपीय सरकारों की जो हलचल दिखाई दे रही है, उसके वास्तविक कारणों एवं स्वरूप के प्रति जागरूक रहा जाए। इस हलचल का अर्थ यह कतई नहीं है कि उन सरकारों की आत्मा सचमुच जग गई है। हकीकत यह है कि वहां आम जन में अपनी सरकारों के मानव संहार समर्थक होने गहराती गई धारणा अब एक सीमा से आगे चली गई है। तो मैक्रों, स्टार्मर, अल्बानीज, कार्नी आदि के लिए फिलस्तीन के हक में कुछ करते हुए दिखने की मजबूरी बन गई है।

पश्चिम की जनता को यही बता कर उनकी निगाहों में वहां के शासक वर्ग ने अपनी वैधता (legitimacy) बनाए रखी है कि वहां का शासन तंत्र लोकतंत्र एवं मानव अधिकार से उदात्त मूल्यों का प्रतिनिधि है। जबकि गजा संकट के समय उन सरकारों का रुख इन मूल्यों के बिल्कुल उलट सामने आया है। जाहिर है, उनके सामने अपनी legitimacy का सवाल आ खड़ा हुआ है। तो 22 महीनों तक कान पर जूं ना रेंगने और मानव संहार को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन देने के बाद वहां की सरकारें ‘कुछ करते हुए’ दिखना चाह रही हैं।

बहरहाल, इस घटनाक्रम का सकारात्मक पक्ष यह संदेश है कि Zionism की बुनियाद दरक रही है। आठ दशक से जारी फिलस्तीनियों का संघर्ष अब आखिरकार अपना असर दिखा रहा है। इससे ये उम्मीद जगी है कि भविष्य में या तो इजराइल अपनी हद पहचान कर सभ्य देश की तरह रहना सीखेगा या फिर वह “From river to sea, Palestine will be free” नारे के यथार्थ में बदलने का रास्ता साफ करेगा। यानी वह अपने अस्तित्व को दांव पर लगाएगा। पश्चिम एशिया उसके बेखौफ आतंक फैलाए रखने के दिन अब लद रहे हैं।

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