ममदानी की जीत ने दिखाया है कि वामपंथी झुकाव लिए हुए लोकलुभावन वादों से वैसा जनमत जुटाया जा सकता है, जिसे नियंत्रित करना किसी एस्टैबलिशमेंट के वश में नहीं है। अब यह परिघटना अन्य अमेरिकी राज्यों में भी आगे बढ़ सकती है। उसका नतीजा आर्थिक मुद्दों पर नए ध्रुवीकरण के रूप में सामने आ सकता है। ट्रंपिज्म के उदय के साथ अब तक ध्रुवीकरण का मुखर रूप सांस्कृतिक या उसूलों के क्षेत्र में रहा है। अब इसके आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश करने का रास्ता खुलता दिख रहा है।
जटिलता विज्ञान (इतिहास का गणितीय विश्लेषण करने वाली विधा) के विशेषज्ञ पीटर टर्चिन ने 2023 में आई अपनी किताब End Times में लिखा था- ‘(ब्रिटिश अर्थशास्त्री) गाय स्टैंडिंग ने पिक्रैरियट शब्द को चर्चित किया है। (प्रिकैरियट का अर्थ उन लोगों से है, जिनका रोजगार अस्थायी हो, जिनकी आजीविका पर लगातार खतरा मंडरा रहा हो, और जो सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से असुरक्षित हों।) स्टैंडिंग जिन समूहों को प्रिकैरियट मानते हैं, उनमें डिग्रीधारक युवा भी शामिल हैं। ये वो लोग हैं, जो कॉलेज गए और जिन्हें उनके माता-पिता, शिक्षकों, और राजनेताओं ने चमकते करियर का सपना दिखाया।
लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हो जाता है कि उन्हें लॉटरी का एक टिकट भर बेचा गया था। कॉलेज से वे बिना अपने भविष्य को सुनिश्चित किए बाहर आए, जबकि उन पर कर्ज का भारी बोझ है। ये युवा सकारात्मक अर्थ में कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। वे पुरानी कंजरवेटिव या सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों का समर्थन नहीं करते। स्वभाव से वे एक नई राजनीति की तलाश में हैं, जो उन्हें पुराने राजनीतिक दलों या ट्रेड यूनियन जैसी पुरानी संस्थाओं में नजर नहीं आती।’
बीते चार नवंबर को न्यूयॉर्क में मेयर के चुनाव में खुद को डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट कहने वाले 34 वर्षीय जोहरान ममदानी की शानदार जीत के बाद पीटर टर्चिन ने अपने ब्लॉग पर Revolt of the Credentialed Precariat (डिग्रीधारी संकट-ग्रस्त समूहों का विद्रोह) शीर्षक से अपना विश्लेषण प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने लिखा- ‘इस घटना से अमेरिका में राजनीतिक दलों के विकासक्रम के बारे में हमें जो पता चलता है, मेरी मुख्य दिलचस्पी उसमें ही है। दस साल पहले अमेरिका में जो राजनीतिक परिदृश्य था, उसमें दो पार्टियों का दबदबा थाः एक पार्टी ऐसी थी, जो आबादी के एक फीसदी (धनी) लोगों की नुमाइंदगी करती थी, जबकि दूसरी पार्टी सबसे धनी एक फीसदी लोगों के बाद वाली 10 फीसदी आबादी (डिग्रीधारकों) की। दोनों पार्टियों का ध्यान शासक वर्ग पर केंद्रित था और वे बाकी 90 फीसदी आबादी को नजरअंदाज किए रहती थीं।’ (https://peterturchin.substack.com/p/revolt-of-the-credentialed-precariat)
टर्चिन ने लिखा- ‘2016 में डॉनल्ड ट्रंप ने बढ़ती दरिद्रता से असंतुष्ट लोगों को अपने पक्ष में संगठित कर रिपब्लिकन पार्टी का रूपांतरण शुरू किया और उसे दक्षिणपंथी लोकलुभावन (right populist)- मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) पार्टी में तब्दील कर दिया। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है।
इस बीच डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने अंदर के वामपंथी लोकलुभावकों (populists) को नियंत्रित किए रखा है। इसके लिए उन्होंने दमन (बर्नी सैंडर्स को याद कीजिए) और समेकन यानी cooptation (अलेक्जांड्रिया ओकासियो कॉर्तेज को याद कीजिए) जैसे तरीकों का इस्तेमाल किया है। 2024 आते-आते डेमोक्रेटिक पार्टी शासक प्रभु वर्ग की एकमात्र पार्टी रह गई। 2024 के चुनाव में उसकी भीषण हार हुई, जिसे एक क्रांति कहा जा सकता है- शुक्रगुजार होने की बात यही है कि ये क्रांति अब तक अपेक्षाकृत रक्तहीन रही है।’
रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों के परंपरागत नजरिए का ही परिणाम है कि अब डिग्रीधारक युवा भी खुद को प्रिकैरियट मान रहे हैं। इसकी वजह उनकी आजीविका पर लगातार मंडराता खतरा और सामाजिक सुरक्षा का साया सिर से हट जाना है। अब ये युवा नया विकल्प ढूंढ रहे हैं। ममदानी इसी परिघटना का परिणाम हैं। न्यूयॉर्क चुनाव पर टीवी चैनल सीएनएन के एग्जिट पोल से आए आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं। वहां ममदानी ने डेमोक्रेटिक मेनस्ट्रीम का हिस्सा रहे एंड्रू कूमो को हराया- इसके बावजूद कि आखिरी वक्त पर राष्ट्रपति ट्रंप ने भी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार की कीमत पर उन्हें अपना समर्थन दिया था। सीएनएन के एग्जिट पोल से आए आंकड़ों पर ध्यान दीजिएः
- 18 से 29 वर्ष के नौजवानों में से 78 प्रतिशत ने ममदानी को अपनी पसंद बनाया। कूमो को इस उम्र वर्ग के सिर्फ 18 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला।
- सबसे गरीब तबकों (जिनकी सालाना आमदनी 50 हजार डॉलर से कम है) और सबसे धनी तबकों (जिनकी सालाना आमदनी तीन लाख डॉलर से ज्यादा है) का ज्यादातर समर्थन कूमो को मिला। जबकि इन दोनों की बीच के आय वर्ग वाले समूहों में ममदानी का सिक्का चला।
- न्यूयॉर्क की आठ फीसदी आबादी सबसे धनी आय वर्ग में आती है। उसके बीच कूमो को ममदानी से 29 प्रतिशत अधिक वोट मिले। मगर उनकी हार इसलिए हुई कि मध्य आय वर्ग के मतदाताओं में ममदानी ने कूमो को भारी अंतर से हराया। न्यूयॉर्क की आबादी में मध्य आय वर्ग के लोगों की संख्या 77 प्रतिशत है।
- मध्य आय वर्ग के अंदर 50,000 से 99,000 डॉलर सालाना आय वाले वर्ग में ममदानी को कूमो की तुलना में 20 प्रतिशत ज्यादा समर्थन मिला। एक लाख से एक लाख 99 हजार डॉलर सालाना आय वाले वर्ग में ममदानी ने 18 प्रतिशत के अंतर से बढ़त पाई।
(https://edition.cnn.com/election/2025/exit-polls/new-york-city/general/mayor/0)
न्यूयॉर्क को बेहद महंगा शहर समझा जाता है। टर्चिन के मुताबिक वहां 50 हजार से एक लाख डॉलर तक की सालाना आय होने पर भी जिंदगी प्रिकैरियट श्रेणी में रहती है। वहां दो बेडरूम के फ्लैट का औसत किराया साढ़े पांच हजार डॉलर प्रति माह है। यानी साल में 66 हजार डॉलर आपको सिर्फ आवास पर खर्च करने होंगे। अब अगर एक लाख डॉलर की सालाना आय भी हो, तो समझा जा सकता है कि वहां आराम से रहना कितना कठिन है। टैक्स के रूप में दी जाने वाली रकम काट ली जाए, तो फिर खाना, कपड़ा, मनोरंजन और यात्रा के लिए कितना पैसा बचेगा, आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।
इसी पृष्ठभूमि में जोहरान ममदानी सामने आए। उनके तीन प्रमुख वादों पर गौर करेः
Ø मकान किराया वृद्धि पर रोक लगाना
Ø यूनिवर्सल चाइल्ड केयर यानी छह साल उम्र तक के बच्चों के लिए क्रेच की सबको मुफ्त सुविधा
Ø और मुफ्त बस यात्रा की सुविधा
गौर कीजिएः कोरोना लॉकडाउन के बाद से न्यूयॉर्क में औसत मकान किराया 18 प्रतिशत बढ़ा है। इस वर्ष की पहली तिमाही में इसमें 5.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसकी किस हद तक डिग्रीधारक प्रिकैरियट पर मार पड़ी है, इसे समझा जा सकता है। इसलिए मकान किराया वृद्धि पर कानून रोक का वादा अगर लोकप्रिय साबित हुआ, तो उसकी ठोस वजहें हैं। उसके साथ ही मुफ्त चाइल्ड केयर और मुफ्त परिवहन की सुविधा मिल जाए, तो काम पर जाने वाले माता-पिता को अपनी जिंदगी में जो सुविधा होगी, उसे समझना कठिन नहीं है।
जब एक उम्मीदवार ने ऐसी सुविधा का वादा किया, तो जाहिर है, उसका मुस्लिम होना, दक्षिण एशियाई मूल का होना, उसका अफ्रीका से संबंधित होना, और वित्तीय पूंजीवाद की वैश्विक राजधानी में खुद को डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट बताना- ये तमाम बातें अधिकांश मतदाताओं के लिए बेमायने हो गईं। और यही ममदानी की जीत का संदेश है- यानी राजनीति अगर रोजी-रोटी के सवालों के इर्द-गिर्द खड़ी की जाए, तो बांटने वाले मुद्दे अप्रसांगिक हो जाते हैं।
न्यूयॉर्क वॉल स्ट्रीट का शहर है। इसलिए उचित ही उसे वित्तीय पूंजीवाद की वैश्विक राजधानी कहा जाता है। और इस रूप में वह उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक है, जो वित्तीय पूंजीवाद के प्रसार के साथ दुनिया भर में फैली हैं। अभूतपूर्व आर्थिक विषमता, मध्य वर्ग का प्रिकैरियट में तब्दील होना, और श्रमिक वर्ग का दरिद्रीकरण पूंजीवाद के इस दौर की सामान्य परिघटना हैं। इस परिघटना ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कुछ इस रूप में ढाला है कि वह पूरी तरह धनी वर्ग (ऊपर की 20 फीसदी आबादी) के उपभोग पर निर्भर हो गई है। वहां कुल उपभोग खर्च का आधा हिस्सा टॉप 20 फीसदी आबादी के बटुए से होता है। साफ है, अर्थव्यवस्था ने समग्र रूप से K आकार ग्रहण कर रखा है- यानी धनी लोगों का धन बढ़ रहा है, जबकि निम्न तबके बदहाल होते जा रहे हैं। (https://www.axios.com/2025/08/08/stock-market-us-economy-rich-poor)
निम्न तबकों का क्या हाल है, इसकी एक झलक नवंबर के आरंभ में जारी ऑक्सफेम की रिपोर्ट- ‘UNEQUAL: The rise of a new American oligarchy and the change we need’ से मिली। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष हैः
Ø अमेरिका में धन की विषमता चरम रूप लेती जा रही है।
Ø दशकों से बरते गए भेदभाव और अति-धनी तबकों के पक्ष में अपनाई गई आर्थिक नीतियों के कारण यह स्थिति पैदा हुई है। ट्रंप प्रशासन अपने दूसरे कार्यकाल में इस स्थिति को और बदतर बना रहा है।
Ø टॉप 10 अमेरिकी अरबपतियों की संपत्ति 2024–2025 में 698 बिलियन डॉलर और बढ़ी और अब यह 2.5 ट्रिलियन डॉलर हो गई है।
Ø 2020 से शेयर बाजारों में सट्टेबाजी से इन अरबपतियों की संपत्ति में छह गुना वृद्धि हुई है। नतीजा यह है कि टॉप 0.1 प्रतिशत आबादी के पास आज अमेरिका की कुल संपत्ति का 12.6 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि शेयर बाजार में उसका हिस्सा 24 प्रतिशत है।
Ø 1980 से 2022 के बीच टॉप एक प्रतिशत आबादी की संपत्ति दोगुनी हो गई, जबकि नीचे की 50 आबादी की संपत्ति एक तिहाई घट गई।
Ø इस दरम्यान श्रमिक एवं मध्य वर्गों की संपत्ति जहां की तहां रही है।
(UNEQUAL: The rise of a new American oligarchy and the agenda we need | Oxfam)
इस स्थिति का परिणाम अब अमेरिकी राजनीति में तीखे ध्रुवीकरण के रूप में जाहिर हो रहा है। गौरतलब है कि रिपब्लिकन पार्टी में जिस समय ट्रंप का उदय हुआ, उसी समय डेमोक्रेटिक पार्टी में सोशल डेमोक्रेटिक एजेंडे के साथ बर्नी सैंडर्स का सितारा चढ़ा। मगर डेमोक्रेटिक ऐस्टैबलिशमेंट ने अनुचित तरीके अपना कर सैंडर्स का रास्ता रोक दिया। मगर अब न्यूयॉर्क में लाख कोशिश के बावजूद वह ऐसा नहीं कर पाया। वहां ममदानी का उदय डेमोक्रेटिक मेनस्ट्रीम को चुनौती देते और परास्त करते हुआ है।
इससे पहला संकट डेमोक्रेटिक ऐस्टैबलिशमेंट के आगे खड़ा हुआ है। ममदानी की जीत ने दिखाया है कि वामपंथी झुकाव लिए हुए लोकलुभावन वादों से वैसा जनमत जुटाया जा सकता है, जिसे नियंत्रित करना किसी एस्टैबलिशमेंट के वश में नहीं है। अब यह परिघटना अन्य अमेरिकी राज्यों में भी आगे बढ़ सकती है। उसका नतीजा आर्थिक मुद्दों पर नए ध्रुवीकरण के रूप में सामने आ सकता है। ट्रंपिज्म के उदय के साथ अब तक ध्रुवीकरण का मुखर रूप सांस्कृतिक या उसूलों के क्षेत्र में रहा है। अब इसके आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश करने का रास्ता खुलता दिख रहा है।
ममदानी अपने वादों को कहां तक पूरा कर पाएंगे, इसको लेकर ठोस सवाल मौजूद हैं। चुनाव अभियान के दौरान ही वे अपने रुख को नरम करते नजर आए। प्रभु वर्ग को संतुष्ट करने वाले कई बयान उन्होंने दिए। यहां तक कि गजा में मानव-संहार का तीव्र विरोध कर अपनी एक खास छवि बनाने के बाद उन्होंने मानव-संहार की शुरुआत के लिए हमास को दोषी बताकर अमेरिका के यहूदीवादी (Zionist) तबकों में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश की। इसी तरह वेनेजुएला और क्यूबा के नेतृत्व की आलोचना कर वॉल स्ट्रीट में विरोध भाव को घटाने की कोशिश की। फिर बर्नी सैंडर्स और एओसी जैसी शख्सियतों का साथ लेकर उन्होंने अंदेशा पैदा किया कि आगे चल कर उनकी तरह ही वे भी एक समझौतावादी नेता में तब्दील हो सकते हैं।
मगर यहां मुद्दा वे खुद नहीं हैं। मुद्दा वो मतदाता हैं, जिन्होंने वॉल स्ट्रीट, Zionist समूहों, डेमोक्रेटिक एस्टैबलिशमेंट और ट्रंप समर्थकों के जोरदार विरोध के बावजूद उन्हें विजयी बना दिया। यानी असल सवाल यह नहीं है कि ममदानी किस हद तक विद्रोही तेवर कायम रखेंगे- असल सवाल उन मतदाताओं का है, जिन्होंने सिस्टम के संचालकों के खिलाफ विद्रोही तेवर अपना लिए हैं। ऐसे मतदाताओं की मौजूदगी देश भर में है। इन मतदाताओं ने साफ कर दिया है कि मध्यमार्गी राजनीति के दिन अब लद गए हैं। पूंजी और प्रभु वर्ग के हितों के मुताबिक दशकों से चली राजनीतिक आम-सहमति अब टूट चुकी है।
इसी महीने जारी हुई एक सर्वेक्षण रिपोर्ट से अमेरिकी युवाओं में समाजवाद की बढ़ रही लोकप्रियता की पुष्टि हुई है। एक्सियोस- जेनेरेशन लैब के इस सर्वे के मुताबिक 67 प्रतिशत कॉलेज छात्रों ने समाजवाद के प्रति सकारात्मक या तटस्थ रुख जताया। जबकि पूंजीवाद के प्रति ऐसे रुख रखने वाले छात्रों की संख्या महज 40 फीसदी रही। न्यूज वेबसाइट axios.com ने इस बारे में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा- ‘सर्वे से जाहिर होता है कि तेजी से बढ़ी महंगाई, इलाज और आवास की बढ़ती लागत तथा राजनीति, तकनीक एवं मीडिया क्षेत्रों में अरबपतियों के बढ़े प्रभाव के कारण Gen Z का पूंजीवाद से मोहभंग हो रहा है।’
(https://www.axios.com/2025/11/01/socialism-capitalism-college-voters?utm_source=x&utm_medium=organic_social&utm_campaign=editorial
धुर दक्षिणपंथ की बढ़ी ताकत बताती है कि शासक वर्गों ने इस नई बनती परिस्थिति का पूर्वानुमान पहले से लगा लिया था। नतीजतन, कंजरवेटिव- नफरती एजेंडे को आगे बढ़ा कर उन्होंने मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को भटकाने की कोशिश की और इसमें वे एक हद तक फिलहाल वे कामयाब हैं। अमेरिका में ट्रंप इस परिघटना के प्रतीक हैं। मगर चूंकि इस परिघटना के पास लोगों की मूलभूत समस्याओं का हल नहीं है, तो उसके विकल्प के उभरने के संकेत भी छिटपुट रूप से मिलने लगे हैं। अमेरिका में ममदानी फिलहाल इसके प्रतीक बने हैं। कहा जा सकता है कि इस रूप में वे वहां Gen Z की बहुचर्चित परिघटना के प्रतीक बने हैं। उनकी जीत वोट के जरिए जाहिर हुए इस उम्र वर्ग के विद्रोह का परिणाम है। लेकिन Gen Z का विद्रोह कई अन्य देशों में अलग रूपों में सामने आया है। इन घटनाक्रमों को बिल्कुल अलग करके नहीं देखा जा सकता। बल्कि इनमें एक समान संदेश छिपा है, जिससे विभिन्न देशों के राजनीतिक समूह काफी कुछ सीख सकते हैं।
