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सत्ता मद और अहिंसा का संकल्प

चुनाव नतीजों

क्या गजब हो रहा है। एक तरफ गीता प्रेस, गोरखपुर को समाज में योगदान के लिए गांधी शांति पुरस्कार दिया जाता है, तो दूसरी तरफ गांधी विचार के प्रसार-प्रचार में लगी संस्था सर्व सेवा संघ को जमीन से ही बेदखल किया जा रहा है। …आखिर क्यों सरकारें अहिंसक जनता को हिंसा से सबक सीखाने का व्यवहार करती हैं? सवाल कई हैं और जवाब देने वाला कोई नहीं। जिस भीड़तंत्र ने दिल्ली दंगों से लेकर बंगाल, राजस्थान, मणिपुर और कर्नाटक तक में हिंसा की चेतावनी दी हो उससे भविष्य में सभी के लिए बचना मुश्किल रहेगा।

सत्ता सिर पर चढ़ कर ही बोलती है। और पूर्ण-सत्ता तो बेलगाम होती है। इज़राइल में सरकार अपने ही लोगों के सिर पर चढ़ना चाह रही है। जब नेतनयाहू की धुर-दक्षिण और चरमपंथी सरकार अपनी संसद से न्यायपालिका में अहम बदलाव पारित कराने में सफल हुई तो इज़राइली जनता लोकत्रंत बचाने के लिए सड़कों पर उतर आई। इज़राइल की सेना दुनिया की सबसे समर्थ सेना मानी जाती है। इसलिए जिनकी सेना उनको बचाने के लिए दुनिया में समर्थ है वही अपनी सरकार और उसके विरोध में आमने-सामने खड़े लोगों के बीच है। देखना है कि आगे संघर्ष कितना हिंसक रहेगा या अहिंसक?

यह तो हुई दूर-दराज़ की बात। अपने यहां भी दिल्ली की सत्ता ने हाल में अपनी तासीर बनारस में दर्शाई है। सरकार महात्मा गांधी के जाने के बाद उनके विचारों के प्रकाशन के लिए विनोबाजी द्वारा बनायी गयी संस्था, सर्व सेवा संघ पर बुल्डोज़र चलाने पर आमदा है। पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों की उपस्थिति में परिसर खाली कराया गया। बरसों से बसे घरों को जबरन बेघर होना पड़ा। प्रकाशित किताबों को सहेजने का भी मौका नहीं दिया गया। यह सब वैसे ही हुआ जैसे अंग्रेजों के समय रेल पटरी के आसपास की खाली जमीन रेलवे की हो जाती थी। बनारस या उत्तर-पूर्वी रेलवे विभाग ने साठ के दशक में संस्था को दी गयी जमीन को अचानक वापस लेने का फैसला किया। नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन सरेआम हुआ है। आज के समय में न्यायालय का रूख क्या होगा समझने के लिए कोई वैज्ञानिक होना लाज़मी नहीं है। इज़राइल हो या भारत, क्यों जनता द्वारा चुनी गई सरकारें सत्ता के नशे में इतनी धुत हो जाती है। नशे में ही फैसले लेती और नीतियां बनाती हैं? समाज इसको कब तक सहन करता रह सकता है?

आखिर क्यों सरकारें अहिंसक जनता को हिंसा से सबक सीखाने का व्यवहार करती हैं? सवाल कई हैं और जवाब देने वाला कोई नहीं। जिस भीड़तंत्र ने दिल्ली दंगों से लेकर बंगाल, राजस्थान, मणिपुर और कर्नाटक तक में हिंसा की चेतावनी दी हो उससे भविष्य में सभी के लिए बचना मुश्किल रहेगा। हिंसा से जूझने में देश का कोई कोना नहीं छूटा है। उसमें पॉवर तंत्र के अलावा हम नागरिक भी उतने ही जिम्मेदार हैं। भीड़तंत्र पुलिस का हो या नागरिकों का, समाज के लिए चिंताजनक होता है। राज्य अगर अपनी सत्ता के लिए हमें भिड़ाता है तो हम भी अपने स्वार्थ में ही पड़ते-भिड़ते हैं। हिंसा से न तो राज्य को सच्ची सेवासत्ता मिलती है, न ही समाज को सबका साथ मिलता है। फिर किसका और कैसा विकास?

क्या गजब हो रहा है। एक तरफ गीता प्रेस, गोरखपुर को समाज में योगदान के लिए गांधी शांति पुरस्कार दिया जाता है, तो दूसरी तरफ गांधी विचार के प्रसार-प्रचार में लगी संस्था सर्व सेवा संघ को जमीन से ही बेदखल किया जा रहा है। देश की जनता सरकार के विचारों, इरादों मंशा को देख रही है। अपने समय पर इसका हिसाब भी चुकता करेगी। जनता को सर्व सेवा संघ का मुद्दा उठाने में विपक्ष की भूमिका निभानी होगी।

13 नवंबर 1945 में पूना में रचनात्मक कार्यक्रम की प्रस्तावना में गांधीजी ने लिखा हैं, “दुनिया में सब जगह ऐसे लोगों को कष्ट की इस आग से गुजरना पड़ा है। बिना कष्ट सहे कहीं स्वराज्य मिला है? हिंसक लड़ाई में सत्य का सबसे पहले और सबसे बड़ा बलिदान (हत्या) होता है; किंतु अहिंसा की लड़ाई में वह (सत्य) सदा विजयी रहता है। इसके सिवा आज जिन लोगों की सरकार बनी है, उन सरकारी मुलाजिमों को अपना दुश्मन समझना अहिंसा की भावना के विरुद्ध होगा। हमें उनसे अलग होना है, लेकिन दोस्तों की तरह।“

गांधीजी के ये शब्द आज बेशक सरकारों के लिए बेमानी हों लेकिन हर एक नागरिक के लिए रचनात्मक समझ पैदा करने लायक सीख जरुर हैं। अपनी ही बनाई सरकारों से फिर लड़ाई कैसे की जाए? लड़ाई में सत्य का आग्रह और अहिंसा का संकल्प रहे। गांधी हत्या हो गयी हो लेकिन गांधी विचार मानवता में जीवित रहेगा। समाज के लिए जनता खरी रहेगी तो कोई सरकार ज्यादा समय, बेवजह खड़ी नहीं रह सकती।

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