अंधभक्त और तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ता द्वारा बैठाए गए अधिकारी इस दौर में वफादारी और भौकने के संदर्भ में कुत्तों को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं – अंतर बस इतना है कि कुत्तों की वफादारी निस्वार्थ होती है, जबकि भक्तों की वफादारी की तय कीमत है| कुत्ते बिना कारण किसी को तंग नहीं करते जबकि भक्त तो किसी की जान लेकर फिर कारण गढ़ते हैं|
आजकल कुत्ते समाचारों में हैं| हमारे देश में समाचारों, विशेष तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समाचारों, में होना भी एक बड़ी उपलब्धि है| समाचारों के नाम पर चैनल बढ़ते जा रहे हैं और समाचार गायब होते जा रहे हैं| इन चैनलों पर ऐंकर की भाव-भंगिमाएं, बंदरों जैसे करतब और जो भाषा दिखाई जा रही है, उनके सामने तो कुत्ते भी “भिंगी बिल्ली” जैसे नजर आते हैं| सभी कुत्ते सबको काटते नहीं, सबपर भौंकते भी नहीं – पर तथाकथित समाचार चैनल तो पूरे देश के साथ ही कभी अमेरिका, कभी कनाडा और कभी चीन पर भौंक रहे हैं, काट रहे हैं, जहर उगल रहे हैं| ऐसे में पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों की तो कोई औकात ही नहीं है|
सत्ता और न्याय के मठाधीश मीडिया के भौकाने और काटने को बड़े गर्व से अभिव्यक्ति की आजादी करार देते हैं| इस तथाकथित अभिव्यक्ति की आजादी के कारण कितनी हत्याएं की गईं, कितनी मोब-लिन्चिंग हुई, कितने घरों पर बुल्डोज़र चले और कितने लोगों को लगातार धमकियाँ दी जा रही हैं – इसका कोई आकलन नहीं करता| पर, यदि आकलन किया जाए तो निश्चित तौर पर कुत्ते के काटने की संख्या नगण्य प्रतीत होगी|
अंधभक्त और तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ता द्वारा बैठाए गए अधिकारी इस दौर में वफादारी और भौकने के संदर्भ में कुत्तों को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं – अंतर बस इतना है कि कुत्तों की वफादारी निस्वार्थ होती है, जबकि भक्तों की वफादारी की तय कीमत है| कुत्ते बिना कारण किसी को तंग नहीं करते जबकि भक्त तो किसी की जान लेकर फिर कारण गढ़ते हैं| संभवतः इन्ही भक्तों का पूर्वानुमान कर लिखी गई कवि और लेखक विष्णु नगर जी की एक छोटी कविता है, “मालिक का कुत्ता”|
“आदमी अगर मालिक का कुत्ता बन जाए,
तो कुत्ते की क्या मजाल कि आदमी से आगे निकल जाए,
शिकारी कुत्ते के मुंह में भी झाग आ जाए|
आदमी को सामने खड़ा देख
कुत्ते का पिशाब छूट जाए|”
सर्वोच्च न्यायालय में जब कुत्तों पर बहस हो रही थी उस समय सत्ता और समर्थक जिसमें देश के महाधिवक्ता भी शामिल थे कुछ इस तरह दलील दे रहे थे मानो केवल कुत्ता ही इंसानों को काटता है – कुत्ते की बस यही पहचान है कि वह लोगों को काटता है| महाधिवक्ता के अनुसार जो मांस खाते हैं वे पशुप्रेमी नहीं हो सकते| इससे ज्यादा हास्यास्पद वक्तव्य की उम्मीद भी नहीं की जा सकती – जो शाकाहारी हैं वे भी किसी ना किसी पौधे या पेड़ की पूजा करते हैं| महाधिवक्ता महोदय, यदि आपको आम पसंद है तो फिर हवन में आम की लकड़ी और पूजा में आम के पत्तों का उपयोग क्यों किया जाता है?
तमाम मीडिया कुत्तों को “आवारा” और “बेजुवान” बात रहा है| क्या यही मीडिया हरेक उस व्यक्ति को आवारा कहता है जो अपनी जिंदगी सड़कों पर गुजार रहे हैं? मीडिया और सोशल मीडिया परंपरागत तौर पर आवारा लोगों को भगवान बनाने पर तुल गई है, जबकि आश्रयहीन कुत्ते उसे आवारा नजर आ रहे हैं| कुत्ते भौकने के बाद भी बेजुवान कहे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऐंकर भौकने के बाद पत्रकार बने बैठे हैं|
मोहन भागवत सहित तमाम आवाजें कुत्तों की जनसंख्या नियंत्रण के लिए उठ रही हैं| इसे समर्थन भी खूब मिल रहा है| पर सवाल यह है कि शहरों में केवल कुत्तों की संख्या ही क्यों नियंत्रित की जाए, आदमियों की क्यों नहीं| क्या किसी शहर ने यह आकलन किया है कि उसमें अधिकतम कितने मनुष्य रह सकते हैं? दिल्ली के आसमान में चीलों की और तमाम जगहों पर कबूतरों की भी बड़ी संख्या है – इन्हें भी नियंत्रित किया जाना चाहिए|
दरअसल यह सारी कवायद केवल कुत्तों को ही आश्रय गृहों में समेटने की नहीं है बल्कि इस सरकार का बस चले तो पूरे विपक्ष और सत्ता की नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले हरेक व्यक्ति को आश्रय गृहों की ऊंची दीवारों के भीतर भूख और प्यास से तड़पने को छोड़ दें| न्यायालयों की कुछ पीठें तो निश्चित तौर पर सत्ता के इस पहल में साथ देंगी| कोविड 19 के शुरुआती दौर में सरकार ने यह प्रयोग भी कर के देख लिया है|
सड़कों पर घूमते कुत्तों की समस्या सामाजिक नहीं है, वरना उनके समर्थन में इतनी आवाजें नहीं उठतीं| मीडिया कुत्तों द्वारा काटे जाने की घटनाएं तो लगातार दिखाती है, पर जब कुत्ते लोगों की जान बचाते हैं तब ऐसी खबरें मीडिया से गायब हो जाती हैं| कुछ दिनों पहले हिमाचल प्रदेश के मंडी में जब बादल फटने के कारण भयानक भूस्खलन की घटना हुई थी जिसमें कई लोगों की जानें गई थी, उस समय एक गाव में एक सड़क के कुत्ते ने 67 लोगों की जान बचाई थी| रात को इस आपदा से ठीक पहले जब वह कुत्ता अचानक जोर-जोर से भौकने लगा तब लोगों को आपदा का एहसास हुआ और लोग तुरंत घरों से बाहर सुरक्षित स्थानों पर चले गए| इसके तुरंत बाद ही भूस्खलन में वह गाँव तबाह हो गया| ऐसी एक नहीं अनेकों घटनाएं होंगी| दूसरी तरफ प्राकृतिक आपदाओं के बाद आनन फानन में कैमरे के साथ मीडिया का जमावड़ा लगा होता है, पर क्या आपने कभी किसी भी मीडिया में ऐसी रिपोर्ट देखी है जो यह बताती हो कि हिमालय में इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लगातार बढ़ते जाल का और आपदाओं का क्या संबंध है|