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ट्रंप अमेरिका की सूरत बदल देने को तैयार

अमेरिकी सत्ता के तमाम केंद्र आज ट्रंप के पीछे एकजुट नजर आ रहे हैं। इसका दूरगामी परिणाम अमेरिकी सियासत के साथ-साथ विश्व शक्ति संतुलन पर भी पड़ेगा। ट्रंप अमेरिका को मागा के रंग में ढालने पर आमादा हैं। उनका एजेंडा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक- तमाम दायरों में उन सारी प्रगतियों को पलट देने का है, जिनसे बीसवीं सदी में अमेरिका की उदारवादी छवि बनी थी। यानी उसे एक खास पहचान मिली थी।

कुछ विश्लेषकों की इस राय से सहज ही इत्तेफ़ाक रखा जा सकता है कि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी इतिहास के नहीं, तो कम-से-कम हाल के दशकों का सबसे ताकतवर राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। राजनीतिक सत्ता को निर्धारित करने वाले तमाम पहलू जिस हद तक ट्रंप के अनुकूल हैं, वैसा पीढ़ियों से नहीं हुआ। 1933 से 1945 में अपनी मृत्यु के दिन तक लगातार राष्ट्रपति रहने वाले फ्रैंकलीन डी। रुजवेल्ट अपनी न्यू डील योजना से श्वेत श्रमिक वर्ग में बनी अपनी जबरदस्त लोकप्रियता के बूते लगातार चार बार राष्ट्रपति चुनाव जीतने में जरूर कामयाब हुए थे, लेकिन देश के उद्योगपित-धनिक वर्ग के बीच उनका विरोध लगातार बना रहा था। उसके बाद लोकप्रिय से लोकप्रिय राजनेता के लिए भी घरेलू राजनीति में वैसी चुनौती-विहीन स्थिति नहीं थी, जैसी आज ट्रंप के लिए दिख रही है।

ट्रंप के शासनकाल का अनुमान लगाने के लिए जरूरी है कि उनकी इस शक्ति के स्रोतों को समझा जाए। तो पहले उनकी राजनीतिक शक्ति पर नज़र डालेः

यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि 2017 में जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने, तब यह स्थिति नहीं थी। रिपब्लिकन पार्टी के अंदर उनके खिलाफ परंपरागत रिपब्लिकन नेताओं का बड़ा गुट मौजूद था। इस गुट से जुड़े सांसद सीनेट और हाउस के अंदर भी ट्रंप के तानाशाही किस्म के एजेंडे पर लगाम रखते थे।

आज क्या हाल है? ट्रंप की जीत के बाद इन खेमों पर जैसे पाला पड़ गया। जो खामोशी छायी है, उसके टूटने के फिलहाल सीमित संकेत ही हैं। इसके बीच क्या फिर से anti-fa समूह सक्रिय होंगे, यह एक बड़ा सवाल बना हुआ है।

ट्रंप की यह ताकत असल में देश के शासक वर्ग के प्रभावी हिस्सों के उनके पीछे लगभग एकजुट इकट्ठा हो जाने से बनी है। कॉरपोरेट्स, वित्त जगत के कर्ता-धर्ता और अन्य बिजनेस हित आज उनका खुल कर समर्थन कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि सोशल मीडिया कंपनियां और मेनस्ट्रीम मीडिया का बड़ा हिस्सा, जो ट्रंप-1 के समय उनके अंदाज और एजेंडे के खिलाफ खड़ा था, आज उनके सामने नत-मस्तक है। इसके अलावा गुजरे आठ वर्षों में मागा समर्थकों ने अपना मीडिया भी खड़ा किया है, जिसकी अब व्यापक पहुंच और बड़ी दर्शक/श्रोता संख्या है।

ट्रंप की जीत के दो महीनों के अंदर हुई घटनाएं गौरतलब हैः

ट्रंप अपने पहले कार्यकाल में ही न्यायपालिका को अपने अनकूल ढाल चुके थे। अमेरिका में जजों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है। पहले कार्यकाल में उन्होंने और राज्यों में उनके मागा समर्थक गवर्नरों ने दक्षिणपंथी रुझान वाले जजों की नियुक्ति अभियान चला कर की। नतीजा है कि अदालतें दक्षिणपंथी एजेंडे के पक्ष में फैसले देती चली गई हैँ। उसकी सबसे चर्चित मिसाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा गर्भपात को वैध ठहराने संबंधी 50 साल पुराने अपने फैसले को पलट देना रहा है।

लिबरल समझे जाने वाले न्यूयॉर्क की अदालत ने ट्रंप के खिलाफ अवैध यौन संबंध पर परदा डालने के लिए धन देने संबंधी मामले में जैसा फैसला दिया, उससे ट्रंप के आगे न्यायपालिका के लड़खड़ाने के साफ संकेत मिले हैं। कोर्ट ने इस मामले में ट्रंप को दोषी तो ठहराया, लेकिन बिना कैद या जुर्माने की सजा दिए मामला खत्म कर दिया। (https://theintercept.com/2025/01/10/trump-hush-money-sentencing-unconditional-discharge/)

इस रूप में अमेरिकी सत्ता के तमाम केंद्र आज ट्रंप के पीछे एकजुट नजर आ रहे हैं। इसका दूरगामी परिणाम अमेरिकी सियासत के साथ-साथ विश्व शक्ति संतुलन पर भी पड़ेगा। ट्रंप अमेरिका को मागा के रंग में ढालने पर आमादा हैं। उनका एजेंडा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक- तमाम दायरों में उन सारी प्रगतियों को पलट देने का है, जिनसे बीसवीं सदी में अमेरिका की उदारवादी छवि बनी थी। यानी उसे एक खास पहचान मिली थी। संक्षेप में कहें, तो सामाजिक-सांस्कृतिक उदारवाद का ट्रंप के मागा समर्थक नामो-निशां मिटा देना चाहते हैं। मसलन,

              रिपब्लिकन शासित राज्यों में क्रिटिकल रेस थ्योरी पढ़ाने पर रोक लगाने का सिलसिला शुरू हो चुका है

              एलजीबीटीक्यू समुदायों के लिए हुए विशेष प्रावधानों को मिटाया जा रहा है

              फ्लोरिडा राज्य ने कथित कम्युनिस्ट उत्पीड़न के इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल किया है

              पारिवारिक मूल्यों को कट्टर ईसाई पहचान के साथ लागू करने की मुहिम तेज हो रही है

              अपराधियों को बेरहमी से कुचल देने की सोच फैलाई गई है। आव्रजकों को अपराध के प्रमुख स्रोत के रूप में चिह्नित किया जा रहा है और उनके प्रति किसी प्रकार के रहम का विरोध किया जा रहा है

              रिपब्लिकन पार्टी हमेशा से हथियार रखने के अधिकारों की समर्थक रही है। इसके पीछे यही सोच है कि समृद्ध और सक्षम तबके अपराधियों से अपने बचाव के लिए हथियार रखना चाहते हैं, तो इसका उन्हें हक है।

              आव्रजकों को हर प्रकार की आर्थिक मुश्किलों के लिए दोषी ठहराने का अभियान मागा प्रचार का अभिन्न अंग है

              इस परियोजना का विरोध करने वाले समूहों या व्यक्तियों को मागा से जुड़े लोग कम्युनिस्ट बता देते हैं। अमेरिकी मेनस्ट्रीम मीडिया एवं विमर्श में यह इतिहास तो लंबा हो चला है, जिसमें कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट शब्दों को अपराधी के समानार्थी समझा जाता है।

वैसे तो इनमें से कई बातें रिपब्लिकन-कंजरवेटिव्स का पुराना एजेंडा है, मगर मागा आंदोलन का समर्थन बढ़ने के साथ इन्हें जितनी लोकप्रियता मिली है, वैसा कम-से-कम दूसरे विश्व युद्ध के बाद से नहीं हुआ। ट्रंप और मागा की खूबी यह है कि इन्होंने इन मुद्दों को अमेरिकी समाज और मेनस्ट्रीम विमर्श का मुख्य एजेंडा बना दिया है, जिस पर पिछले आठ वर्षों में समाज बंटता चला गया है। इस ध्रुवीकरण में मागा के भारी पड़ने से ही ट्रंप को वह ताकत मिली है, जिससे आज वे और उनके निकट सहयोगी अमेरिका से आगे बढ़ते हुए यूरोप और अन्य देशों का एजेंडा तय करने की कोशिश में जुटे दिख रहे हैं।

इन सबकी आड़ में खुद अरबपति ट्रंप का असल खेल है। वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हैवियर मिलेय की तर्ज पर anarcho-capitalist ढांचे में ढालना चाहते हैं, जिससे अरबपति देश के धन एवं संसाधनों से बेलगाम अपनी तिजोरी भर सकें। हर धुर-दक्षिणपंथी एजेंडे के पीछे ऐसी ही ताकतें होती हैं और यही मकसद होता है। अमेरिका में यह एजेंडा आज अभूतपूर्व रूप से हावी हो गया है। मगर यह रास्ता जोखिमों भी भरा होता है। यह समाज को तीखे ध्रुवीकरण और आंतरिक अशांति की ओर ले जाता है। ट्रंप के काल में अमेरिका भी ऐसी संभावनाओं से मुक्त नहीं है। लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।

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