‘मालगुडी’ और ‘फुलेरा’ दोनों की दुनिया और किरदारों में जादुई सादगी, सहजता, सरलता के साथ साथ मानवीय संबंधों की खूबसूरती और उनकी स्वाभाविकता की छटा है। इनकी ओरिजिनालिटी हमारे आस-पास की दिखावटी और दूसरों की लाइक्स और कमेंट्स से ख़ुद के लिए क्षणिक वैलिडेशन बटोरने वाली संस्कृति से आहत संप्रदाय के लिए मरहम का काम करती है। ऐसे कॉन्टेंट उम्मीद देते हैं कि चाहे जितनी भी गोलियों और गालियों की बौछार वाली कहानियां आएं, एक दिन लोहे के पेड़ फिर से हरे होंगे और सब ठीक हो जाएगा।
सिने-सोहबत
फ़र्ज़ कीजिए कि पहले जब कभी भी कोई शरारती बच्चा सोता नहीं होगा तो मां कहती होगी कि सो जा बेटे वर्ना वेब सीरीज़ चल जाएगा। उसके बाद बच्चे की ज़ेहन में ज़्यादातर क्राइम, गोली बारी, एक्सप्लिसिट गाली गलौज और सेंसर बोर्ड की निगरानी से कोसों दूर, बेलगाम और डरावने कॉन्टेंट के दृश्य आने लगते हों और उस बच्चे को नींद आने की बजाए उसकी नींद उड़ जाती होगी। ख़ुशी की बात है कि बहुत तेज़ी से बदलती कॉन्टेंट क्रिएशन की करवट ने ‘फुलेरा’ नाम के एक काल्पनिक गांव की ओट ली है। हिंदी वेब सीरीज़ की दुनिया में ‘पंचायत’ नाम का एक खूबसूरत प्रयोग हुआ, जिसने अपनी सादगी और सहजता से अपने चाहने वाले दर्शकों की एक बहुत बड़ी और डिवोटेड कम्युनिटी बना ली है जो निरंतर अपने दर्शकों में बढ़ोतरी करती जा रही है।
ग्रामीण भारत की खुशबू फैलाने वाली वेब सीरीज ‘पंचायत’ का सीजन चार आ चुका है और आज के ‘सिने-सोहबत’ में चर्चा का विषय भी वही है। नए सीजन का दर्शकों को बेसब्री से इंतजार था। दर्शकों को अपनी जड़ों यानी अपने गांवों की लोक संस्कृति से भरे किरदारों की ओर ले जाने वाले इस शो ने सीजन दर सीजन अपने दर्शकों का दिल बखूबी जीता है। इस बार भी फुलेरा की चटपटी कहानी दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रही है। बनराकस हों या मंजू देवी, प्रधान जी और सचिव जी समेत क्रांति देवी, सभी ने अपने चाहने वालों के अलावा नए दर्शकों का भी दिल जीत लिया। ये सभी किरदार असल में ‘पंचायत 4’ की जान हैं, जिन्होंने सीरीज में जान डाल दी है।
सीजन चार की शुरुआत वहीँ से होती है, जहां सीजन तीन ख़त्म हुआ था। नया सीजन अपने चिर परिचित बैकड्रॉप पर चलता है, जहां फुलेरा की दो सशक्त महिलाएं मंजू देवी (नीना गुप्ता) और क्रांति देवी (सुनीता राजवार) चुनावी घमासान में एक-दूसरे को मात देने के लिए तैयार हैं, मगर पहले एपिसोड की शुरुआत में सचिव जी (जितेंद्र कुमार) पर भूषण (दुर्गेश कुमार) थप्पड़ मारने के आरोप में एफआईआर दर्ज करा कर उसे मुसीबत में डाल देता है।
समझौते की राह में सचिव जब भूषण के पास माफ़ी मांगने जाता है, तब भूषण शर्त रखता है कि उस पर और पूर्व विधायक चंद्रकिशोर सिंह (पंकज झा) पर से प्रधान (रघुबीर यादव) को गोली से मारने के प्रयास के आरोप को हटा दिया जाए। इस रस्साकसी का अंत उलझन को और बढ़ाता है। यहां मंजू देवी और क्रांति देवी मतदाताओं को लुभाने के लिए न केवल एक-दूसरे की चुनावी रणनीति को विफल बनाती हैं, बल्कि गांव की साफ-सफाई से लेकर मुफ्त में लौकी और आलू बांटने जैसे दांव भी खेलती हैं।
प्रधान समूह अपनी चाल चलते हुए भूषण समूह के चंदू को अपनी पार्टी में लाने की कोशिश करते हैं, तो भूषण गुट पूर्व विधायक की मदद से प्रधान और विकास (चंदन रॉय) के घर छापा मरवा कर गांव में उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास करता है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में दोनों गुटों के बीच छोटी-मोटी झड़पें भी जारी रहती हैं, मगर यह चुनावी घमासान किस करवट बैठता है और किरदार अपनी मंजिल तक पहुंच पाते हैं या नहीं ये जानने के लिए अगर आप सीरीज देख लें, तो क्या बात हो।
निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा और अक्षत विजयवर्गीय जाने-पहचाने फॉर्मेट पर आगे बढ़ते हैं, जो काफी हद तक मनोरंजन देते हैं और कुछ ही मिनटों में दर्शक फुलेरा के चरित्रों के साथ घुलमिल जाते हैं। मगर फिर जैसे-जैसे एपिसोड्स बढ़ते जाते हैं, कहानी की गति ज़रा धीमी हो जाती है। पिछले सीजन की तरह इसमें रोचक सबप्लॉट्स की कमी खलती है। हालांकि प्रधान गुट द्वारा बिनोद (अशोक पाठक) को खाने-पीने का प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिलाने वाला, विकास के घर छापा पड़ने पर पैसों को गायब करने वाले सीन मनोरंजन के साथ-साथ भावनात्मक नाता ज़रूर जोड़ते हैं मगर टॉयलेट की सफाई के मामले में मंजू देवी और क्रांति देवी के गुटों के बीच जो भिड़ंत दिखाई गई है, वो नाटकीय लगती है। मंजू देवी के पिता वाला ट्रैक भी कहानी को आगे नहीं ले जाता।
रिंकी और सचिव जी का रोमांटिक ट्रैक थोड़ा और रूमानी होता, तो और मजा आ जाता। मगर इसके बावजूद तीन सीजन्स में पूरी तरह से स्थापित हो चुके अपने तमाम प्रिय किरदारों के साथ दर्शक अपनी यात्रा भी आगे बढ़ाता जाता है। चौथे सीजन का क्लाइमैक्स बहुत आसानी से अगले सीजन के स्वागत के लिए खुले द्वार की तरह है। इससे वो वाला फ़िल्मी सुकून मिलता है कि ‘पिक्चर अभी बाक़ी है मेरे दोस्त’।
एक्टिंग के मामले में सभी कलाकार ज़बरदस्त हैं। मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए कैट की तैयारी, भविष्य की चिंता, फुलेरा की राजनीति, रिंकी के साथ रोमांटिक एंगल के बीच झूलते युवा सचिव जी के रूप में जितेंद्र कुमार अपने अभिनय की एक खास शैली में जीते हैं। मंजू देवी के रूप में नीना गुप्ता निर्वाचित मुखिया होने के बावजूद पति प्रधान जी के फैसलों के साथ कभी सहमति तो कभी असहमति दर्शाते किरदार में मजबूत साबित होती हैं।
क्रांति देवी के रोल में सुनीता राजवार अपनी तमाम चालाकियों और दुष्टताओं के बावजूद दिल जीत ले जाती हैं। रघुबीर यादव अपनी विशिष्ट शैली से याद रहते हैं जबकि दुर्गेश कुमार द्वारा निभाया गया बनराकस काफ़ी मनोरंजक है। बम बहादुर का चरित्र भी मुस्कराहट के पल जोड़ता है। उप प्रधान प्रह्लाद के रूप में फैसल मलिक बेहतरीन इमोशन जोड़ते हैं, उनकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। फैसल मलिक के किरदार में जितनी परतें हैं और वो जिस कुशलता से अपना किरदार निभा ले जाते हैं वो अपने आप में किसी एक्टिंग स्कूल से कम नहीं। विकास के किरदार में चंदन रॉय बेहद सहज लगे हैं। बिनोद का चरित्र मार्मिक है। संविका ने भी रिंकी की भूमिका के साथ काफ़ी संतुलित परफॉरमेंस दी है।
मिलाजुला कर देखें तो वेब सीरीज़ ‘पंचायत’ में गांव फुलेरा की दुनिया आज के बच्चों के मन और मस्तिष्क में उसी इमोशनल मरहम का काम कर सकती है जो कि हमारे बचपन में दूरदर्शन पर आने वाला धारावाहिक ‘मालगुडी डेज़’ ने किया था। ‘मालगुडी डेज़’ की कहानियां दक्षिण भारत के एक काल्पनिक गांव मालगुडी में बसती थीं जो कि आरके नारायण की लघु कथाओं पर आधारित थी। निर्देशक थे शंकर नाग। ‘मालगुडी’ और ‘फुलेरा’ दोनों की दुनिया और किरदारों में जादुई सादगी, सहजता, सरलता के साथ साथ मानवीय संबंधों की खूबसूरती और उनकी स्वाभाविकता की छटा है। इनकी ओरिजिनालिटी हमारे आस-पास की दिखावटी और दूसरों की लाइक्स और कमेंट्स से ख़ुद के लिए क्षणिक वैलिडेशन बटोरने वाली संस्कृति से आहत संप्रदाय के लिए मरहम का काम करती है। ऐसे कॉन्टेंट उम्मीद देते हैं कि चाहे जितनी भी गोलियों और गालियों की बौछार वाली कहानियां आएं, एक दिन लोहे के पेड़ फिर से हरे होंगे और सब ठीक हो जाएगा।
अमेज़न प्राइम वीडियो पर है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़ के होस्ट हैं”।)