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पुरानी दुविधाः धर्म या जाति!

भारतीय जनता पार्टी के सामने यह बड़ी दुविधा है कि वह धर्म और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति पर आगे बढ़े या जाति के दांव से चुनाव जीतने का अभियान जारी रखे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसका धर्म का कार्ड और सांप्रदायिक विभाजन का नैरेटिव सफल नहीं हो पा रहा है, जबकि दूसरी ओर जाति का कार्ड बहुत कारगर हो रहा है। ध्यान रहे पिछले साल लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले अयोध्या में भव्य राममंदिर के उद्घाटन का भव्य कार्यक्रम तय किया गया। मंदिर पूरी तरह से बन कर तैयार नहीं हुआ था, अब भी पूरी तरह से तैयार नहीं है, फिर भी उसका उद्घाटन हुआ। पूरी दुनिया में उस दिन त्योहार मनाया गया। देश और दुनिया में हर हिंदू घर के आगे दीये जलाए जाने का अभियान चला। कहा गया है कि रामलला की पांच सौ साल की प्रतीक्षा समाप्त हुई।

उसके बाद भाजपा इस भरोसे में थी कि अब उसे किसी बात की जरुरत नहीं है। जैसे 2019 के चुनाव से ठीक पहले हुए पुलवामा कांड ने देश भर के हिंदुओं को राष्ट्रवाद के मुद्दे पर एक कर दिया था उसी तरह 2024 में पूरे देश के हिंदू, धर्म और राम के नाम पर एकजुट हो जाएंगे। लेकिन इसका उलटा हुआ। पूरे देश की बात छोड़ें तो उत्तर प्रदेश में ही भाजपा अपनी जीती हुई करीब आधी सीटें हार गई। लगातार तीसरे चुनाव में उसकी सीटें कम हुईं। 2014 में उसने अकेले 71 सीटें जीती थीं, जो 2019 में घट कर 62 हुईं और 2024 में घट कर 33 रह गईं। भाजपा फैजाबाद लोकसभा सीट हार गई, जिसके तहत अयोध्या धाम आता है। फैजाबाद से जीते अवधेश प्रसाद को सपा, कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने ट्रॉफी की तरह पेश किया।

लोकसभा चुनाव के बाद पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए हैं, जिनमें सिर्फ एक राज्य झारखंड में भाजपा ने धर्म का कार्ड खेलने का प्रयास किया। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को झारखंड का सह प्रभारी बनाया गया था। उनके प्रचार की पूरी थीम यह थी कि झारखंड में बांग्लादेश से मुस्लिम घुसपैठिए आ रहे हैं और राज्य की आबादी की संरचना उनके कारण बिगड़ रही है। आंकड़े देकर बताया गया कि पहले आदिवासी आबादी कितनी थी और अब घट कर कितनी रह गई है। मुस्लिम घुसपैठियों द्वारा आदिवासी लड़कियों से शादी करने और जमीन लेकर बसने की अनेक घटनाओं को उभारा गया। पूरा प्रचार हिंदू मुस्लिम के नैरेटिव पर सेट किया गया और नतीजा यह निकला कि भाजपा पहले से जीती हुई सीटें हार गई और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने पहले से ज्यादा सीटें जीत कर सरकार बनाई।

इसके उलट बाकी राज्यों में भाजपा ने धर्म की बजाय जातीय समीकरण पर काम किया। हरियाणा में भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया और पिछड़ी जाति से आने वाले नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया। भाजपा ने इस दांव से सारा गेम पलट दिया। राज्य की 36 फीसदी से कुछ ज्यादा पिछड़ी जाति को अपने साथ जोड़ा तो ब्राह्मण प्रदेश अध्यक्ष के जरिए ब्राह्मणों को एकजुट किया। खट्टर को केंद्र में मंत्री बना कर पंजाबियों को साधा गया। दूसरी ओर कांग्रेस जाट, मुस्लिम और दलित के भरोसे रही लेकिन दलित नेता कुमारी सैलजा की नाराजगी से उसका दांव फेल हुआ।

ऐसे ही महाराष्ट्र में भी भाजपा ने किसी का चेहरा पेश नहीं किया। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। लेकिन मराठा आरक्षण की मांग के बीच सहयोगी पार्टी एनसीपी के नेता छगन भुजबल के जरिए पिछड़ी जातियों का नैरेटिव सेट किया। इसके अलावा भाजपा ने सरकार में रहते तीन दर्जन से ज्यादा पिछड़ी जातियों के बोर्ड और निकाय बना कर उनके महत्वपूर्ण लोगों को उसमें एडजस्ट किया था और उनके लिए जमीनी स्तर पर काम शुरू किए थे। अभी भले महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र हटाने का विवाद चल रहा है लेकिन पिछले साल चुनाव से पहले ऐसा कोई नैरेटिव नहीं बनने दिया गया। अजित पवार को मुस्लिम उम्मीदवार भी लड़ाने दिया गया।

बिहार के चुनाव को लेकर भी भाजपा को ऐसा लग रहा है कि वहां धर्म का मुद्दा ज्यादा नहीं चलेगा। भाजपा 2015 के चुनाव में जब बिना नीतीश के लड़ रही थी तब उसने धर्म का दांव आजमाया था और कामयाब नहीं हुई थी। इसलिए वह जाति का समीकऱण साधने में लगी है। अगर वहां कामयाबी मिलती है तो आगे के लिए भाजपा का रास्ता स्पष्ट होगा। हालांकि तब भी धर्म और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गतिविधियों को रोक नहीं दिया जाएगा। वह काम जारी रहेगा लेकिन साथ साथ जाति की एकजुटता का प्रयास भी होता रहेगा। बड़े दिखाने की बजाय सतह के नीचे उबाल बनाए रखने की रणनीति काफी कारगर रही है।

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