मोहन भागवत भला और क्या बोल सकते हैं? उस नाते प्रधानमंत्री मोदी को ले कर भागवत और ट्रंप की भावना का फर्क इतना भर है कि ट्रंप चाहे जो बोल सकते हैं लेकिन मोहन भागवत सत्ता के भय से मर्यादा में बोलने को मजबूर हैं। वे सलाह दे सकते हैं न कि यह अल्टीमेटम कि भाजपा का अध्यक्ष वहीं होगा जो संगठन चाहेगा। बावजूद इसके ट्रंप और भागवत एक से मनोभाव में हैं। मेरी धारणा है कि हजार वर्षों की गुलामी ने हिंदू को सत्ता से भयाकुल, सत्ता का भूखा और सत्ता की भक्ति के चरणदास डीएनए दे रखा है। मालिक के आगे बेबाकी से बोलने की हिम्मत नहीं होती। महज सलाह और सतही बातें कर सकते हैं।
सो, संघ के सौ साल पूरे होने पर नरेंद्र मोदी ने बतौर स्वंयसेवक अपनी दक्षिणा देते हुए लाल किले से आरएसएस की तारीफ कर दी। इससे प्रांत स्तर के प्रचारकों, कार्यकर्ताओं, स्वंयसेवकों में यह जोश स्वाभाविक बना होगा कि देखो, लाल किले से प्रधानमंत्री ने संघ की वाह की। किसी में यह ख्याल नहीं बना होगा कि संघ के सौ साल होने पर भी प्रचारक सरकार के मुखिया मोदी-अमित शाह ने ग्यारह वर्षों में ऐंवे कईयों को भारत रत्न का सम्मान दे डाला लेकिन हिंदू राजनीति के आइडिया ऑफ इंडिया के प्रर्वतक सावरकर हों या हेडगेवार या गोलवलकर, देवरस में किसी को भी मोदी सरकार ने भारत रत्न नहीं दिया तो आखिर क्यों?
सोचें क्यों? इसलिए कि स्वंय नरेंद्र मोदी अब सत्ता की बदौलत अपने को पृथ्वीराज चौहान की विरासत के हिंदू सम्राट, हिंदू राजनीति के प्रवर्तक, भगवान जब मानते हैं तो सावरकर, गोलवलकर जैसों का भला क्या अर्थ है? इसलिए इस बात (भले न मानें) को भी नोट रखें कि 2014 से मोदी-शाह ने भाजपा की संगठनात्मक नाल को लगभग काट दिया है। जेपी नड्डा ने जो कहा था वह मोदी-शाह की ही सोच है कि भाजपा स्वंय अब समर्थ है। आरएसएस की आवश्यकता नहीं है! तभी आरएसएस, भागवत सलाह देने से ज्यादा नहीं बोल सकते।
मैं ट्रंप की चिढ़ का बुनियादी कारण यह मानता हूं कि मोदी ने अहसान नहीं माना। उनसे सीजफायर करवा लिया लेकिन उन्हें शांतिदूत कहने के बजाय यह बयानबाजी बनवाई कि सीजफायर में अमेरिका का क्या लेना-देना। मतलब सीजफायर अमेरिकी बीचबचाव के कारण नहीं, बल्कि मोदी की छप्पन इंची छाती, उनकी शूरवीरता के कारण थी, जिससे पाकिस्तान घबरा गया। उसके डीजीएमओ ने भारत के समवर्ती सेनाधिकारी को फोन कर लड़ाई रोकने की विनती की और भारत ने दया दिखलाते हुए सीजफायर की सहमति दी। मतलब भारत-पाकिस्तान की साझा सहमति से सीजफायर हुआ। ट्रंप का भला क्या मतलब!
अर्थात मोदीजी के पराक्रम से प्रारंभ है और उन्हीं की इच्छा से अंत है। उनका यही मनोभाव आरएसएस, मोहन भागवत एंड पार्टी के प्रति भी है। आखिर आरएसएस है क्या! उसके कारण दिल्ली का तख्त नहीं मिला, बल्कि नरेंद्र मोदी ही वह वजह है, जिसे हिंदुओं ने अवतार की तरह दिल्ली की सत्ता गद्दी पर बैठाया। नतीजे में मोहन भागवत की जेड सुरक्षा, संघ का सत्ता भोग और संघ मशीनरी, प्रचारकों का वैभव सब अवतारी-अजैविक राजा की कृपा से बना हुआ है। उधर उनके चाणक्य, मुख्य पुजारी के नाते अमित शाह का भी यह सोचना स्वभाविक है कि वे चुनाव जीतवा रहे हैं तो भाजपा नाम की पार्टी का संगठन तो उनका जेबी होना चाहिए।
संघ की सलाह, संघ की सोच से तो नब्बे वर्षों से हिंदू भटक रहे थे। सत्ताविहीन थे। 2014 में पृथ्वीराजजी-चाणक्यजी का अवतरण हुआ तो मोहन भागवत और उनके प्रचारकों का भाग्य बदला। अब संघ यदि गौरव से शताब्दी मना रहा है तो मोदी-शाह की आरती उतारो न कि सलाह दो। इसे मोहन भागवत ने भी समझा हुआ है। इसलिए उनका उत्सव सलाह-सफाई की भाव-भंगिमा से हो रहा है। वे हैं क्या जो किसी को 75 वर्ष की उम्र में रिटायर होने के लिए कहें या सलाह दें! इसलिए नोट रखें भाजपा का अध्यक्ष वही होगा जो मोदी-शाह चाहेंगे। नहीं तो उसके बिना भी मोदी-शाह मजे से बिहार-यूपी जितवा देंगे। इसलिए नोट रखें भागवत, संघ से सत्ता को कोई गहरी परेशानी नहीं है मगर हां, सत्ता को डोनाल्ड ट्रंप से जरूर है! और भारत को भी है!
