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विपक्ष के लिए एसआईआर करो या मरो का मुद्दा

मतदाता सूची के विशेष गहन परीक्षण यानी एसआईआर का मुद्दा विपक्ष के लिए करो या मरो का मुद्दा है। तभी संसद का मानसून सत्र खत्म होने के बाद भी सभी विपक्षी पार्टियां इस पर एक होकर लड़ रही हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने सीधा बगावत का ऐलान किया है। उन्होंने अपने प्रदेश के मतदाताओं से कहा है कि वे चुनाव आयोग को कोई भी जानकारी नहीं दें। बिहार में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव वोटर अधिकार यात्रा कर रहे हैं और पहली बार ऐसा हो रहा है कि महागठबंधन की सभी पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता इसमें शामिल हो रहे हैं। पटना में इस बात की चर्चा है कि अब झंडा मैटर नहीं कर रहा है। यानी महागठबंधन की पार्टियों के कार्यकर्ता किसी भी सहयोगी पार्टी का झंडा लेकर यात्रा में शामिल हो रहे हैं। यह बड़ी बात है। यह भी अनायास नहीं है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन यात्रा में शामिल हो रहे हैं तो झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के भी राहुल के साथ सड़क पर उतरने की चर्चा है। एक सितंबर को विपक्षी गठबंधन पटना की सड़कों पर अपनी ताकत दिखाएगा।

बिहार में एसआईआर का दूसरा चरण चल रहा है, जो 31 अगस्त को खत्म हो जाएगा और 30 सितंबर तक अंतिम मतदाता सूची का प्रकाशन होगा, जिसके बाद विधानसभा चुनाव की घोषणा होगी। पहले चरण में चुनाव आयोग ने बिहार के 65 लाख मतदाताओं के नाम काट दिए। आयोग ने बताया हटाए गए नामों में 22 लाख मृतकों के नाम हैं और 37 लाख ऐसे लोगों के नाम हैं, जो स्थायी रूप से शिफ्ट कर गए हैं। इनके अलाव छह लाख से कुछ ज्यादा लोग ऐसे मिले, जिनके नाम एक से ज्यादा जगहों पर थे। इस आंकड़ें में कुछ गड़बड़ी है, जिसे ठीक कराया जा रहा है। अभी तक 50 हजार से कुछ ज्यादा लोगों ने शिकायत की है और नाम जोड़ने का दावा किया है। राजद, कांग्रेस और लेफ्ट की ओर से सिर्फ एक सौ शिकायतें की गई हैं। लेकिन विपक्षी पार्टियों की चिंता यह नहीं है कि मरे हुए लोगों या शिफ्ट कर गए लोगों के नाम काटे गए हैं। विपक्ष की चिंता है कि दस्तावेजों की कमी से कटने वाले नामों की है।

चुनाव आयोग ने मसौदा मतदाता सूची में सात करोड़ 24 लाख नाम प्रकाशित किए हैं। बताया जा रहा है कि इनमें से तीन लाख लोगों को नोटिस भेजा गया है। आयोग की ओर से कहा गया है कि इन तीन लाख लोगो ने जो दस्तावेज जमा कराए हैं वे सही नहीं हैं और उनके आधार पर मतदाता सूची में नाम नहीं जोड़ा सकता है। इन तीन लाख लोगों को नोटिस भेज कर एक हफ्ते में निजी तौर पर मतदाता पंजीयन अधिकारी यानी ईआरओ के सामने हाजिर होने और दस्तावेज प्रस्तुत करने को कहा गया है। बताया जा रहा है कि यह संख्या बढ़ सकती है। यानी बड़ी संख्या में लोगों के नाम दस्तावेजों की कमी के आधार पर भी काटे जा सकते हैं।

अभी तक जो नाम कटे हैं उनमें कोई पैटर्न नहीं है। यानी ऐसा नहीं है कि भाजपा विरोधी पार्टियों के समर्थकों के ज्यादा नाम काटे गए हैं। लेकिन दस्तावेजों की कमी के आधार पर नाम कटने में यह पैटर्न दिख सकता है। मुश्किल यह है कि इस बारे में जानकारी 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित होने के बाद ही मिल पाएगी। अभी जिन लोगों को नोटिस भेजा जा रहा है कि वे चुनाव आयोग की ओर से निर्धारित 11 दस्तावेजों में से कोई दस्तावेज जुटाने में लगे हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आधार स्वीकार करने को कहा है फिर भी बिहार में लाखों लोगों को समस्या हो रही है।

विपक्षी पार्टियों की चिंता इसलिए बढ़ी है क्योंकि बिहार में बड़ी संख्या में सीटें ऐसी हैं, जहां नजदीकी मुकाबला होता है। पिछली बार करीब 50 सीटों पर हार जीत का अंतर पांच हजार वोट का था और करीब 70 सीटें ऐसी थीं, जहां 10 हजार से कम वोट से जीत हार हुई थी।  इसमें से ज्यादातर सीटें भाजपा और उसकी सहयोगी जनता दल यू ने जीती हैं। अगर ऐसी 50 सीटों पर भी पांच से 10 हजार वोट काट दिए जाते हैं तो विपक्ष के लिए मुश्किल हो सकती है। तभी ऐसा लग रहा है कि अभी एसआईआर के विरोध में चल रहा आंदोलन तुरंत समाप्त नहीं होगा। 30 सितंबर को अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद इसमें तेजी आ सकती है। यह सिर्फ बिहार का मामला है। एसआईआर का मामला अब बिहार से बाहर पहुंचेगा।

चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण का ऐलान कर दिया है। लेकिन इसके साथ ही टकराव की भी शुरुआत हो गई है। तृणमूल कांग्रेस की नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नागरिकों से कहा है कि वे इसका बहिष्कार करें और चुनाव आयोग की ओर से मांगे जाने पर कोई भी दस्तावेज उसे नहीं दें। क्या ऐसा हो सकता है? अगर तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों ने ही चुनाव आयोग की इस कवायद का बहिष्कार किया तो एसआईआर का काम कैसे आगे बढ़ेगा और उसके बगैर कैसे मतदाता सूची तैयार होगी? इससे बड़ा टकराव शुरू हो सकता है। कुछ दिन पहले चुनाव आयोग ने चुनाव कार्य से जुड़े चार अधिकारियों को निलंबित करने और उन पर कार्रवाई करने का आदेश दिया था तो बड़ी मुश्किल से कई दिन के बाद राज्य सरकार ने चारों को निलंबित किया लेकिन उनके खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ है। असल में चुनाव आयोग ने बिहार से एसआईआर की शुरुआत इसलिए कराई ताकि वह एक मॉडल राज्यों के सामने पेश कर सके। चूंकि बिहार में एनडीए की सरकार थी तो आयोग इसे कराने में सफल रहा।

लेकिन पश्चिम बंगाल में मुश्किल होगी। ममता बनर्जी लड़ने के मूड में हैं। एसआईआर का काम उसके बाद असम और तमिलनाडु व केरल भी पहुंचने वाला है। इन राज्यों में अगले साल विधानसभा का चुनाव होने वाले हैं। बिहार की तरह चुनाव आयोग इन राज्यों में एसआईआर का कार्य पूरा करके अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित करने का प्रयास करेगा। इसमें सबसे ज्यादा विवाद पश्चिम बंगाल और असम में होने वाला है। भाजपा का दावा है कि इन दोनों राज्यों में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए हैं। अगर दस्तावेजों की पड़ताल करके चुनाव आयोग ने बड़ी संख्या में लोगों के नाम काटे तो तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस पार्टी और लेफ्ट की ओर से बड़ा आंदोलन होगा। इसलिए यह मानना चाहिए कि बिहार की वोटर अधिकार यात्रा एक शुरुआत है, जो अब पूरे देश में होगी और हर चुनावी राज्य में इसे लेकर आंदोलन होगा। अगले आठ महीने में होने वाले छह राज्यों के विधानसभा चुनाव में विपक्ष को सबसे ज्यादा उम्मीद है। इसलिए विपक्ष आसानी से यह कवायद नहीं होने देगा।

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