Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

ब्रिक्स मानों व्हाट्सएप समूह

जब गोल्डमैन सैक्स ने 2001 में “ब्रिक्स (BRICs)” शब्द गढ़ा था, तब यह कोई ठोस संगठन नहीं था, बस, उभरती अर्थव्यवस्थाओं—ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन—के जमवाड़े का एक कल्पनाशील, आकर्षक संक्षिप्त नाम था। पर दुनिया ने उसे भविष्य की आर्थिक ताक़त के रूप में देखा। लेकिन 2009 तक आते-आते यह शब्द आर्थिकी, आँकड़ों की ताकत का नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक रंग लेने लगा। और जब इसमें दक्षिण अफ्रीका शामिल हुआ, तो ब्रिक्स (BRICS) एक वास्तविक मंच बन गया—पाँच अलग भूगोल, पाँच अलग आवाज़ें, पर एक साझा ख्याल कि एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था बने जो केवल पश्चिम के इर्द-गिर्द न घूमे

वक़्त भी अनुकूल था। बहुध्रुवीयता (Multipolarity) अब केवल वैकल्पिक कल्पना नहीं थी। पश्चिम, 2008 की आर्थिक मंदी से उबरने की कोशिश में था, चिंता व आत्मनिरीक्षण में खोया हुआ था। वहीं ये नई अर्थव्यवस्थाएँ आत्मविश्वास के साथ मंच पर आ रही थीं—बढ़ती जीडीपी (GDP), तेज़ होती आवाज़ें, और वैश्विक निर्णयों में हिस्सेदारी की माँग के साथ।

बाते और शब्दावली भव्य थी, तस्वीरें दमदार। ब्रिक्स (BRICS) ने अपनी समिट कैलेंडर तय किया, न्यू डेवलपमेंट बैंक (New Development Bank) जैसी संस्थाएं खड़ी कीं, साझा करेंसी और वैकल्पिक रेटिंग एजेंसी (Rating Agency) जैसे विचारों पर चर्चा की। कुछ वर्षों तक लगा मानो यह समूह सिर्फ बढ़ नहीं रहा, बल्कि अपनी एक नयी वैश्विक पहचान बना रहा है।

लेकिन अब 2025 तक आते-आते यह तस्वीर धुंधली हो गई है।

अब ब्रिक्स (BRICS) ने विस्तार कर ब्रिक्स प्लस (BRICS+) का रूप ले लिया है—11 सदस्य और कई और कतार में खड़े। मिस्र, ईरान, इथियोपिया, यूएई, इंडोनेशिया जैसे नए नाम इसमें शामिल हैं। कुल मिलाकर, यह समूह अब दुनिया की आधे से अधिक आबादी और जी-7 (G7) से अधिक 20 ट्रिलियन डालर अधिक जीडीपी का समूह है।

पर नया एक गंभीर सवाल आ खड़ा हुआ है। मुद्दा यह यह नहीं है कि ब्रिक्स (BRICS) कितना बड़ा हुआ है, बल्कि यह है कि क्या वह एकजुट हुआ है?

सदस्य देशों के बीच दरारें अब छिपी नहीं हैं। भारत और चीन—दो प्रमुख स्तंभ—अब भी सीमा विवाद में उलझे हैं। रूस का यूक्रेन युद्ध इस समूह की स्थिरता की छवि को झकझोर चुका है। ब्राज़ील की विदेश नीति सत्ता परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। शासन प्रणाली में भी भिन्नता गहरी है—लोकतांत्रिक भारत और ब्राज़ील से लेकर निरंकुश चीन और रूस तक। अभी भी इस समूह का कोई साझा व्यापार समझौता नहीं है, न ही कोई एकजुट विदेश नीति या साझा करेंसी। और जिस रेटिंग एजेंसी (Rating Agency) की चर्चा पहले होती थी, वह अब गुम है। न्यू डेवलपमेंट बैंक (New Development Bank) भी अब वैश्विक महत्त्वाकांक्षाओं से ज़्यादा आंतरिक विरोधाभासों का प्रबंधन करने में व्यस्त है।

ब्रिक्स (BRICS), जो कभी एक वैकल्पिक ध्रुव की कल्पना था, आज कई बार एक ऐसा व्हाट्सएप समूह (WhatsApp Group) दिखता है—जहाँ चर्चाएँ तो बहुत हैं, लेकिन तालमेल कम।

ब्रिक्स प्लस (BRICS+) में देशों बढ़ी है लेकिन अस्थिरता भी है। मध्य पूर्व, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के शामिल होने से इसकी प्रतिनिधिकता तो बढ़ी है, लेकिन इसके वैचारिक मतभेद भी गहरे हुए हैं। यदि एकमात्र कोई साझा धागा है तो वह पश्चिमी वर्चस्व के प्रति असंतोष, विशेषकर वैश्विक वित्त और प्रतिबंध नीतियों को लेकर।

लेकिन असंतोष से परे, सवाल यह है—क्या कोई साझा दृष्टिकोण है?

ब्रिक्स (BRICS) के भीतर वैचारिक विविधता विशाल है। रूस जीवाश्म ईंधनों से चिपका है, जबकि मंच पर हरित विकास की बातें होती हैं। यूएई (UAE) चीनी तकनीक में आगे बढ़ रहा है, वहीं सऊदी अरब ब्रिक्स (BRICS) को लेकर सकारात्मक संकेत देता है, लेकिन पर्दे के पीछे अब भी वॉशिंगटन से जुड़ा रहता है। और चीन—जो हमेशा से इस मंच का सबसे बड़ा, सबसे चुप्पा-शातिर खिलाड़ी रहा है—इस पर अपनी छाया बनाए रखता है। हाल में राष्ट्रपति शी जिनपिंग का सम्मेलन में न आना इस चिंता को और बढ़ा गया कि चीन अब इस मंच को किस नज़र से देखने लगा है?

फिर भी, तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद, ब्रिक्स (BRICS) अप्रासंगिक नहीं हुआ है।

दुसरे विश्व युद्ध के बाद बने पश्चिम-प्रधान वैश्विक ढाँचे—अमेरिकी नेतृत्व, तेल-आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था, और मुक्त व्यापार व्यवस्था अब दरक रही हैं। इसी खलीपन में ब्रिक्स (BRICS) को अवसर दिखता है। यह मंच आज ग्लोबल साउथ (Global South) की सबसे प्रमुख आवाज़ बन चुका है।

और अब चुपचाप एक रणनीतिक बदलाव भी हो रहा है—ब्रिक्स (BRICS) देश पश्चिम-नियंत्रित आर्थिक ढाँचों के समानांतर अपनी वैकल्पिक व्यवस्थाएं खड़ी कर रहे हैं। ये डॉलर का कोई तत्काल छोड़ने वाले नहीं नहीं है, बल्कि एक सोची-समझी वह पुनर्रचना है जो उन अनुभवों से उपजी, जहाँ इन देशों को क्रेडिट इनकार या प्रतिबंध झेलने पड़े। भारत और ईरान जैसे देश अब इस वित्तीय आत्मनिर्भरता को अस्तित्व की रक्षा मानते हैं।

भारत के लिए यह संतुलन और भी बारीक व गंभीर है। वह एक ओर ब्रिक्स (BRICS) को ग्लोबल साउथ (Global South) का प्रवक्ता बनाना चाहता है, दूसरी ओर क्वाड (Quad) और आई2यू2 (I2U2) जैसे मंचों में अपनी पश्चिमी साझेदारी को भी बढ़ा रहा है। यह दोहरी रणनीति ब्रिक्स (BRICS) की अंदरूनी दुविधाओं, अंतर्विरोधी बनावट का ही सबूत है।

ब्रिक्स प्लस (BRICS+) अब पहले से कहीं अधिक बड़ा, ज़्यादा सुर्खियां, और अधिक विविधतापूर्ण मंच है। लेकिन वह पहले से अधिक बिखरा, और शायद स्वयं को लेकर दुविधा में भी है। यह कभी पश्चिमी संस्थानों के विकल्प के रूप में देखा गया था, लेकिन अब वही असमानताएँ इसमें भी झलकने लगी हैं। चीन के दबदबे, उसकी छाया से कई तरह की समस्याएं हो गई है।

यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि ब्रिक्स (BRICS) असफल हो गया है। यह आज भी एक ऐसा मंच है जहाँ ग्लोबल साउथ (Global South) की आवाज़ बिना अनुवाद के सुनी जाती है। लेकिन यह कहना कि यह मंच एकीकृत भू-राजनीतिक शक्ति बन चुका है—शायद अभी केवल एक आकांक्षा है।

ब्रिक्स (BRICS) अब केवल एक नाम नहीं है—यह अब एक परीक्षा है: क्या महत्वाकांक्षा मतभेदों को पार कर सकती है? क्या देशों की भीड़ बढ़ने से एकता बनी रहेगी? कोई साझा मकसद बनेगा?

Exit mobile version