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गड्डे, खड्डे में धंसी भारत फ्रेम!

यह वह कहानी है जिसे अख़बार के पहले पेज की एक खबर नहीं बल्कि पूरे पेज की खबर होना चाहिए। पर शायद ही कभी हो। यह संपादकीयों में जरूर जगह पाती है पर उन हेडलाइनों में नहीं जो छाती ठोककर बताते हैं कि भारत ने ब्रिटेन को पछाड़ दिया है या हम जल्द संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य होने वाले हैं। पर कैसे संभव है शोर और प्रायोजित उल्लास के बीच असल खबर का आना? और  वह असलियत तो संभव ही नहीं जो हमें सामूहिक रूप से शर्मिंदा करती है पर जो टूटी-फूटी, उपेक्षित, और अनसुनी है तथा गड्ढों से भरी सड़कों पर छितरी हुई!

जैसे मेरी कॉलोनी के बाहर की सड़क है। वह अब ऐसे गड्ढों से भरी है कि आप उसमें से नहीं, उसमें उतरते हैं। गाड़ी हिचकोले खाती है, झटके से उछलती है, और आप मन ही मन टायरों की सलामती की दुआ करते हैं। तभी ख्याल आता है—इस रास्ते से गुजरता कोई बच्चा साइकिल पर, या कोई एम्बुलेंस अस्पताल भागती हुई, किस दहशत, कितनी चिंता से गुजरती होगी। तब झुंझलाहट ख़ामोश भय बन जाती है। विडंबना देखिए कि इसी सड़क पर रेंगती हैं ऑडी और बीएमडब्ल्यू, चमचमाती इलेक्ट्रिक कारें लगभग शोरूम जैसी चमक के साथ। सो ऊपर प्रगति की झिलमिल चमक,  नीचे गड्डे, खड्डे, अंधेरा।

यह फ़्रेम में भारत का विकास सपना सा है। भविष्य के पहिए आज के गड्ढों में धँसे हुए। ऐसा होना महज़ स्थानीय शिकायत नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय आपदा है जिसे हर दिन सामान्य असुविधा कहकर टाल दिया जाता है। और यह भी कड़वा सच है—ऐसी कहानियाँ अब सुर्ख़ियाँ नहीं बनतीं, क्योंकि यह प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की इमेज निर्माण की गाथाओं को चमचमाती नहीं।

तब आशा बंधी थी जब नितिन गडकरी ने सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय संभाला था। लगा कि अब एक ऐसा व्यक्ति आया है जो तर्क और लॉजिस्टिक्स की भाषा समझता है। जिसके लिए आधारभूत ढाँचा सिर्फ़ फीता काटने का आयोजन नहीं, बल्कि बढ़ते देश की धमनियाँ हैं। लगा कि आख़िरकार कोई आया है जिसमें गति भी है और ज़िद भी, जो दिल्ली की अनंत मंज़ूरियों और कैबिनेट की मुहर का इंतज़ार किए बिना भी काम कर सकता है। और कुछ समय तक यह दिखा भी। राजमार्ग बने, एक्सप्रेसवे खड़े हुए, चमकदार प्रेज़ेंटेशन आए। गडकरी, बहुतों के लिए, उस दुर्लभ राजनीतिक प्रजाति जैसे लगे—जो केवल बोलते नहीं, बनाते हैं। शासन को उन्होंने कुछ समय तक आकर्षक, लगभग “कूल”  सा बना दिया।

पर शायद यही ग़लती थी। हमने बहुत आगे देख लिया और नीचे देखना भूल गए। छह लेन वाले एक्सप्रेसवे का क्या मतलब, जब उन तक पहुँचाने वाली सड़कें ही मौत के गड्ढे हों? बुलेट ट्रेन की क्या अहमियत, जब स्कूल वैनें ही मैनहोल जैसे गड्ढों में पलट जाएँ? “विज़न” की क्या क़ीमत, जब ज़मीनी हक़ीक़त हर रोज़ धँस रही हो—सचमुच और नैतिक रूप से भी।

सचाई यही है: भारत विकास के कॉरिडोर बना रहा है, साथ-साथ उपेक्षा के कॉरिडोर भी। और मेरे घर के बाहर की सड़क, शायद आपके बाहर की भी, इसका सबूत है।

गड्ढेदार सड़कें अब असुविधा नहीं बल्कि एक मौन नरसंहार हैं। 2023 में ही, परिवहन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, 2,161 लोग गड्ढों के कारण मारे गए—पिछले साल से 16.4 प्रतिशत की वृद्धि। उसी रिपोर्ट का बड़ा भयावह आँकड़ा: पिछले साल 1.73 लाख भारतीय सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए। हर तीन मिनट में एक मौत। विकास की फास्ट लेन पर भागते देश की पृष्ठभूमि में यह त्रासदी का घड़ीघंट है। और यह कोई एक बुरा साल नहीं। आँकड़े पूरे दशक से इस संकट की फुसफुसाहट कर रहे हैं। Factly.in के अनुसार, रोज़ औसतन 19 दुर्घटनाएँ और 6 मौतें सिर्फ़ गड्ढों से होती हैं। मृत्यु दर 2013 में 0.27 थी वह  2022 में 0.42 तक पहुँची। 2014 में सबसे अधिक दुर्घटनाएँ—11,106—जबकि 2015 में सबसे अधिक मौतें—3,416।

और मानवीय लागत के साथ आर्थिक कीमत भी चौंकाने वाली है। विश्व बैंक का अनुमान है कि सड़क दुर्घटनाएँ भारत की जीडीपी (GDP)  का 3–5 प्रतिशत हर साल खा जाती हैं। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक़ जीडीपी का नुक़सान 3.14 प्रतिशत का है। यानी जितना हम अपनी कई कल्याणकारी योजनाओं पर मिलाकर भी खर्च नहीं करते, उससे ज़्यादा सड़कों के गड्ढों में समा जाता है। फिर भी हम इसे अनदेखा करते हैं, इसे “झंझट” कहते हैं। लेकिन असल में गड्ढेदार सड़कें एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातस्थिति हैं।

और ऐसा नहीं कि किसी को पता न हो कि गड्ढे क्यों बनते हैं। वजहें सबको मालूम हैं—मानसून की मार, भारी ट्रैफ़िक, घटिया सामग्री। पर जो इन्हें अनिवार्यता से त्रासदी में बदलता है, वह इंसानी कारक है: घटिया निर्माण, टेंडर घोटाले, ठेकेदार जो आधा पैसा लेकर ग़ायब हो जाते हैं, अफ़सर जो काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर देते हैं। मौसम पर क़ाबू नहीं हो सकता, पर भ्रष्टाचार और उपेक्षा पर तो हो सकता है। लेकिन नहीं होता। नेताओं के लिए प्रगति की माप किलोमीटरों में बने एक्सप्रेसवे हैं, बुलेट ट्रेन की घोषणाएँ हैं। उन्हें चाहिए फोटो-ऑप, ड्रोन शॉट्स, चुनावी भाषण का आँकड़ा। और नीचे, ज़मीन पर, नागरिक अपनी जानें इन शॉर्टकट्स और उदासीनता पर कुर्बान कर रहे हैं। शायद यही विकसित भारत का असली रूपक है: एक देश जो स्पीड का दीवाना है, पर अपने ही पहियों के नीचे की ज़मीन सुधारने में असमर्थ।

और फिर आती है जवाबदेही की बात। हाल ही में एक रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार को ख़राब सड़कों से हुए नुक़सान का ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। गड्ढों से हुई मौतों, चोटों, संपत्ति हानि का मुआवज़ा परिवार कानूनी तौर पर माँग सकते हैं। क़ानून में रास्ता मौजूद है। वकील, न्यायविद, पूर्व जज सब उदाहरणों की ओर इशारा करते हैं। लेकिन सवाल यह है: क्या ऐसी याचिकाएँ सचमुच सुनी जाती हैं? भारत में न्याय में देरी सिर्फ़ न्याय से इंकार नहीं, बल्कि न्याय को दफ़न करना है। अभी हाल ही में बीबीसी  ने रिपोर्ट किया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में ही दस लाख से ज़्यादा केस लंबित हैं। और सिर्फ़ वही नहीं, पूरे देश की अदालतें फट चुकी हैं।

तो कल्पना कीजिए, किसी परिवार ने गड्ढे में अपने बेटे या बेटी को खोकर मुआवज़े का दावा दायर किया। उनका केस कितने साल धूल खाता रहेगा? जब तक आगे बढ़ेगा, वह सड़क शायद फिर से पक्की हो चुकी होगी, नए नाम से उद्घाटन हो चुका होगा। पर दुख वहीं रहेगा।

और यही सबसे कड़ी निंदा है: जब क़ानून नागरिक को जवाबदेही का अधिकार देता है, तब भी व्यवस्था उसे डिलीवरी से वंचित कर देती है। राज्य की लापरवाही आपको सड़क पर मार देती है, और उसकी उदासीनता आपको अदालत में दफ़ना देती है। तो जबकि भारत बुलेट ट्रेन का सपना देखता है वही उसके लोग टूटी सड़कों पर मर रहे हैं। भविष्य को चमकदार पुस्तिकाओं में बेचा जा रहा है मगर वर्तमान गड्ढों में दफ़न हो रहा है। यह विरोधाभास वीभत्स है: 300 किलोमीटर प्रति घंटे की महत्वाकांक्षा, तो वही उपेक्षा से बने गड्ढों में एम्बुलेंसें फँसी पड़ी हुई।

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