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न खेल भावना, न राष्ट्रवाद!

भारत में क्रिकेट धर्म है और वह जैसे ही भारत बनाम पाकिस्तान होता है तो कट्टर, तेज़, उन्मादी, उग्र हो जाता है। मैं क्रिकेट की शौकीन नहीं हूँ। न स्कोर देखती हूँ, न खिलाड़ियों का विश्लेषण करती हूँ। लेकिन इस देश में प्रशंसक होना ज़रूरी नहीं है। इसलिए भारत–पाकिस्तान मैच हुआ तो दीवानगी वायरस जैसे फैलती है। मैं भी अनजाने टीवी की ओर झाँकने लगती हूँ।

तब क्रिकेट खेल नहीं रह जाता, यह राष्ट्रीयता का मामला हो जाता है, जहाँ गर्व सहज प्रवृत्ति की तरह उभरता है। कुछ लोग कहते हैं कि क्रिकेट शत्रुता को पिघला देता है, 1947 से जन्मे वैमनस्य को खेल-भावना में क्षणिक रूप से भुला देता है। लेकिन मैं इससे असहमत हूँ। क्रिकेट शत्रुता को नरम नहीं करता उलटे धारदार बना देता है। भारत–पाकिस्तान का मैदान पुराने घावों पर ही बिलबिलाता है। यहाँ जनता, नेता, सेलिब्रिटी, और यहाँ तक कि तथाकथित सेक्युलर भी कट्टर राष्ट्रवादी हो जाते हैं।

लेकिन तभी विरोधाभास उभरता है। भारतीय अचानक भारत–पाकिस्तान मैच के बहिष्कार का शौर करते है।  सब चौंक पड़ते है। जैसे कई घरों में, हमारे घर में भी एशिया कप का भारत–पाकिस्तान मैच टीवी पर नहीं चला। और पहली बार लगा कि भारतीय घर, सड़कें, यहाँ तक कि आसमान भी ख़ामोश हो गए थे, जबकि भारत ने पाकिस्तान को बाहर कर दिया। पहली बार जनता ने भावना पर विवेक को चुना। वहीं Quora पर लोग पूछ रहे थे: क्या पाकिस्तान के साथ मैच कराने वाला BCCI ही “राष्ट्रविरोधी” है? कुछ तो यह सोच रहे थे कि देखना या न देखना ही देशभक्ति की कसौटी है।

सरकार सिर्फ़ तीन महीने पहले युद्ध के नगाड़े पीट रही थी। पाकिस्तान से झड़प इतनी अस्थिर हो गई थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को दखल देकर हालात शांत करने पड़े। तब से मोदी सरकार ने हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को आतंक को पालने और पोसने वाला देश बताया। संयुक्त राष्ट्र में चंद दिनों पहले ही फ़र्स्ट सेक्रेटरी पेटल गहलोत ने प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की टिप्पणियों पर तीखा जवाब दिया, उन पर “फिर से आतंकवाद का महिमामंडन” करने का आरोप लगाया। सेकेंड सेक्रेटरी रेंतला श्रीनिवास ने और आगे जाकर कहा: पाकिस्तान की “उँगलियों के निशान आतंकवाद की तमाम भौगोलिक सीमाओं में दिखते हैं।” और फिर वे पाकिस्तानी प्रतिनिधि का जवाब सुने बिना बाहर निकल गए।

मगर  चंद हफ़्ते पहले यही दुश्मन क्रिकेट मैदान पर “काबिल-ए-कबूल” हो गया। क्योंकि भारत–पाकिस्तान से ज़्यादा बिकता कुछ नहीं। यही ढोंग है। कलाकारों पर रोक, गायकों का बहिष्कार, लेखकों पर सेंसर, पर स्टेडियम में गले लगाया जाना क्योंकि सवाल पैसों का है। सबको मालूम है कि यह खेल का सबसे मुनाफ़े वाला मुक़ाबला है। और आज के दौर में जहाँ सिर्फ पैसा बोलता है तो राष्ट्रवाद को गिरवी रखा जा सकता है। अजीब है न? जो सरकार 56 इंच की छाती, भारत माता और राष्ट्रभक्ति के नारे लगाती है, वही पाकिस्तान के साथ मैच पर रोक लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।

यहाँ राष्ट्रवाद आस्था नहीं, सुविधा है। और विपक्ष, बुद्धिजीवी, या फिर भक्तों में से किसमें हिम्मत है कि बीसीसीआई (BCCI) या  आईसीसी (ICC) अध्यक्ष—जो अब भारतीय हैं—को राष्ट्रविरोधी कह सके?

इसके बजाय हमारे खिलाड़ियों को वही करने पर मजबूर किया गया, जो खेलभावना के ख़िलाफ़ था। उन्होंने पाकिस्तानी खिलाड़ियों से हाथ मिलाने से इनकार किया। खेल की पहली शर्त को त्याग दिय। मतलब भूल गए कि  विजय और पराजय एक ही चक्र का हिस्सा हैं और प्रतिद्वंद्वी का सम्मान हमेशा करना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह का रवैया उन्हें छोटा दिखा गया। और यह बोझ किसने उठाया? न बीसीसीआई( BCCI) ने, जो “अंतरराष्ट्रीय दायित्व” का बहाना बनाकर छुप गई। न आईसीसी (ICC) ने, जो स्पॉन्सरशिप गिनने में व्यस्त रहा। न सरकार ने, जो आतंक पर गरजी पर मैच रद्द करने में चुप्पी साध गई। सारा बोझ केवल खिलाड़ियों पर डाला गया। उन्हे हाथ मिलाने और ट्रॉफ़ी उठाने के समय उन्हें दिखावटी राष्ट्रवाद निभाना पड़ा।

इतिहास में सबक हैं। जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूसी टीमों, संघों और खिलाड़ियों का बहिष्कार किया। सिर्फ़ बयान नहीं, कार्रवाई की, जिससे पैसे और मेडल दोनों की क़ीमत चुकानी पड़ी। और पीछे जाएँ तो अरब देशों का उदाहरण है: 1948, 1967, 1973 के युद्धों के बाद कई अरब राष्ट्रों ने ओलंपिक और एशियाई खेलों में इज़रायल से खेलने से इनकार किया। आज भी वही परंपरा जारी है, खिलाड़ी चुपचाप हट जाते हैं, पर विरोध का संकेत देते हैं। वहाँ राजनीति और खेल अलग नहीं किए गए, बल्कि जुड़े—जहाँ सिद्धांत त्याग में बदल गया।

पर यहाँ? पाकिस्तानी बल्लेबाज़ आधा शतक पूरा कर हवा में गोली चलाने की नकल करता है, और BCCI तथा जय शाह के नेतृत्व में ICC ऐसे बर्ताव करता है मानो कुछ हुआ ही न हो। सरकार ने भी दखल नहीं दिया। न कोई हल्ला, न outrage, न राष्ट्रवादी गर्जना। बल्कि शोर वहाँ उठा जब कांग्रेस ने भारत की जीत पर “ताली नहीं बजाई।” चुप्पी को गुनाह बना दिया गया। राहुल गांधी को  “पाकिस्तान के साथ खड़ा”  बता दिया गया।

दर्दनाक यह था कि ऐसे मैच हमारे खिलाड़ियों पर थोपे गए, जिन्हें आसानी से टाला जा सकता था। और उन्हें असंवेदनशील और असंयमी दिखना पड़ा। सब इसलिए क्योंकि राष्ट्रगौरव, सैनिकों के बलिदान और पहलगाम में खुलेआम मारे गए निर्दोषों से भी बड़ा पैसा और कमाई है।

पर भाजपा ने इसे भी प्रोपेगेंडा में बदल दिया। पहलगाम और ऑपरेशन सिंदूर के तुरंत बाद पाकिस्तान से खेलने की बुद्धिमानी पर सवाल उठाने के बजाय पार्टी ने क्रिकेट स्कोर को ही राष्ट्रीय विजय जुलूस बना दिया। जीत को खेल की सफलता नहीं, पाकिस्तान पर “करारा जवाब” बताकर पेश किया गया। प्रधानमंत्री ने भी X पर ऑपरेशन सिंदूर का हवाला देते हुए दावा किया कि भारत हर मोर्चे पर पाकिस्तान को मात देता है—मैदान पर भी, युद्धभूमि पर भी।

उसके बाद जो हुआ, उसने भारत को शर्मिंदा ही किया। जबकि भाजपा के ट्रोल ऑनलाइन गरज रहे थे, पाकिस्तान से पलटवार आया। पूर्व विकेटकीपर कमरान अकमल ने PCB से अपील की कि वे भविष्य के टूर्नामेंटों में भारत से खेलने से इनकार करें। यानी जो क्षण गौरव का होना चाहिए था, उसने भारत को उपहास में छोड़ दिया। हमारा राष्ट्रवाद, ठोस आस्था से खाली, एक रंगमंच जैसा लगने लगा। गर्व, जो फूला होना चाहिए था,सिकुड कर शर्म में बदल गया।

क्या यही नया राष्ट्रवाद है? एक ऐसा राष्ट्रवाद जो सत्ता की ज़रूरत के मुताबिक़ झुकता है। जो तमाशा बनता है जब सत्ता को लाभ हो, और चुप्पी साध लेता है जब सत्ता की पोल खुलने लगे। हर क्रिकेट जीत को भारत की महानता का सबूत बताया जाता है, हर तालियों को देशभक्ति। वही भावना अगर सरकार पर सवाल उठाए, तो तुरंत राष्ट्रविरोधी ठहराया जाता है। यह आस्था नहीं, सुविधा है। ऐसा राष्ट्रवाद जो बलिदान से नहीं, आज्ञाकारिता से मापा जाता है। क्रिकेट भारत का धर्म हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान के ख़िलाफ़ यह अब सत्ता के प्रोपेगेंडा का प्रॉप बनकर रह गया है।

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