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नेतन्याहू का अंतहीन युद्ध

यह सवाल हर बार और ज़्यादा डरावना हो उठता है- आखिर बेंजामिन नेतन्याहू रूक क्यों नहीं रहे? बमबारी क्यों जारी रखते हैं? क्या वे कभी रुकने का, लड़ाई थामने का इरादा भी रखते हैं? इज़राइल को कितनी राजधानियों को निशाना बनानी है? इससे पहले कि वह खुद से पूछे: आख़िर किस मक़सद के लिए?

सात अक्तूबर 2023 के बाद से, जब हमास के हमले ने इज़रायल को लहूलुहान और आक्रोश से भर दिया था, नेतन्याहू ने बिना रुके सेना के अभियान को बढ़ाने का ही रास्ता चुना। ग़ाज़ा, लेबनान, सीरिया, यमन, ईरान और अब क़तर। नेतन्याहू के आगे दुश्मनों का नक्शा स्याही के दाग़ की तरह फैलता जा रहा है। दो साल बाद अब यह सिर्फ़ हमास के साथ युद्ध नहीं रहा। बल्कि पूरे क्षेत्र के साथ युद्ध हो गया है।

अब तक इज़राइल का था कि उसकी कार्रवाई असली ख़तरों के ख़िलाफ़ है। 7 अक्तूबर के बाद इराक़, लेबनान, फ़िलिस्तीन, सीरिया और यमन की मिलिशियाएँ उस पर हमला कर चुकी थीं। ईरान ने भी अपने हमले किए। इसे “पूर्व-रक्षा” की भाषा में लपेटा जा सकता था। मगर क़तर पर हमले का ऐसा कोई दावा नहीं है। छोटा-सा अमीरात, जहाँ हमास का राजनीतिक दफ़्तर है, वहीं अमेरिका का सेंट्रल कमांड हेडक्वार्टर भी है। वहा क्यों हमला? दोहा पर हमला न तो पूर्व-रक्षा था, न ही रोकथाम। वह एक संप्रभु राष्ट्र की ज़मीन पर बदले की कार्रवाई थी।

और इस बार दुनिया ने ठोस शब्दों में निंदा की है। अमेरिका, इज़राइल का सबसे क़रीबी सहयोगी, बोला कि उसे “बहुत असंतोष” है। क़तर के प्रधानमंत्री ने इसे “आंतकी राज्य” कहा जिसने युद्धविराम और बंधक रिहाई की उम्मीदें तोड़ दीं। तुर्की, सऊदी अरब, मिस्र और यूएई ने अंतरराष्ट्रीय क़ानून और संप्रभुता का उल्लंघन बताया। रूस ने इसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर का “गंभीर उल्लंघन” कहा। फ़्रांस और ब्रिटेन ने चेताया कि यह ख़तरनाक वृद्धि है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि यह क़तर की क्षेत्रीय अखंडता का खुला उल्लंघन है। और एक दुर्लभ लेकिन अहम कदम में, भारत ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़तर के अमीर से बात की और दोहा को “भाईचारे वाला राष्ट्र” कहा। मतलब सभी तरफ से संकेत कि इज़राइल ने हद पार कर दी है।

दोहा पर हमला कर नेतन्याहू ने न सिर्फ़ रिश्ते बिगाड़े या मध्यस्थों को मारा बल्कि उन्होंने यह भ्रम भी ख़त्म कर दिया कि कभी उनके एजेंडे में कूटनीति थी। मोसाद और उनके अपने जनरलों ने चेताया था कि यह कदम वार्ताओं को चौपट कर देगा, बंधकों को ख़तरे में डालेगा और अमेरिका के खाड़ी साझेदारों को नाराज़ करेगा। लेकिन उन्होंने अनदेखी की। और फिर ठंडी चुनौती के साथ बयान दिया: “हमास नेताओं को कोई शरण नहीं मिलेगी, क़तर में भी नहीं।” उन्होंने और आगे जाकर इज़राइल की कार्रवाई को अमेरिका की 9/11 प्रतिक्रिया से जोड़ा — जबकि उनका ऑपरेशन अपने लक्ष्य तक पहुँचने में विफल रहा। क़तर को चेताया: “उन्हें निकालो या न्याय के कटघरे में लाओ, वरना हम रूकेंगे नहीं।”

उस पल नेतन्याहू ने रणनीति नहीं, बल्कि अपनी निजी सत्ता-बचाव की हकीकत उजागर की थी। उनके लिए यह बेहतर था कि सरकार में मौजूद दक्षिणपंथियों को समझौते से ज़्यादा जिद्दी प्रतिरोध पर खिलाते रहें। शांति की नाज़ुक संभावना से बेहतर है ताक़त के झूठे प्रदर्शन को बनाए रखना।

लेकिन इसकी कीमत भारी है। दोहा पर हमले ने ग़ाज़ा में युद्धविराम वार्ताओं को पटरी से उतार दिया है। इज़राइली बंधकों का संकट और गहरा गया। और खाड़ी की राजधानियों में दो डर और पुख़्ता हो गए: कि इज़राइल अब क्षेत्रीय वर्चस्वता वाला बर्ताव कर रहा है, और कि अमेरिका अब उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता।

तो हर विस्फोट के साथ पीछा करता सवाल वही है: नेतन्याहू की कल्पना में जीत कैसी दिखती है? एक ऐसा हमास जिसके नेता न हों? या ऐसा मध्य-पूर्व जो इतना सहमा हो कि उसे पनाह न दे सके? या असल में कोई जीत है ही नहीं — युद्ध ही रणनीति बन चुका है, अस्थिर गठबंधन को जोड़े रखने का गोंद, उस प्रधानमंत्री की ढाल जिसने राजनीतिक पूंजी खो दी है।

इतिहास ऐसे नेताओं से भरा है जिन्होंने खोजा कि अंतहीन युद्ध ही राजनीतिक ऑक्सीजन है। असद ने सीरिया में, बुश ने “वार ऑन टेरर” में, पुतिन ने यूक्रेन में। और अब नेतन्याहू भी उसी मंडली में के सदस्य है, जिनके लिए शांति से ज़्यादा डर और अनवरत युद्ध है। युद्ध साधन नहीं बल्कि सत्ता में बने रहने का सिस्टम है।

इसलिए असली शायद सवाल यह नहीं है कि नेतन्याहू कब रुकेंगे? बल्कि यह है कि क्या उनका कभी रुकने का इरादा भी है?

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