Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

सियासत के चक्रव्यूह में

महाराष्ट्र का घटनाक्रम मिसाल है कि पहचान की सियासत कैसे वहां भी विवाद खड़े कर देती है, जहां इसकी जड़ें मौजूद नहीं होतीं। ऐसे विवाद आज भारत में आम जन को आपस में जोड़ने वाले हर पहलू की बलि ले रहे हैं।   

महाराष्ट्र में हिंदी सियासत के चक्रव्यूह में फंस गई है। जोड़ने वाली ये भाषा वहां एक विभाजन रेखा बन गई है। वहां के सियासी समूहों में सबकी रुचि माहौल को अधिक से अधिक गरमाए रखने में है, वरना मेल-मिलाप से मसले को हल कर लेना कठिन नहीं होता। महाराष्ट्र में कभी हिंदी विरोध मजबूत मुद्दा नहीं रहा। विडंबना तो यह है कि मुंबई हिंदी फिल्म उद्योग का केंद्र है, जिसने आम जन के स्तर पर हिंदी को फैलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। मगर ताजा हालत यह है कि राज्य की भाजपा सरकार ने त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत दो बार स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का निर्णय लिया और दोनों बार उसे कदम वापस खींचने पड़े।

अप्रैल में उसने मराठी और अग्रेंजी के अलावा हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने की कोशिश की थी। मगर भारी विरोध के कारण ये आदेश उसे वापस लेना पड़ा। तो ताजा मामले में उसने बैक डोर का सहारा लिया। 17 जून को जारी सरकारी आदेश में उसने कहा कि जिन स्कूलों में कम-से-कम 20 छात्र किसी अन्य भाषा की पढ़ाई की मांग नहीं करेंगे, वहां तीसरी भाषा के बतौर हिंदी पढ़ाई जाएगी। इस पर फिर विरोध भड़का। इस मुद्दे से खफा ठाकरे बंधु- उद्धव और राज- आपसी मतभेद भुलाने को तैयार हो गए। पांच जुलाई को दोनों ने साझा रैली करने का एलान किया। सिविल सोसायटी संगठनों का उन्हें काफी समर्थन मिलता दिखा।

यहां तक कि राज्य सरकार की तरफ से नियुक्त भाषा समिति ने भी फड़णवीस सरकार की भाषा नीति की सार्वजनिक आलोचना कर दी। अंततः देवेंद्र फड़णवीस सरकार को फिर कदम वापस खींचने पड़े हैं। अब उन्होंने त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू करने पर सुझाव देने के लिए एक नई समिति के गठन का एलान किया है। ये घटनाक्रम मिसाल है कि पहचान की जज्बाती सियासत कैसे वहां भी विवाद खड़े कर देती है, जहां इसकी जड़ें मौजूद नहीं होतीं। साढ़े तीन दशकों से चली ऐसी सिसायत ने आज भारत में हर कदम पर ऐसे विवाद खड़े कर दिए हैँ। ये विवाद आम जन को आपस में जोड़ने वाले हर पहलू की बलि ले रहे हैं।

Exit mobile version