दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि अदालतें अब “देशभक्ति” और “सच्ची भारतीयता” को परिभाषित करने लगी हैं। और वे इसे आज के सत्ता प्रतिष्ठान की सोच और पसंद के अनुरूप कर रही हैं। क्या न्यायिक सक्रियता की दिशा पलट गई है?
कुछ रोज पहले की ही बात है, जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को देशभक्ति की भावना दिखाने की नसीहत दी थी। जबकि मामला यह था कि सीपीएम मुंबई में गजा में मानव संहार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना चाहती थी। प्रशासन ने इजाजत नहीं दी, तो पार्टी कोर्ट के पास गई मगर वहां उसे सुनने को मिला कि जब देश में इतनी समस्याएं हैं, तो वह विदेशी मामले को लेकर परेशान क्यों है। हाई कोर्ट वहां सीपीएम को कोई राहत नहीं दी। उसके विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को राहत दी है। उस बयान को लेकर दायर मुकदमे पर उसने स्टे लगा दिया है।
कोर्ट ने कहा कि उस बयान पर आपराधिक मामला नहीं बनता है। लेकिन न्यायाधीशों ने साथ ही यह भी कहा कि राहुल गांधी ने जो बयान दिया, वैसी बात कोई “सच्चा भारतीय” नहीं कहेगा। कोर्ट ने यह भी पूछा कि राहुल गांधी ऐसी बातें सोशल मीडिया पर क्यों कहते हैं? बोलना ही है, तो संसद में बोलें। तो सवाल है कि राहुल गांधी ने बोला क्या था! उन्होंने वे बातें ही कही थीं, जो देशी और विदेशी मीडिया की अनगिनत रिपोर्टों में कही गई हैं। यहां तक कि उसका जिक्र पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में पेश लद्दाख पुलिस की रिपोर्ट में भी हुआ था।
बात यही कि 2020 में चीनी फौज ने 2000 वर्ग किलोमीटर भारतीय जमीन पर कब्जा कर लिया। साथ ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश से लगी सीमा पर आक्रामक रुख अपना रखा है। अरुणाचल की बात खुद वहां से भाजपा सांसद ने संसद में कही थी। तो इन बातों में ऐसा क्या है, जिसे “सच्चे भारतीय” को नहीं कहना चाहिए? दरअसल, यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि अदालतें अब “देशभक्ति” और “सच्ची भारतीयता” को परिभाषित करने लगी हैं। और वे इसे आज के सत्ता प्रतिष्ठान की सोच और पसंद के अनुरूप कर रही हैं। एक समय था, जब अदालतें संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के जरिए नागरिक अधिकारों का विस्तार कर रही थीँ। उसे न्यायिक सक्रियता का दौर कहा गया। मगर अब ऐसा लगता है कि न्यायिक सोच की दिशा पलट गई है।