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बिहार में कोई गठबंधन भरोसे में नहीं

बिहार की 17वीं विधानसभा का आखिरी सत्र चल रहा है, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों चुनाव का एजेंडा तय करने की होड़ में लगे हैं। 25 जुलाई तक चलने वाले  पांच दिन के इस सत्र में सत्तारूढ़ गठबंधन यानी एनडीए और विपक्षी गठबंधन यानी ‘इंडिया’ के बीच एक दूसरे को भ्रष्ट, बेईमान और निकम्मा साबित करने की होड़ लगी है। सत्र के दूसरे दिन मंगलवार, 22 जुलाई को तो विपक्ष ने विधानसभा के गेट पर ताला जड़ दिया, जिसे तोड़ कर मुख्यमंत्री को सदन में जाना पड़ा। जाहिर है कि चार महीने में चुनाव हैं तो इस तरह की नौटंकियां चलेंगी। लेकिन सवाल है कि क्या बिहार की जनता इन नौटंकियों से प्रभावित होकर वोट देगी या बदलाव का एजेंडा चला रहे प्रशांत किशोर की बात सुनेगी या यथास्थिति बनाए रखेगी?

पिछले साढ़े तीन दशक में संभवतः पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव से पहले परिदृश्य इतना उलझा हुआ दिख रहा है। हालांकि पारंपरिक राजनीतिक विश्लेषण के हिसाब से सत्तारूढ़ गठबंधन यानी एनडीए को बढ़त है। वैसे भी भाजपा और जनता दल यू एक साथ होते हैं तो उनके चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा होती है क्योंकि उनके पास गैर यादव पिछड़ा, अति पिछड़ा, सवर्ण और दलित का एक बड़ा सामाजिक आधार है। पिछले 20 साल से यह समीकरण परफेक्टली काम कर रहा है। और इस बार तो चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी की पार्टी भी इस गठबंधन का हिस्सा है।

पिछली बार चिराग पासवान अलग लड़े थे और उपेंद्र कुशवाहा भी अलग गठबंधन बना कर लड़े थे। इन दोनों को नौ फीसदी के करीब वोट मिले थे। इनके एनडीए के साथ होने के बाद जीत में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव हो और पांच दलों का एनडीए एकजुट रहे तो राजद, कांग्रेस के गठबंधन के लिए लड़ाई मुश्किल हो जाती है। इस बार भी ऐसी ही स्थिति दिख रही है। लेकिन फर्क यह है कि इस बार राजद, कांग्रेस, लेफ्ट की तीन पार्टियां और वीआईपी का विपक्षी गठबंधन भी ज्यादा व्यवस्थित तरीके से लड़ रहा है।

ध्यान रहे नीतीश कुमार की सेहत ठीक नहीं है और यह कई तस्वीरों और वीडियो के जरिए बिहार की जनता को पता चल चुका है। ऊपर से भारतीय जनता पार्टी उनको मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित करके चुनाव नहीं लड़ रही है तो यह मैसेज भी बना है कि चुनाव के बाद संभव है कि नीतीश मुख्यमंत्री नहीं बनें। ऐसी स्थिति में कायदे से नीतीश समर्थकों को एकजुट होकर जनता दल यू के लिए वोट करना चाहिए ताकि पार्टी ज्यादा सीट जीते और नीतीश फिर मुख्यमंत्री बनें। लेकिन इसकी बजाय नीतीश समर्थकों का वोट बिखरता दिख रहा है। इसका एक हिस्सा राजद के साथ जा सकता है क्योंकि पिछले 11 साल में उप मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के रूप में तेजस्वी यादव एक स्वाभाविक पिछड़े नेता के तौर पर स्थापित हुए हैं। पिछड़े समाज की कई जातियां लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की राजनीति का स्वाभाविक उत्तराधिकारी उनको मान सकती हैं। उनके साथ यादव और मुस्लिम का 32 फीसदी का एक बड़ा वोट आधार पूरी तरह से एकजुट है। नीतीश के स्वस्थ नहीं होने और अगले चुनाव के बाद सरकार का नेतृत्व नहीं करने की अटकलों के कारण भी सामाजिक समीकरण प्रभावित होता दिख रहा है।

इसके और भी कई कारण हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजद के साथ मिल कर लड़े थे और उसी समय बिहार का सामाजिक समीकऱण बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। उस चुनाव में लालू प्रसाद के उम्मीदवारों के साथ साथ नीतीश के पिछड़े उम्मीदवारों को भी सवर्णों के वोट नहीं मिले थे। उसके बाद से मगध, शाहाबाद और भोजपुर के इलाके में एनडीए का सामाजिक समीकरण नहीं बन पा रहा है। ऊपर से सीपीआई एमएल के ‘इंडिया’ ब्लॉक में आ जाने से इन इलाकों में विपक्षी गठबंधन बहुत मजबूत हुआ है। 2020 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में यह मजबूती दिखी। पिछले लोकसभा चुनाव में तो इस इलाके की ज्यादातर सीटों पर राजद, कांग्रेस और सीपीआई एमएल के उम्मीदवार जीते। विपक्षी गठबंधन के मिली नौ सीटों में से सात सीटें, पाटलीपुत्र, जहानाबाद, औरंगाबाद, काराकाट, आरा, बक्सर और सासाराम, इस इलाके में मिली हैं और दो सीटें सीमांचल में मिली हैं।

पिछले दो चुनावों के राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से गठबंधन के घटक दलों की आधार वोट वाली जातियों का समीकरण भी बिगड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान अकेले चुनाव लड़े थे और उन्होंने सिर्फ नीतीश कुमार के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे। चिराग की वजह से नीतीश की पार्टी को सिर्फ 43 सीटें मिलीं और वे तीसरे नंबर की पार्टी बन गए। 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि नीतीश की पार्टी को भाजपा से कम सीटें आईं। कहा जा रहा है कि कोईरी, कुर्मी और धानुक इस बार विधानसभा चुनाव में इसका बदला चिराग की पार्टी से लेंगे। तभी यह माना जा रहा है कि लव कुश का वोट चिराग को नहीं मिलेगा और पासवान का वोट नीतीश की पार्टी को नहीं मिलेगा। ऐसे ही चिराग और जीतन राम मांझी का विवाद चल रहा है और अनुसूचित जाति के आऱक्षण के वर्गीकरण के सवाल पर दोनों में बड़ा विवाद हुआ था। फिर मांझी के इस्तीफे से खाली हुई इमामगंज विधानसभा सीट पर उपचुनाव में उनकी बहू दीपा मांझी के लिए प्रचार करने चिराग नहीं गए। उलटे उन्होंने प्रशांत किशोर की तारीफ की, जिसका फायदा प्रशांत के उम्मीदवार जितेंद्र पासवान को मिला। सो, यह तय माना जा रहा है कि पासवान का वोट मांझी को नहीं मिलेगा और मांझी का वोट पासवान को नहीं मिलेगा।

ऐसे ही पिछले लोकसभा चुनाव में शाहाबाद के इलाके में औरंगाबाद के तत्कालीन सांसद सुशील सिंह और काराकाट से उम्मीदवार बने पवन सिंह की वजह से राजपूत बनाम कुशवाहा का विवाद हुआ। इस वजह से सुशील सिंह खुद चुनाव हारे और सुशील सिंह व पवन सिंह के कारण काराकाट में उपेंद्र कुशवाहा चुनाव हारे। राजपूत और कुशवाहा विवाद के असर में आरा, बक्सर और सासाराम में भी भाजपा हारी। अभी तक राजपूत और कुशवाहा का विवाद नहीं सुलझा और दोनों एक दूसरे को वोट नहीं करेंगे। जहानाबाद सीट की वजह से मगध में भूमिहार बनाम चंद्रवंशी का विवाद चल रहा है। जहानाबाद के जनता दल यू के उम्मीदवार चंद्रेश्वर चंद्रवंशी को भूमिहारों ने ऐलान करके हराया। उसके बाद चंद्रवंशी और व्यापक रूप से अति पिछड़ी जातियां भूमिहारों के खिलाफ हैं। ये दोनों जातियां एक दूसरे के उम्मीदवारों को वोट नहीं करेंगी। इसका नुकसान भी भाजपा और जदयू को ही ज्यादा है। जातियों के इस बिखराव में अगर विपक्षी गठबंधन सावधानी से टिकट बांटे तो उसको इस स्थिति का फायदा हो सकता है। वैसे भी बिहार में जाति की राजनीति का विकेंद्रीकरण हो गया है। मुस्लिम, यादव और कुर्मी को छोड़ कर कोई जाति नहीं है, जो किसी पार्टी के साथ बंधी हुई है। सारी जातियां पहले अपनी जाति के उम्मीदवार को देखती हैं। उसके बाद ही दलगत निष्ठा का मामला आता है।

बिहार के राजनीतिक परिदृश्य के उलझे होने का एक कारण प्रशांत किशोर भी है। उनकी जन सुराज पार्टी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वे जितनी मेहनत कर रहे हैं और उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं उनसे उनके प्रति लोगों को कौतुहल बढ़ा है। लोग उनके मुद्दों को स्वीकार कर रहे हैं और उनकी मेहनत की तारीफ कर रहे हैं। बिहार के आकांक्षी लोगों का एक बड़ा वर्ग उनके साथ जुड़ रहा है। इस तरह कम या ज्यादा उनका वोट हर जाति और हर क्षेत्र में है। ध्यान रहे बिहार के चुनाव में हर बार 20 से 22 फीसदी वोट दोनों गठबंधनों से अलग अन्य को जाता है। इस वोट का बड़ा हिस्सा इस बार प्रशांत किशोर के साथ जाएगा, जिससे उनकी पार्टी का एक मजबूत आधार बनेगा। इसके अलावा वे एनडीए के सवर्ण वोट में भी सेंध लगाते दिख रहे हैं। इसका एक कारण तो यह है कि वे सवर्ण हैं। अगर सवर्ण मतदाताओं का छोटा समूह भी उनके साथ जाएगा तो नुकसान एनडीए को होगा। दूसरा कारण नीतीश का कमजोर होना है। उनके कमजोर होने से राजद विरोधी वोट के एक समूह का रूझान प्रशांत किशोर की ओर है। सो, अगर वे एनडीए के बड़े सामाजिक आधार में कुछ भी सेंध लगाते हैं तो उससे पक्ष और विपक्ष का चुनावी समीकरण संतुलित होगा। विपक्षी गठबंधन की उम्मीदें भी इस पर टिकी हैं।

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