Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

क्रिकेट के मैदान में राजनीति का ड्रामा

आजकल टेलीविजन के इंटरव्यूज में रैपिड फायर राउंड होते हैं, जिनमें पूछा जाता है कि किसी व्यक्ति या घटना को एक शब्द में परिभाषित करें। अगर ऐसे किसी रैपिड फायर राउंड में भारत और इसके 140 करोड़ लोगों को एक शब्द में परिभाषित करने को कहा जाए तो वह शब्द क्या हो सकता है? निश्चित रूप से सब लोग अलग अलग शब्द चुनेंगे। आखिर ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ का सिद्धांत इस देश ने दिया है। लेकिन मेरा शब्द होगा ‘हिप्पोक्रेसी’! असल में दोहरा चरित्र हम भारतीयों की सबसे मुख्य पहचान है। यह आज से नहीं है, बल्कि प्राचीन काल से है। हमारे समाज व्यवहार से लेकर धार्मिक मान्यताओं तक में हर जगह दोहरापन दिखेगा। हाल के दिनों में अगर किसी घटना से इस हिप्पोक्रेसी को जोड़ना और पहचानना हो तो पहलगाम कांड से लेकर ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद पाकिस्तान के साथ एक के बाद एक तीन मैच खेलने की परिघटना में देखा जा सकता है।

‘पानी और खून एक साथ नहीं बह सकता’ और ‘गोली व वार्ता साथ साथ नहीं चल सकती’  जैसे भारी भरकम बयानों से लेकर आमने सामने का मैच खेलने तक और उसके बाद उनके कप्तान से हाथ नहीं मिलाने, जीत पहलगाम के बदनसीब लोगों को समर्पित करने से लेकर उनके हाथ से ट्रॉफी नहीं लेने तक की नौटंकी में यह हिप्पोक्रेसी साफ दिखती है। ऐसा नहीं है कि यह हिप्पोक्रेसी सिर्फ भारतीय क्रिकेट टीम या भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड या भारत की सरकार की है, बल्कि देश के नागरिक भी समान रूप में इसमें शामिल हैं। आखिर पाकिस्तान के साथ मुकाबले की घोषणा के बाद जिन लोगों ने विरोध शुरू किया और पहले मैच में स्टेडियम नहीं गए या टेलीविजन बंद रखा वे सब आखिरी मैच तक क्यों फिर मैच देखने लगे? पहले मैच यानी 14 सितंबर वाले रविवार लेकर 28 सितंबर तक के रविवार में क्या बदल गया? क्या पाकिस्तान सुधर गया? क्या उसने पहलगाम कांड के मास्टरमाइंड को भारत को सौंप दिया? क्या उसने आतंकवाद के ठिकाने बंद कर दिए? क्या उसने भारत विरोध समाप्त कर दिया?

इन सभी सवालों का जवाब नकारात्मक है। उलटे इन 14 दिनों में पाकिस्तान का भारत विरोध ज्यादा खुल कर दिखाई दिया। भारत के खिलाफ मैच में फिफ्टी लगाने के बाद पाकिस्तानी खिलाड़ी साहिबजादा फरहान ने अपनी बैट को बंदूक बना कर गोली चलाने का इशारा किया और हम भारतवासियों को पहलगाम के बदनसीबों की याद दिलाई। इसी तरह हारिस रऊफ ने विकेट लेने के बाद हाथ की छह उंगलियां दिखा कर भारत के छह विमान मार गिराने का इशारा किया। ऐसे बदतमीज और भारत विरोधी खिलाड़ियों के साथ मैच खेलने की क्या मजबूरी थी? इन 14 दिनों में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के मंच पर खड़े होकर कहा कि ‘भारत हमारा दुश्मन है’। शरीफ ने महासभा के मंच से कहा कि हाल के संघर्ष में पाकिस्तान ने भारत को हरा दिया। भारत की बेटी पेटल गहलोत ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस झूठ का करारा जवाब दिया। लेकिन दुर्भाग्य से उसी समय भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान के साथ मैच खेलने की तैयारी कर रही थी।

इस पूरे टूर्नामेंट के दौरान भारतीय क्रिकेट टीम का रवैया सबसे दयनीय यानी पैथेटिक रहा। रविवार, 28 सितंबर की रात को फाइनल मैच जीतने के बाद डेढ़ घंटे तक यह नौटंकी चलती रही कि भारत ने पाकिस्तान के गृह मंत्री और पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष मोहसिन नकवी के हाथों ट्रॉफी लेने से इनकार कर दिया। कहा गया कि नकवी भारत विरोधी हैं और भारत के खिलाफ साजिशों में शामिल रहते हैं इसलिए भारतीय खिलाड़ी उनके हाथ से ट्रॉफी नहीं लेंगे। सोचें, क्या हिप्पोक्रेसी है? मोहसिन नकवी जिस क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख हैं उसके साथ क्रिकेट खेलने में एतराज नहीं है लेकिन मोहसिन के हाथों ट्रॉफी लेने से एतराज है! यानी गुड़ खाएंगे और गुलगुले से परहेज करेंगे!

भारत से अपनी नफरत खुल कर दिखाने वाले पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ खेलना मंजूर है लेकिन उनके गृह मंत्री के हाथों ट्रॉफी लेना मंजूर नहीं है। हिप्पोक्रेसी की इंतहां तो यह है कि दो हफ्ते पहले जब इस टूर्नामेंट की शुरुआत हुई तो भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान सूर्य कुमार यादव ने आगे बढ़ कर मोहसिन नकवी से हाथ मिलाया लेकिन टूर्नामेंट खत्म होने पर उनके हाथ से ट्रॉफी नहीं ली!

असल में टूर्नामेंट शुरू होने पर यह अंदाजा नहीं था कि इस मुकाबले का इतना विरोध होगा। यह अंदाजा भी नहीं था कि खेल को राजनीतिक नैरेटिव बनाने में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। जब पहले मैच के बाद भारतीय कप्तान ने पाकिस्तानी कप्तान से हाथ नहीं मिलाया तो थोड़े से लोगों ने इसे खेल भावना के खिलाफ माना लेकिन बाकी जनता वाह, वाह करने लगी। तभी इस नौटंकी को आगे बरकरार रखने और जीतने पर पाकिस्तानी बोर्ड के अध्यक्ष के हाथों ट्रॉफी नहीं लेने तक ले जाने का फैसला हुआ। यह खेल नहीं था एक राजनीतिक नैरेटिव के निर्माण का मौका था।

इसका एक सबूत मैच के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से सोशल मीडिया में लिखा गया पोस्ट भी है। पहले तो लगा कि यह कोई फेक अकाउंट है लेकिन बाद में उनकी टाइमलान पर जाकर चेक करने पर यकीन हुआ कि सचमुच प्रधानमंत्री ने यह पोस्ट लिखी है। उन्होंने अंग्रेजी में जो लिखा है उसका हिंदी अनुवाद है, ‘मैदान पर भी ऑपरेशन सिंदूर। और नतीजा वही, भारत जीता। हमारे क्रिकेटरों को बधाई’। सोचें, भारत के प्रधानमंत्री ने ऑपरेशन सिंदूरर में सशस्त्र बलों की ओर से दिखाए गए शौर्य की तुलना दुबई में पैसे के लिए क्रिकेट खेल रही बीसीसीआई नाम की एक निजी संस्था की टीम से की! उन्होंने क्रिकेट के खेल को युद्ध में तब्दील कर दिया।

सोचें, अगर भारतीय टीम जीत नहीं पाती तो क्या होता? क्या तब पाकिस्तान को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि खेल के मैदान में भी वही नतीजा!

पहले मैच में भारतीय कप्तान ने जीत पहलगाम के बदनसीबों को समर्पित की लेकिन अगर हार जाते तो हार किसको समर्पित करते? यह भी सवाल है कि सिर्फ जीत क्यों समर्पित कर रहे हो, कमाई के पैसे क्यों नहीं समर्पित करते? एक अनुमान के मुताबिक एशिया कप टी20 मुकाबले में भारत को साढ़े चार सौ से करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई हुई है। अगर पहलगाम में आतंकवादियों के हाथे मारे गए 26 लोगों के परिजनों को यह रकम समर्पित की जाए तो सबके खाते में करीब 20-20 करोड़ रुपए आ जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं किया जाएगा। ऐसा करेंगे भी क्यों? अगर आतंकवाद में मारे गए लोगों के प्रति जरा सी भी सहानुभूति होती या पाकिस्तान विरोध के अपने ही गढ़े गए नैरेटिव के प्रति किसी किस्म की प्रतिबद्धता होती तो भारतीय टीम खेलने ही नहीं जाती।

Exit mobile version