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बिहारः ‘वोट खरीद’ की विद्रूपता के भरोसे एनडीए!

फिलहाल यही नजर आता है कि बिहार में 6 और 11 नवंबर को होने जा रहे मतदान एक सामान्य चुनाव का हिस्सा होंगे। इसमें कोई ऐसा नया तत्व नहीं है, जो मतदाताओं में नई आशाएं पैदा करे। प्रशांत किशोर नया तत्व जरूर हैं, मगर अरविंद केजरीवाल की यादें अभी इतनी ताजा हैं कि उनका नयापन कोई उम्मीद पैदा नहीं करता। तो कुल मिलाकर सूरत यह बनती है कि चुनावबाज दल, नेता, और मीडियाकर्मी (हर चुनाव की तरह) इस चुनाव को लेकर जितने उत्साहित नजर आते हैं, वैसे उत्साह की कोई वजह आम जन को शायद ही नजर आती होगी!

बिहार के सबसे नए राजनीतिक उद्यमी प्रशांत किशोर को इसका श्रेय देना होगा कि उन्होंने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सत्ताधारी एनडीए को “सुशासन” के दावे और “भ्रष्टाचार” के मुद्दे से वंचित कर दिया है। वरना, लालू-राबड़ी के कथित जंगल राज का हौव्वा खड़ा करना हर चुनाव में एनडीए की खास रणनीति रहती थी। ये दीगर बात है कि इस बार “जंगल राज” की याद दिलाने की सबसे ज्यादा कोशिश प्रशांत किशोर कर रहे हैं!

किशोर ने एनडीए नेताओं सम्राट चौधरी, अशोक चौधरी, दिलीप जायसवाल आदि पर गंभीर इल्जामों की झड़ी लगा रखी है। इससे ना सिर्फ एनडीए को कठघरे में खड़ा दिखा है, बल्कि इस कारण सत्ताधारी गठबंधन की अंदरूनी दरारें भी सामने आई हैँ। परिणाम यह हुआ है कि भाजपा- जनता दल (यू)- एलजेपी- हिंदुस्तानी आवाम पार्टी का गठबंधन अब पूरी तरह ‘वोट खरीद’ और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर निर्भर हो गया है।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा की चुनावी रणनीति में मौजूद स्थायी तत्व है। पार्टी नेता कभी इसे पृष्ठभूमि में रखते हैं, तो कभी जरूरत के हिसाब से उसे उग्र रूप देते हैँ। कई राज्यों में सिर्फ यही तत्व भाजपा को चुनाव जिताने में कारगर रहता आया है। मगर बिहार में अभी तक इसके निर्णायक होने का भरोसा शायद भाजपा नेतृत्व को नहीं है। इसीलिए नीतीश कुमार के मुखौटे की जरूरत उसे अभी भी है। नीतीश ढलान के दौर में हैं। बार-बार पाला बदलने से उनकी पुरानी छवि नष्ट हो चुकी है। “सुशासन” का नकाब उतर चुका है। उनकी सेहत को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं हैं। फिर भी भाजपा उन्हें मुखौटा बनाए रखने पर मजबूर है, तो उसकी वजह अपनी ताकत पर पार्टी नेताओं का अविश्वास ही है।

नीतीश कुमार ने जो गंवाया है, उसकी चुनावी भरपाई उन्होंने मुक्त हाथ से सरकारी पैसा बांट कर करने की कोशिश की है। लगभग डेढ़ करोड़ परिवारों में महिलाओं के खाते में दस हजार रुपये का ट्रांसफर, लाखों युवाओं को दो साल तक हर महीने एक हजार रुपये का बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था एवं विकलांग पेंशन में भारी बढ़ोतरी, होमगार्ड्स के भत्तों में इजाफा, राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते की नई किस्त आदि जैसी कई घोषणाएं हैं, जिन्हें सीधे तौर पर ‘वोट खरीद’ योजना की श्रेणी में रखा जा सकता है। भारत में अब इस योजना का आम चलन हैं। मगर नीतीश सरकार इसे एक नई ऊंचाई और नई विद्रुपता तक ले गई है।

चुनावों के संदर्भ में ऐसी योजनाएं कारगर रहती आई हैं। वैसे तो इनका चलन पहले भी था, लेकिन केंद्रीय सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार इसे जो नीतिगत रूप दिया, वह अभूतपूर्व है। मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने इसे ‘कल्याण संबंधी नई सोच’ कहा है। मतलब यह कि समाज एवं अर्थव्यवस्था के निर्माण की दीर्घकालीन योजनाओं में निवेश के बजाय पैसा सीधे लोगों के हाथ में दिया जाए। इससे लोगों को महसूस होता है कि सरकार/ सत्ताधारी नेता ने उनके लिए कुछ किया है। दीर्घकालीन योजनाओं का लाभ सीधे किसी को महसूस नहीं होता- इसलिए चुनावी लिहाज से वे ज्यादा फायदेमंद नहीं होतीं!

भाजपा का आकलन है कि 2024 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद महाराष्ट्र में विधानसभा का चुनाव उसने ऐसी ही योजनाओं- खासकर लाड़ली बहन योजना- के जरिए पलट दिया। अब वही पैटर्न बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने अपनाया है। शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक इस दांव का अच्छा असर हुआ है। क्या यह निर्णायक होगा, यह जानने के लिए हमें 14 नवंबर का इंतजार करना होगा, जिस रोज वोटों की गिनती होगी।

चुनाव नतीजों को तय करने में संभवतः एक फैक्टर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी का भी होगा। किशोर ने अपना यह उद्यम लॉन्च करने के बाद से कुछ ऐसी ध्वनियां पैदा की हैं, जिनकी झंकार दूर तक गई है। हालांकि किशोर अपनी पार्टी की अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से तुलना पसंद नहीं करते, मगर उनकी ध्वनियां और कार्यसूची काफी कुछ केजरीवाल से मेल खाती हैं। मीडिया इंटरव्यूज में किशोर ने कहा है कि आंदोलन और क्रांति में उनका भरोसा नहीं है, इसलिए अन्ना आंदोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी से जन सुराज की तुलना नहीं की जानी चाहिए। मगर दो बातें इन प्रयोगों को एक जगह खड़ी करती हैः

              आम आदमी पार्टी के आरंभिक दिनों में योगेंद्र यादव जैसे इसके सिद्धांतकार यह खुलेआम कहते थे कि इस नई पार्टी की कोई विचारधारा नहीं है- यह समाधान उन्मुख पार्टी है। पार्टी विचारधारा में बिना बंधे लोगों की समस्याओं का समाधान निकालना चाहती है। दिल्ली में दस वर्ष के शासनकाल में आम आदमी पार्टी ने बिजली, पानी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के क्षेत्र में लोक-लुभावन पहल को अपनी खास पहचान बनाने की कोशिश की।

              जन सुराज ने अपना मुख्य एजेंडा बिहार में स्कूली शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करना और पलायन रोकना बताया है। पार्टी का दावा है कि यही बिहार की मुख्य समस्याएं हैं, जिसका समाधान वह पेश करेगी। जन सुराज भी किसी खास विचारधारा की बात नहीं करती। इस रूप में संभवतः वह भी खुद को समाधान उन्मुख पार्टी ही मानती है।

              जन सुराज के बैनरों पर महात्मा गांधी और भीम राव अंबेडकर की तस्वीरें नजर आती हैं। पंजाब में कामयाब होने से पहले तक आम आदमी पार्टी ने भी इन्हीं दो तस्वीरों का सहारा लिया था। पंजाब में उसने गांधीजी की जगह भगत सिंह की तस्वीर को दे दी।

              एक अन्य समानता केजरीवाल और प्रशांत किशोर की अपनी पृष्ठभूमियां हैं। दोनों सुविधा-संपन्न और पेशेवर समूह से आए हैं और दोनों के डिस्कोर्स मध्य वर्गीय रंग लिए रहे हैं।

              अन्ना आंदोलन के जरिए केजरीवाल ने दिल्ली में अपनी सियासी जमीन तैयार की थी। प्रशांत किशोर ने बिहार में दो साल की पदयात्राओं के जरिए अपनी जमीन बनाने की कोशिश की है। केजरीवाल ने पुराने राजनीतिक दलों को एक जैसा (सब आपस में मिले हुए हैं) बता कर खुद पर दांव लगाने के लिए मतदाताओं को उत्प्रेरित किया था। इसमें वे सफल रहे। प्रशांत किशोर का भी सारा दांव इस आकलन पर है कि बिहार में मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा लालू और नीतीश में से एक को चुनने की मजबूरी से तंग आ चुका है। अतः नया विकल्प सामने होगा, तो वे मतदाता उस पर दांव लगाएंगे। क्या ऐसा होगा? इस विधानसभा चुनाव के संपन्न होने तक यह सवाल महत्त्वपूर्ण बना रहेगा।

फिलहाल यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जन सुराज पार्टी की उपस्थिति दर्ज होगी। किस हद तक- यह कहना अभी कठिन है। जन सुराज का दांव एनडीए और महागठबंधन- दोनों से वोट छीनने पर टिका है। इस सिलसिले में उसकी ध्वनियों का प्रभाव देखा गया है। मगर मतदान का निर्णय अंततः कई अन्य पहलुओं से तय होता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से प्रभावित मतदाताओं का भाजपा के साये में खुद को ‘सुरक्षित’ महसूस करना इस वक्त ऐसा एक पहलू है। ‘संविधान और सामाजिक सद्भाव बचाने’ के लिए भाजपा को किसी कीमत पर हराना एक दूसरा पहलू है। बिहार में गुजरे तीन दशकों से लालू समर्थन और विरोध भी ऐसे पहलू रहे हैं। ऐसे सामाजिक वर्गों के मतदाता बड़ी संख्या में मौजूद हैं, जो लालू राज के दौरान हुए अपने ‘सशक्तीकरण’ को याद रखे हुए हैं।

क्या प्रशांत किशोर की ध्वनियां इन तमाम पहलुओं को मात दे पाएंगी? या उन ध्वनियों का असर सीमित रहेगा, नतीजतन जन सुराज वोट कटवा अधिक भूमिका नहीं निभा पाएगी? वह सबसे ज्यादा किसके वोट काटेगी? क्या बिहार में बदलाव चाहने वाले मतदाताओं के एक हिस्से को आकर्षित कर यह सत्ताधारी गठबंधन की मददगार बनेगी? अथवा, नीतीश कुमार से ऊबे ऐसे मतदाताओं को यह अपनी ओर खीचेंगी, जो लालू यादव से नाराजगी के कारण महा-गठबंधन को वोट नहीं देते और इस रूप में यह महा-गठबंधन की सहायता करेगी? ये सब ऐसे सवाल हैं, जिन पर बिहार चुनाव के पूरे दौर में चर्चा जारी रहने वाली है।

फिलहाल, जो नजर आता है, वो यह है कि सत्ताधारी गठबंधन की संभावनाएं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और ‘वोट खरीदो’ योजना की सफलता पर टिकी हुई हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अंदर विभिन्न जातियों को प्रतिनिधित्व देकर भाजपा ने जो ‘सोशल इंजीनियरिंग’ देश के ज्यादातर हिस्सों में की है, बिहार उससे अलग नहीं है। एनडीए में नीतीश कुमार को मिली अहमियत खुद उसी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का हिस्सा है। फिलहाल, इस रणनीति के कमजोर पड़ने के संकेत नहीं हैं। इसीलिए ‘सुशासन’ जैसे दावों के बेनकाब होने, भ्रष्टाचार का मुद्दा हाथ से निकलने और विकास के मोर्चे पर तमाम नाकामियों के बावजूद इस चुनाव में एनडीए की pole position (दौड़ में अग्रिम स्थान) कायम नजर आती है।

दूसरी तरफ महा-गठबंधन अपने सीमित सामाजिक समीकरण के साथ एंटी-इन्कबैंसी के भरोसे ही है। महा-गठबंधन के प्रमुख दल- आरजेडी का अपना सामाजिक आधार मजबूत बना रहा है। सिर्फ इस समीकरण की ताकत के आधार पर उसे लगभग एक चौथाई वोट मिल जाते रहे हैँ। इसके साथ एंटी-इन्कबैंसी का पहलू जुड़े, तो आरजेडी अपने साथी दलों- कांग्रेस, लेफ्ट, विकासशील इनसान पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि के साथ सत्ता के करीब पहुंच सकता है। मगर एक तरफ रुपयों की बारिश कर नीतीश कुमार सरकार ने और दूसरी तरफ इंटी-इन्कबैंसी वाले वोट का एक और दावेदार बन कर जन सुराज ने महा-गठबंधन की संभावनाओं के बारे में अस्पष्टता पैदा कर दी है।

महा-गठबंधन के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसके नेतृत्व ने जिस प्रमुख मुद्दे के सहारे मतदाताओं को लुभाने की योजना बनाई, चुनाव आने से पहले ही सत्ता पक्ष ने उससे उन्हें वंचित कर दिया। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना की मांग के इर्द-गिर्द बिहार में चुनाव लड़ने की मंशा दिखाई थी। मगर केंद्र सरकार ने अगली जनगणना में जातीय गिनती को शामिल कर इसे मुद्दे की धार भोथरी कर दी।

उसके बाद राहुल गांधी ने ‘वोट चोरी’ को अपने अभियान का केंद्रीय बिंदु बनाया। विपक्ष के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को लामबंद करने में यह मुद्दा कामयाब रहा है, लेकिन आम जन के स्तर पर इसका असर है, इसके शायद ही कोई संकेत हैं। इसकी एक बड़ी वजह मीडिया नैरेटिव पर सत्ता पक्ष का नियंत्रण है, मगर इसका एक कारण यह भी है कि ऐसे मुद्दे रोजी-रोटी के रोजमर्रा के सवालों में उलझे जन समुदायों के मन को अक्सर छू नहीं पाते। इसलिए ऐसे मसले मध्य वर्ग के बीच और सोशल मीडिया पर जो ध्वनि निर्मित करते हैं, वह जमीनी स्तरों तक नहीं पहुंच पाती है।

सार यह कि महा-गठबंधन के पास ऐसे मुद्दे का स्पष्ट अभाव है, जिससे वह मतदाताओं में अपने प्रति उत्साह पैदा कर पाए। खुद महा-गठबंधन के घटक दलों- खासकर कांग्रेस- ने भी अपनी राह को मुश्किल बनाने में पर्याप्त योगदान किया है। अपनी असल ताकत से अधिक सीटों की मांग और आखिरी वक्त तक तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से इनकार कर कांग्रेस ने महाराष्ट्र वाली गलती बिहार में दोहराई है। कुछ ऐसा ही रोल मुकेश सहनी की विकासशील इनसान पार्टी का भी है।

पांच साल पहले तेजस्वी यादव ने रोजगार को अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था। तब वे नया चेहरा थे। तब उन्होंने खुद को सभी जातियों और समुदायों के नेता के बतौर पेश किया और ऐसे मुद्दे उठाए, जिनका संबंध सबसे है। चुनाव नतीजों से जाहिर हुआ कि यह रणनीति कामयाब रही। मगर उसके बाद नीतीश कुमार के पाला बदल में सहायक बन कर तथा छोटी अवधि की उनकी गठबंधन सरकार में शामिल होकर तेजस्वी ने नूतनता का तेज गंवा दिया। मतदाताओं के सामने अब उनकी उपस्थिति एक आम नेता के रूप में है। लाजिमी है कि उनकी सियासत और चुनावी संभावनाएं उनकी पार्टी के परंपरागत सामाजिक समीकरण के भरोसे रह गई है। उसमें कुछ ताकत सहयोग दल (खासकर सीपीआई-माले) जोड़ सकते हैं, मगर सवाल यह है कि क्या यह चुनाव जिताने लायक होगा?

इस परिदृश्य को ध्यान में रखें, तो फिलहाल यही नजर आता है कि बिहार में 6 और 11 नवंबर को होने जा रहे मतदान एक सामान्य चुनाव का हिस्सा होंगे। इसमें कोई ऐसा नया तत्व नहीं है, जो मतदाताओं में नई आशाएं पैदा करे। प्रशांत किशोर नया तत्व जरूर हैं, मगर अरविंद केजरीवाल की यादें अभी इतनी ताजा हैं कि उनका नयापन कोई उम्मीद पैदा नहीं करता। तो कुल मिलाकर सूरत यह बनती है कि चुनावबाज दल, नेता, और मीडियाकर्मी (हर चुनाव की तरह) इस चुनाव को लेकर जितने उत्साहित नजर आते हैं, वैसे उत्साह की कोई वजह आम जन को शायद ही नजर आती होगी!

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