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आँकड़े “पकाने” से फूला है जीडीपी गुब्बारा!

भारत ने 2015 से जीडीपी (GDP) के आँकड़े “पकाने” शुरू किए और लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर तक उन्हें फुला दिया। जबकि नोटबंदी एक आर्थिक आपदा थी। … 2019 में अरविंद सुब्रमणियन, जो भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं, ने कहा था कि 2015 में आँकड़ों की पद्धति बदलने से 2011–17 के बीच विकास दर सालाना 2.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ाकर दिखाई गई। नया बेस ईयर 2004–05 की जगह 2011–12 कर दिया गया और कॉरपोरेट फाइलिंग जैसे नए स्रोतों को शामिल किया गया।

दिल्ली के भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों से लेकर बेंगलुरु के चमकते आईटी हब तक कहीं भी खड़े हो जाए, लगेगा मानों भारत की अर्थव्यवस्था एक तेज़ रफ्तार रथ है, जो महाशक्ति बनने की ओर दौड़ रहा है। सरकारी आँकड़े भी वैसी ही तस्वीर दिखाते हैं। जैसे 2025–26 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर को 7.8 प्रतिशत दिखाया गया है। सो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का हिसाब है कि 2025 में भारत की अर्थव्यवस्था 4.19 ट्रिलियन डॉलर का स्तर पाए हुए है।

पर क्या यह वास्तविकता है? जवाब अर्थशास्त्रीयों की खुसर-पुसर में है जो कभी-कभार ऊँची आवाज़ में भी सुनाई देती हैं। उससे तब जाहिर होता है मानों चमक असल में एक मृगतृष्णा है, असलियत नहीं।  सितंबर 2025 में वायरल हुए एक ऑनलाइन लेख ने भारत पर आरोप लगाया कि उसने 2015 से जीडीपी (GDP) के आँकड़े “पकाने” शुरू किए और लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर तक उन्हें फुला दिया। उस लेख में नोटबंदी को आर्थिक आपदा बताया गया।  जीएसटी को अफ़रा-तफ़री भरा सुधार और कहा गया कि अर्थव्यवस्था दरअसल विदेशों से आने वाले पैसों पर टिकी है। साथ ही भ्रष्टाचार हर भारतीय के जीवन पर लगा वह अनौपचारिक टैक्स है जिसकी लोग समृद्धि से ज़्यादा धर्मपरायणता से अनदेखी किए हुए हैं।

निश्चित ही भारत की विकास यात्रा हक़ीक़त है, लेकिन विकृतियों और तंत्र की सड़ांध से भरी हुई। असल विचारणीय मसला भारत द्वारा जीडीपी को को 2 ट्रिलियन डॉलर ज़्यादा दिखलाया जाना है। यह सोचना भी सनसनीख़ेज़ है पर इस तरह का अविश्वास ही बताता है कि दाल में कुछ काला है।  उस आनलाइन पोस्ट में भारत की जीडीपी को महज़ 2.3 ट्रिलियन डॉलर आँका गया था, जो इटली और कनाडा से भी नीचे है। जबकि मौजूदा अनुमान में भारत को 2025 में 4.19 ट्रिलियन डॉलर के करीब बताया गया हैं। और हल्ला है कि इस साल जापान को पीछे छोड़कर भारत चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो चुका होगा। आईएमएफ (IMF) की अप्रैल 2025 की रिपोर्ट भी इसका समर्थन करती है।

पर शक गहरा है और नया नहीं है। 2019 में अरविंद सुब्रमणियन, जो भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं, ने कहा था कि 2015 में आँकड़ों की पद्धति बदलने से 2011–17 के बीच विकास दर सालाना 2.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ाकर दिखाई गई। नया बेस ईयर 2004–05 की जगह 2011–12 कर दिया गया और कॉरपोरेट फाइलिंग जैसे नए स्रोतों को शामिल किया गया। आलोचकों का कहना था कि इससे असंगठित क्षेत्र नज़रअंदाज़ हो गया—वही क्षेत्र जहाँ 80 प्रतिशत से ज़्यादा लोग काम करते हैं और जिसे नोटबंदी जैसी नीतियों ने बुरी तरह झकझोरा था।

सन् 2025 के आंकड़े

2025 में भी संशय क़ायम है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अप्रैल–जून 2025 के लिए 7.8 प्रतिशत की “वास्तविक” वृद्धि दर बताई, लेकिन एचएसबीसी (HSBC) और गोल्डमैन सैक्स जैसे विश्लेषकों का मानना है कि यह छलावा है। उनका तर्क है कि “GDP डिफ्लेटर” यानी मुद्रास्फीति निकालने का पैमाना असामान्य रूप से कम आँका गया। एचएसबीसी का अनुमान है कि अगर सेवा क्षेत्र में महँगाई वास्तविक उपभोक्ता मूल्य (5–6 प्रतिशत) के अनुसार आँकी जाती न कि थोक मूल्यों (लगभग 2 प्रतिशत) पर, तो वास्तविक वृद्धि घटकर 5.5 प्रतिशत रह जाती।

ऐसे विरोधाभास कई हैं: कॉरपोरेट बिक्री वृद्धि जीडीपी (GDP) से मेल नहीं खाती, निजी खपत (जो अर्थव्यवस्था का 60 प्रतिशत है) महज़ 7.4 प्रतिशत बढ़ी, जबकि सेवाओं का हिस्सा 55 प्रतिशत है लेकिन उनकी महँगाई को कम आँका गया।  विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) दोनों ने भारत की तेज़ रफ़्तार विकास दर पर संदेह जताया है। IMF ने तो साफ़ कहा है कि 2025 में भारत की वृद्धि दर केवल 6.4 प्रतिशत रहेगी। यह सरकार की बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई गई तस्वीर से बहुत दूर है। अरविंद सुब्रमणियन की पुरानी चेतावनी फिर याद आती है: अगर आँकड़ों का यह फुलाव चलता रहा तो भारत की असली अर्थव्यवस्था 4 ट्रिलियन नहीं बल्कि 3 ट्रिलियन डॉलर के आसपास ही रहेगी। हालाँकि सोशल मीडिया पोस्ट में बताए गए 2.3 ट्रिलियन डॉलर जैसे दावे अभी भी आधारहीन और साज़िश जैसे लगते हैं, क्योंकि उनके समर्थन में सबूत बहुत कम हैं।

पोस्ट का एक वैकल्पिक सुझाव दिलचस्प है—अर्थव्यवस्था को टैक्स चुकाने वालों के अनुपात से मापना। भारत का टैक्स-टू-जीडीपी अनुपात केवल 18 प्रतिशत है, जो इस आय स्तर के हिसाब से कम माना जाता है। 1.4 अरब की आबादी में से सीधे टैक्स देने वाले महज़ 7 प्रतिशत हैं—करीब 10 करोड़ लोग। इनमें भी बड़ी संख्या केवल फ़ाइल करती है, टैक्स चुकाती नहीं। असल टैक्सदाताओं की संख्या केवल 1.3 करोड़ के आसपास है। यह आँकड़ा बताता है कि असंगठित अर्थव्यवस्था अब भी हावी है और नकद लेन-देन निगरानी से बच निकलते हैं। अगर औपचारिक गतिविधि को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है तो जीडीपी भी उसी अनुपात में फुली हुई होगी।

विदेशी मुद्रा भंडार 2025 के मध्य में 670 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है, जो भारत को झटकों से बचाने की ढाल देता है। लेकिन पोस्ट ने सही इशारा किया है कि इस पर सख़्त पाबंदियाँ हैं। सालाना 7 लाख रुपये (8400 डॉलर) से ज़्यादा विदेश भेजने पर 20 प्रतिशत TCS (टैक्स कलेक्टेड ऐट सोर्स) लगाया जाता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए यह 5। प्रतिशत है। यह नीति पूँजी पलायन रोकने के नाम पर लाई गई है, लेकिन इसका असर यह हुआ कि वैध विदेशी खर्च भी घटे और वैश्विक एकीकरण थमा। फ़ॉरेक्स खरीदने पर भी यही टैक्स लगता है। हालाँकि बाद में रिटर्न से वापस मिल सकता है, मगर यह मध्यम वर्ग पर बोझ है और काले बाज़ार को बढ़ावा देता है।

नोटबंदी का अभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक गहरा घाव है। 2016 में रातों-रात 86 प्रतिशत नकदी रद्द कर दी गई, पर काला धन बाहर नहीं आया। नोटबंदी आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरे घाव की तरह है। 2016 में रातों-रात 86 प्रतिशत नकदी को अमान्य कर दिया गया था। नतीजा यह निकला कि काले धन की कोई बाढ़ बाहर नहीं आई और अर्थव्यवस्था ही लड़खड़ा गई। GDP वृद्धि 2015-16 के 8.3 प्रतिशतसे घटकर 2016-17 में 6.8 प्रतिशत हो गई। जिन ज़िलों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा, वहाँ रोज़गार 1.5 प्रतिशत तक घटा। नकद पर टिके छोटे कारोबार बंद हो गए और असंगठित मज़दूरों को बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ा। CEPR के अध्ययन के अनुसार नकदी-आधारित इलाकों में उत्पादन 2–3 प्रतिशत तक गिरा और कर्ज़ की आपूर्ति सूख गई। भ्रष्टाचार खिलाफ लड़ाई की घोषणा का नतीजा बेहद फीका रहा: केवल 1.8 प्रतिशत नोट ही वापिस लौटे। आठ साल बाद हाँ, डिजिटल भुगतान ज़रूर उछल गए हैं—2025 में UPI लेन-देन 14 अरब प्रति माह पहुँच चुके हैं—लेकिन इसकी कीमत भारी पड़ी है।

जीएसटी का अनुभव भी कम अराजक नहीं रहा। 2017 में एक “एकीकृत कर सुधार” के रूप में पेश की गई यह व्यवस्था जल्द ही अव्यवस्था में बदल गई। पाँच अलग-अलग स्लैब—0%, 5%, 12%, 18प्रतिशतऔर 28%—के साथ-साथ गड़बड़ पोर्टल्स और उल्टे ढाँचों ने कारोबारियों को परेशान कर दिया। छोटे उद्यम मासिक रिटर्न की झंझट में फँसे, निर्यातकों को रिफंड में महीनों की देरी झेलनी पड़ी। शुरुआत में राजस्व गिरा और कपड़ा जैसे क्षेत्रों में कर का दोहरा बोझ बना रहा। बाद में सुधार हुए—दरें घटाई गईं, ई-इनवॉइसिंग लागू हुई—पर पोस्ट का “दुःस्वप्न” वाला ठप्पा अब भी चिपका है। आज वार्षिक राजस्व 224 अरब डॉलर से ऊपर है, लेकिन 2025 के प्रस्तावित सुधार से, जिसमें स्लैब कम करने की योजना है, 20 अरब डॉलर का घाटा होने का अनुमान है। कुल मिलाकर जीएसटी ने औपचारिक क्षेत्र को तो मज़बूत किया, पर असंगठित क्षेत्र की जीवन्तता को कुचल दिया।

भारत का असली सहारा प्रवासी भारतीयों के आने वाला पैसा है। रेमिटेंस यानी विदेशों से आने वाला पैसा आर्थिकी का असली सहारा है।2024 में विदेशों से 129 अरब डॉलर आए—GDP का 3.5%। इसने केरल, पंजाब और अन्य राज्यों की खपत को टिकाए रखा। खाड़ी देशों के मज़दूर, अमेरिकी टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और यूरोप की नर्सें भारतीय रुपये को सहारा देते हैं, आयात को फ़ंड करते हैं और विदेशी मुद्रा भंडार को मज़बूत करते हैं। अगर यह 129 अरब डॉलर का प्रवाह न होता—जो महामारी-पूर्व के 100 अरब डॉलर से काफ़ी ऊपर है—तो विकास दर और भी लड़खड़ा जाती। पोस्ट का दावा बिल्कुल सही है कि अर्थव्यवस्था इन्हीं पर चल रही है। ये पैसे ग्रामीण माँग की कमजोरी और 17प्रतिशतसे ऊपर की युवा बेरोज़गारी जैसी घरेलू चुनौतियों की भरपाई करते हैं।

“Ease of Doing Business” पर पोस्ट ने भारत को “दुनिया का सबसे कठिन देश” कहा है। यह अब पुरानी अतिशयोक्ति है। 2020 की विश्व बैंक रिपोर्ट में भारत 63वें पायदान पर था—2014 के 142वें से ऊपर। दिवालिया सुधार और ऑनलाइन परमिट से यह संभव हुआ। फिर भी प्रगति रुक गई है। नौकरशाही अब भी भूलभुलैया है—कंपनियों पर 1500 से ज़्यादा अनुपालन का बोझ है। 2024 के एक सर्वे ने नए कारोबार शुरू करने में सुधार को नोट किया लेकिन नियमों की असमान अमलदारी पर सवाल उठाए। विदेशी निवेशकों की शिकायतें बनी हुई हैं—जमीन अधिग्रहण और पिछली तारीखों के टैक्स, जैसा कि वोडाफोन विवाद में दिखा।

भ्रष्टाचार इस पूरी बहस का सबसे सजीव पहलू है। पोस्ट की तस्वीर अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि यथार्थ है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2024 सूचकांक में भारत 180 देशों में 96वें स्थान पर रहा, स्कोर 38—2023 से भी नीचे। 60प्रतिशतसे ज़्यादा भारतीय मानते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ा है। कारण भी गहरे हैं: सरकारी वेतन बेहद कम (एक क्लर्क को केवल 300 डॉलर मासिक), लालफीताशाही (एक फैक्ट्री खोलने के लिए 69 मंज़ूरियाँ) और “चाय-पानी” का सामान्यीकरण। छोटे स्तर पर भ्रष्टाचार हर साल 10 अरब डॉलर का नुकसान करता है, भरोसा कम करता है। बड़े घोटाले—जैसे अदानी पर लगे आरोप—लोगों की निंदकता को और गहराते हैं। हालाँकि कुछ सुधार भी हुए हैं। आधार-लिंक्ड सब्सिडी से 30 अरब डॉलर की बचत हुई और डिजिटल टेंडर से रिश्वतख़ोरी घटी।

सांस्कृतिक तंज़ यह था कि भारतीय समृद्धि से ज़्यादा धर्म को प्राथमिकता देते हैं। यह टिप्पणी स्टिरियोटाइप जैसी है। हाँ, GDP के आँकड़ों पर राष्ट्रीय गर्व ज़रूर फूला रहता है, लेकिन यह रोग केवल भारत का नहीं। अमेरिका के बजट घाटे की “नादानी” भी देखी जा सकती है। सच यह है कि जब प्रति व्यक्ति आय महज़ 2600 डॉलर (दुनिया में 143वाँ स्थान, कई अफ्रीकी देशों से भी नीचे) है, तब बचाव की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। लेकिन यही असल में सुधार की बहस को जन्म देती है। मोदी का “विकसित भारत” लक्ष्य है कि 2047 तक भारत को 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाया जाए।

ख़ुशी के पैमाने पर भारत की स्थिति अब भी दयनीय है। 2024 की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में भारत 126वें स्थान पर रहा। फिर भी भारतीय समाज की जिजीविषा बनी रहती है—असमानता के बीच भी त्योहार उसी शान से मनते हैं।

भारत दिनोंदिन प्रवासी भारतीयों की कमाई के भरोसे, उसकी निर्भरता पर अपने को मजबूत दिखा रहा है।   पर प्रवासियों की कमाई के टिकाऊ नहीं है। विकास का असली इंजन देश के भीतर की गति से ही बना हुआ होता है। रेमिटेंस से कुछ समय खरीद सकते हैं, लेकिन असली इंजन—उद्योग और कौशल—देश के भीतर ही जगाना होगा। हमेशा मंडराते चुनाव और वैश्विक हवाओं (जैसे ट्रंप के टैरिफ़) के संकट मामूली नहीं हैं। ऐसे में लोगों के अंधविश्वास और उनकी भक्ति का दोहन कर झूठी कहानी न लंबे समय तक चलनी है और न वास्तविक समृद्धि आनी है।

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