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बेमुरव्वत निर्ममता को छू रही पक्षधरता

क्या आप देश के तक़रीबन 400 समाचार चैनलों में से दो-चार भी ऐसे बता सकते हैं, जो आजकल सरकार के निर्णयों और नीतियों में ख़ामियों को उजागर करना तो दूर, उन की तरफ़ इशारा करने का काम भी करते हों? एक लाख के आसपास अख़बारों-पत्रिकाओं में से क्या सौ-पचास भी ऐेसे हैं, जो केंद्रीय, प्रादेशिक या ज़िला स्तरीय शासन-प्रशासन के कामकाज की समीक्षात्मक रपटें प्रकाशित करते हों?

पत्रकारिता के दो अलग-अलग कंगूरे हैं। एक है, जिस ने अपनी दीवार पर ‘मुख्यधारा-मीडिया’ का बोर्ड  अपने आप टांग कर ख़ुद को हम पर थोप दिया है। दूसरा है बे-धारा मीडिया। इसे आप जो चाहें, कह लें – सोशल मीडिया कहें, एंटी-सोशल मीडिया कहें। वह जैसा भी है, अपनी उपस्थिति ज़ोरदार तरीके से दर्ज़ करा रहा है।

इन में से एक कंगूरे के सामने तो आने वाले समय में कोई चुनौती नहीं है। चुनौती उस के सामने होती है, जो संघर्षरत हो; जो सही के साथ खड़ा हो; और, जिसे लोकलाज का कुछ लिहाज़ हो। मगर जो इक्कादुक्का परदे-पन्ने अपने कर्तव्यबोध से थोड़ा-बहुत बंधे दीखते भी थे, उन्होंने भी इन ग्यारह बरस में जल-समाधि ले ली है। मुख्यधारा-मीडिया का पूरा समंदर कॉरपोरेट-बंदरगाहों के हवाले हो गया है। इस निगमीकृत व्यवस्था ने सुबह के पन्नों पर और शाम के परदों पर बजने वाली आरती-धुनों को समरूप बना दिया है। सो, ‘तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय’ वाले इस माहौल में कैसी चुनौती? किस से चुनौती? मौसेरे भाइयों को एक-दूसरे से काहे की चुनौती?

जो कुछ चुनौती है, सोशल मीडिया के सिर्फ़ एक हिस्से के सामने है। घनघोर वैचारिक ध्रुवीकरण के इस मारकाट भरे दशक ने सोशल मीडिया को दो-फाड़ कर रखा है और दोनों ही तरफ़ है आग तक़रीबन बराबर लगी हुई। मुख्यधारा-मीडिया का और भी नंग-धड़ंग पुछल्ला बन कर, हुक़ूमत-उदूली करते लग रहे तबके पर गालियों के गोले दाग रहे सोशल मीडिया के हिस्से को कहीं से कोई चुनौती न तो है, न तब तक होगी, जब तक ज़िल्ले-सुब्हानी का वरदहस्त मौजूद है। मुख्यधारा-मीडिया की तरह उस के भी भव्य-दिव्य पालन-पोषण का ज़िम्मा, उठाने वालों ने, उठा रखा है। इंद्रसभा की संरक्षण-छतरी के साये में बैठ कर वह आराम से मत्स्य-आखेट का आनंद ले रहा है।

उस दूसरे हिस्से की राह ज़रूर शुरू से पथरीली है, जो बेतरह भड़काऊ और भद्दी गालियों से ख़ुद और अपने परिवारजन की चदरिया को तार-तार करवा कर भी अनुचित से असहमति की धुन बजाते रहने में मशगूल है। उसे आने वाले समय में चुनौतियों के और भी दुरूह पहाड़ पार करने होंगे। चुनौती की चौकियां लगातार नए-नए शस़्त्रों से लैस होती जाएंगी और सोशल मीडिया की पैदल सेना दिनोंदिन और भी निहत्थी। यह संघर्ष एक-बनाम-एक का तो कभी था ही नहीं। हमेशा से डेढ़-बनाम-आधे का था। अगर सामाजिक शक्तियां इसी तरह उनींदी रहीं तो कहीं वह पौने दो-बनाम-चौथाई का ही न रह जाए?

ठीक है कि आज के मीडिया से बह रही आबोहवा ज़रा ज़्यादा ही हताशा और निराशा पैदा करने वाली है, मगर इस का मतलब यह नहीं है कि मीडिया की पक्षधरता का मौसम इस से पहले कभी था ही नहीं। वह हमेशा था। पत्रकारिता वैचारिक पक्षधरता से मुक्त रह भी नहीं सकती है। मगर ऐसा समय इस से पहले कभी नहीं था कि पत्रकारिता ने अपने संयम और संतुलन को पूरी तरह ठेंगे पर रख लिया हो। आज तो पत्रकारीय पक्षधरता की धार कसाईपन की बेमुरव्वत निर्ममता को छू रही है। पहले भी मीडिया में व्यवस्था-समर्थक और व्यवस्था-विरोधी खेमे हुआ करते थे। मगर सत्ता-समर्थक मीडिया का आकार बहुत छोटा होता था और वह इतना अंधभक्त भी नहीं होता था।

व्यवस्था-विरोधी मीडिया को पटाए रखने और अपने हिसाब से चलाने की कोशिशें सरकारें पहले भी करती थीं। लेकिन यह एक दशक हुक़ूमत की तरफ़ से पटा-पटाई के प्रयासों का नहीं, डंडे और दमन के गुप्त हथियारों के निर्लज्ज इस्तेमाल के ज़रिए मीडिया को घुटनों पर लाने का रहा है। यह दशक सत्तासीनों द्वारा अपने सहचर पूंजीपंतियों के माध्यम से मीडिया मंचों को हड़प लेने का रहा है। इस पूरे दशक में हम ने मीडिया को जनता के सजग पहरुआ से सरकार की पलटन में तब्दील होते देखा है। आज के मीडिया के सामने सब से बड़ी चुनौती इस पलटनवाद के विस्तार का सामना करने की है।

मीडिया में पलटनवाद को बढ़ावा देने की प्रवत्ति महज़ राजनीतिकों में ही नहीं है। वह उतनी ही बीहड़ता से प्रशासन के विभिन्न अंगों में भी मौजूद है। वह अर्थतंत्र के संसार को चलाने वालों में भी उतनी ही गहराई से घुसी हुई है। ऐसे हालात में क्या भारतीय मीडिया अपनी असहाय स्थिति से सचमुच कभी उबर पाएगा? किसी नई उदारवादी शासन व्यवस्था की स्थापना होने तक मीडिया के मौजूदा चरित्र में कोई सकारात्मक परिवर्तन होने की उम्मीद पालना इसलिए निरर्थक है कि पिछले दस-ग्यारह साल से जिस शेर की सवारी हमारा मीडिया कर रहा है, उस पर से नीचे उतरने का नतीजा वह बख़ूबी जानता है। सो, जाने-अनजाने, ख़ुशी-ख़ुशी या मजबूरी में, जो खाल हमारे टीवी सूत्रधारों और अख़बारी संपादकों ने ओढ़ ली है, इच्छा हो तो भी, उस से मुक्ति उन के लिए मुमकिन नहीं है। अब उन्हें इसी हाल में जीना है और अपने हुक़्मरानों से वफ़ादारी का इज़हार हर रोज और भी ज़ोर-ज़ोर से करते रहना है।

क्या आप देश के तक़रीबन 400 समाचार चैनलों में से दो-चार भी ऐसे बता सकते हैं, जो आजकल सरकार के निर्णयों और नीतियों में ख़ामियों को उजागर करना तो दूर, उन की तरफ़ इशारा करने का काम भी करते हों? एक लाख के आसपास अख़बारों-पत्रिकाओं में से क्या सौ-पचास भी ऐेसे हैं, जो केंद्रीय, प्रादेशिक या ज़िला स्तरीय शासन-प्रशासन के कामकाज की समीक्षात्मक रपटें प्रकाशित करते हों? मुख्यधारा-मीडिया के डिजिटल चैनलों के बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है, मगर सामयिक सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर अपनी बात कहने वाले जो पांच-सात हज़ार छोटे-मध्यम चैनल यूट्यूब पर मौजूद हैं, क्या उन में से बीस-तीस प्रतिशत से ज़्यादा को आप ने जनोन्मुखी मुद्रा अपनाते देखा-सुना है?

मगर इस अनंताकार पसरे रेगिस्तान के बीच-बीच में कुछ नखलिस्तान कहीं तो निश्चित ही होंगे। इसलिए कोहरे में डूबी दिशाओं के इस दौर में भी इतना आश्वस्त मैं ज़रूर हूं कि जिस तरह मुख्यधारा-मीडिया को आज के सत्तासीनों ने पूरी तरह लील लिया है, वैकल्पिक मीडिया के मंचों को वे उस तरह कभी पूर्णतः गटक नहीं पाएंगे। अपनी टूटी तलवारों, अपने घायल अश्वों और लुंजपुंज होती अपनी मांसपेशियों के बावजूद वैकल्पिक मंचों से शंखों का नाद आप को हर रोज़ भोर में भी जगाता रहेगा और गोधूलि बेला में भी ख़बरदार करता रहेगा। उम्मीद की यह मद्धम-सी लौ भी भावी धूसर आसमान के लिए इसलिए काफी है कि चिनगारी अगर ज़िंदा रहे तो उस के ऊपर जमी राख उड़ाने के लिए तो एक फूंक ही बहुत है।

इस फूंक को सरकार क्यों दमदार बनाना चाहेगी? इस फूंक में तो समाज को प्राण फूंकने होंगे। जब तक भारतीय समाज की सामूहिक चेतना इस अहसास के साथ झटके से नहीं जागती कि अब देर करने का वक़्त गया, कि और देर हुई तो गौरैया-दशा को पहुंच चुकी पत्रकारिता के डोडो की तरह विलुप्त हो जाने की बदनसीबी को थामना असंभव हो जाएगा, तब तक बहुत आस मत लगाइए। क्योंकि सोशल मीडिया को अपनी जाज़म मुहैया कराने वाले भी कौन-से सामाजिक सरोकारों के रखवाले हैं? वे यूट्यूब, ट्विटर और व्हाट्सऐप जैसे उपादान क्या परोपकार के लिए संचालित कर रहे हैं? इन उपादानों पर दुनिया के हर देश की सरकारों के नियमन अपनी-अपनी ज़रूरत के हिसाब से कसते-ढीले होते हैं। भारत भी इस प्रक्रिया पर सामदामी अमल करने में कोई फिसड्डी तो साबित हो नहीं रहा है! उस दिन की कल्पना करिए, जब निर्वाचित सम्राट से किसी भी तरह की असहमति को सोशल मीडिया के सभी संवाहक मंचों की ट्रेन से उठा कर कपड़ों लत्तों समेत बाहर फेंक दिया जाए। भारत भाग्यशाली होगा तो ऐसा दिन कभी नहीं आएगा, वरना ‘जाहि विधि राखे राम’।

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