यह जनवाद कब भरोसा गंवाएंगा?
भारत इन दिनों अलग ही तरह के नए जनवाद की लहर पर सवार है। हर चुनाव इस ज्वार को और ऊँचा कर देता है। लहर अब इतनी प्रबल है कि न क्षितिज दिख रहा है, न नीचे की धारा। सवाल है क्या यह लहर कभी टूटेगी? क्या एक ऐसा देश, जिसने लोकप्रिय राष्ट्रवाद को इतना कसकर थाम लिया है, कभी इसे ढीला छोड़ पाएगा? क्या वह फिर याद कर पाएगा कि लोकतांत्रिक गरिमा आखिर कैसी होती है? या फिर जो क्षितिज चमकता दिख रहा है, वह केवल अनिश्चितता का धुँधलका है? भविष्यवाणी करना आसान होता, अगर विपक्ष ने अपना दमखम...