सर्वजन पेंशन योजना
  • अपने ‘दोस्त’ टोनी नहीं रहे

    कैसी गजब बात जो पर्चे, चर्चे और खर्चे के सामर्थ्य के बावजूद टोनी ने अपने को न अमर सिंह बनने दिया और न बालू।….टोनी सरकारों की काली कोठरियों में आते-जाते हुए भी इस तरह के प्रलोभनों से बचा रहा कि राज्यसभा सांसद बने। अपना भी बिजनेस बनाए। सत्ता में मैकेनिक बने। …लॉबिस्ट और पीआर की दिल्ली में टोनी मेरे अनुभव में अकेली वह शख्सियत जिसने सत्ता की काली कोठरी, कीचड़ में भी अपने आपको साफ-सुथरा रखा और जीवन को अपनी मूल तासीर (संगीत, सिगार, वाईन, निजता, लुटियन दिल्ली के हूज एंड हू चेहरों के बीच की चकल्लसी के मजे) में...

  • बदली, बढ़ी, बिखरी पत्रकारिता और चंदन!

    पहली बार दिल्ली की सत्ता पर वे हिंदी भाषी, हिंदीआग्रही नेता बैठे, जो हिंदी अखबारों को पढ़ते थे। चरण सिंह, राजनारायण, जार्ज फर्नांडीज, मधु लिमये, वाजपेयी-आडवाणी और मोरारजी देसाई सभी हिंदी हिमायती। हिंदी पत्रकारिता के लिए वह मौका था। इसमें कुछ हिंदी संपादकों और पत्रकारों ने सत्ता का दरवाजा खुला बूझा। पत्रकारिता-राजनीति का घालमेल बना। संपादक चरण सिंह, बहुगुणा, राजनारायण, जगजीवन राम आदि पर कवर फोटो-स्टोरी छापते और अपना सियासी एक्टिविज्म चमकाते। Indian Journalism Hindi Journalism कोई पूछे कि भारत की आजादी के 75 साला सफर में भारत को बदलने वाला पहला मोड़ कौन सा था तो अपना जवाब है...

  • कायर, टायर और चंदन पत्रकारिता!

     मैंने देखा कि केबिन में बैठे धर्मवीर भारती मानो स्टालिन या महामंडलेश्वर की तरह आसन जमाए मठाधीश और उनके आतंक में नौकरी करते हुए पत्रकारगण। मैं खांटी समाजवादी गणेश मंत्री की लेखन शैली में विचार प्रवाह का मुरीद हुआ करता था लेकिन मुंबई में धर्मवीर भारती के आगे गणेश मंत्री, उदयन शर्मा, एसपी सिह की समाजवादी रीढ़ सौ टका रेंगती हुई थी। बार-बार सोचता था यह बुद्धिमना-पत्रकारों का जमावड़ा है या कैदियों का। dharmyug magzine dharambir bharti मैं पत्रकारिता के सात्विक भाव से पत्रकारिता में आया। मैंने जब 1976 से पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया और पहले ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक...

  • संपादक ही संपादक, पर एक संपादक नहीं!

    राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी और एसपी सिंह ऐसे नाम हैं, जिनके लिखे, जिनकी शैली, जिनके संपादन, जिनके प्रयोगों के अनुभव व किस्सों पर हिंदीजन बतौर संपादक विचार करते हैं।...सवाल है इन आठ चेहरों में स्टील वाली हिम्मती रीढ़ की हड्डी लिए कौन था? किसके संपादन से हिम्मत का वैसा जज्बा खिला जैसे अरूण शौरी या लंदन के ‘संडे टाइम्स’ के प्रतिमान संपादक हेरोल्ड इवांस से खिला? संपादक कैसा, कौन व क्या अर्थ लिए हुए है इसका पैमाना यों लोकतंत्र व जन बुद्धि के स्तर अनुसार अलग-अलग है। उस नाते भारत...

  • मैं अकेला और संपादक का अर्थ

    Journalist nayaindia : लब्बोलुआब है संपादक को खोजना है, लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की आजादी को खोजना है तो मालिक को खोजना होगा। मैने ‘जनसत्ता’ छोड़ने के बाद अपने बूते पत्रकारिता के कई प्रयोग किए। मैं मालिक बना तो मेरे मन में जो आया वह मैंने किया। लेकिन मैं क्योंकि सरस्वती पुत्र ब्राह्मण तो भला बतौर मालिक कैसे पूंजीवान हो सकता था! वह तो बनिया ही हो सकता है। और बनियों में रामनाथ गोयनका पूरे भारत में अकेले अपवाद थे, जिन्होंने लगातार सब कुछ दांव पर लगाए रख कर महासंपादकी की। पैंतालीस साल की अब तक की पत्रकारिता में 12-13 साल ‘जनसत्ता’ की...

  • ‘जनसत्ता’ से चेहरों का सत्य!

    शुरुआत के चार-पांच सालों में चेहरों से मैंने बहुत कुछ जाना। जिन्हें दुर्दिन से निकाल समाचार संपादक जैसी ऊंची जगह बैठाया, उन्हें रंग बदलते देखा। जिन्हें कामकाजी-अराजनीतिक होने के भरोसे में बैठाया वे अपना दरबार लगाए मिले। जिनका घरोपा एक मानता था, उन्हें बिखरते, टूटते और ईर्ष्या व खुन्नस में देखा।... इसलिए जब मैंने 1995 में ‘जनसत्ता’ छोड़ा तो पल भर भी नहीं लगा कि मैं कुछ मिस कर रहा हूं। 99 फीसदी चेहरे विस्मृत। 25 साल बाद उन चेहरों में से चेहरे तलाशते हुए अब इस विचार में जा अटक रहा हूं .... Jindiginama jansatta Newspaper छब्बीस साल की...

  • ‘जनसत्ता’ की दुपहरी, बहुत छोटी!

    मैंने जून 1995 में ‘जनसत्ता’ वैसे ही छोड़ा जैसे जैसे जेएनयू और टाइम्स समूह को 1978-79 में छोड़ा था। मुड़ कर फिर कभी ‘जनसत्ता’ की ओर देखा ही नहीं। इधर ‘जनसत्ता’ छोड़ा और उधर धड़ाधड़ एक के बाद एक मेरे अपने बूते के उद्यम। भिड़ते ही पहली निजी देशी टीवी चैनल ‘एटीएन’ के सिद्धार्थ श्रीवास्तव, उसके सीईओ प्रदीप दीक्षित के साथ काम..फिर ‘दूरदर्शन’ के लिए ‘कारोबारनामा’ प्रोग्राम...हिंदी की पहली आईटी पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, सीडैक के साथ हिंदी कंप्यूटर ट्रेनिंग प्रोग्राम व ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’ और पहले बहुभाषी ‘नेटजाल’ पोर्टल का वह सिलसिला जिससे देखने-सोचने की फुरसत ही नहीं कि...

  • नौकरी शुरू नहीं की और मैं ट्रेड यूनियनिस्ट!

    ये छोटी-छोटी बातें हैं। मगर जान लें इन छोटी-छोटी बातों से ही ‘जनसत्ता’ बड़ा बना था। तब ‘जनसत्ता’ का हर रिपोर्टर, पत्रकार, स्ट्रिंगर अपने परिवेश, शहर में अलग पहचान लिए हुए था तो इन छोटी बातों के बड़े मैसेज की वजह से। इसी से प्रभाषजी की जिंदगी की पत्रकारिता की छोटी ही (पंद्रह साला) पुण्यता बनी और ‘जनसत्ता’ 12-13 साल अनोखा अखबार रहा। हां, यह अपना घमंड के साथ और जनसत्ता में की मेहनत के बूते साधिकार मानना है। ‘जनसत्ता’ में मेरी नौकरी की शुरुआत सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने वाली थी। अखबार लांच होने से पहले ही नौकरी खतरे...

  • और प्रभाष जोशी का संसर्ग

    हमें ज्यादा नहीं खपना पड़ा। कंप्यूटरकृत नई कंपोजिंग व उससे लेआउट में आसानी व फुर्ती से ‘जनसत्ता’ नयापन लिए, साफ-सुथरा, अधिक खिला हुआ होना ही था। उसके आगे पुरानी तकनीक के ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘हिंदुस्तान’ पाठकों को फीके व बासी लगने ही थे। फिर समय क्योंकि इंदिरा राज, अशांत पंजाब, कांग्रेस बनाम विपक्ष में टकराव का था और उसके बीच रामनाथ गोयनका का एक्टिविज्म मुखर था तो विचारों की विविधता, धार और हर बात पर विचार की हम चारों की जिद्द से ‘जनसत्ता’ को सर्वग्राही भी होना ही था। (Jindanginama prabhash joshi jansatta) सन् अस्सी-इक्यासी पार होते-होते मेरी फीचर एजेंसी...

  • मेरे फैसले, राजेंद्र माथुर का समझाना!

    जिंदगी के मेरे फैसले उटपटांग और दुस्साहसी रहे हैं। अंटी में कुछ नहीं होता था लेकिन चिंता नहीं कि कल क्या खाऊंगा! भीलवाड़ा से पहले जेएनयू, वहां कुछ करता उससे पहले पत्रकारिता की धुन और पहुंचना टाइम्स ग्रुप व मुंबई। वहां कुछ बनता उससे पहले सब छोड़ बिना ठिकाने, बिना नौकरी के दिल्ली लौट आना।...राजेंद्र माथुर के पत्र ने जतलाया वे दिल्ली की राजनीति और उसे कवर करने वाले पत्रकारों के प्रति क्या सोचते थे और मेरा मानना है कि 09-10-1978 के रज्जू बाबू के ये भाव नवभारत टाइम्स को संभालते हुए 1990 में वीपी सिंह-चंद्रशेखर की राजनीति व मैनेजमेंट...

  • राजेंद्र माथुरः मेरे मायने अलग!

    सवाल है रज्जू बाबू की छाप बड़ी या प्रभाष जी की? दोनों की नहीं। मेरी अलग तासीर थी, रही और है। पर राजेंद्र माथुर क्योंकि मेरी पत्रकारिता के बालकाल में प्रेरक थे, उन्हें पढ़ना उनके आखिरी लेख तक दिल-दिमाग में तंरगें पैदा करता था तो रज्जू बाबू मेरे लिए हमेशा अमिट रहे। वहीं प्रभाषजी से मुझे स्वतंत्रता का, दौड़ने का, कुछ कर दिखाने का मौका मिला तो ‘जनसत्ता’ और उनके बिना भी यदि पचीस साल बाद (मैने ‘जनसत्ता’ 1995 में छोड़ दिया था) भी यदि आज मैं लिखते हुए हैं तो वह उनके बनवाए शिड्यूल, स्वभाव की निरंतरता से है।...

  • चेहरेः जिनसे बना जिंदगी का बूता!

    Chehareh jinase bana : सौभाग्य जो मुझे अच्छे लोगों का साथ, हाथ मिला। सवाल है क्या इनसे मेरे करियर, मेरा जीवनोपार्जन हुआ? नहीं.... कतई नहीं!...सफर असंख्य चेहरों के बीच, अच्छे-भले लोगों का संसर्ग बावजूद इसके कुल मिलाकर जीवन निपट अकेला और अपने बूते या कहें अपने भाग्य से! अपने पुरुषार्थ से? अकेले चलते ही चलते और लगातार चलते जाना! फिर भी मन में संदेह है....भला मैं कैसे उन चेहरों को याद न करूं, जिनसे हौसला मिला। जिनसे सीखा और समझा। जिंदगी है चेहरों का अनुभव! चेहरों में गुंथी होती है जिंदगी! भाग्य से नहीं, बल्कि चेहरों की संगति से, उनके...

  • रावण को जलाते-जलाते रावण बनना!

    मौजूदा वक्त में रावण के पुतले यों ही विशाल नहीं हैं, इनका शृंगार, इनकी साज-सज्जा, इनके अट्टहास, भाव-भंगिमाओं-गर्जनाओं का अभिनय या साक्षात अनुभव सबसे यह सत्य निर्विवाद है कि हमें कुछ ऐसा श्राप है, जो हम और हमारा सनातनी जीवन उत्तरोत्तर रावणी होता जाना है। भले असुरों के गुलाम हो कर जीयें या स्वंय के राज का मौका मिले, सबमें जीना असुरी जीवनचर्या की नियति से है। अपने जीवन की नियति में न सत्य है, न मानवीय गरिमा और मर्यादा है। न बुद्धि है, न आधुनिकता व सदाचार हैं और न दैवीगुण के सत्कर्म हैं। vijaya dashami ravan dahan मैं...

  • और ध्वस्त बाबरी मस्जिद!

    और मैं सन्न! रोंगटे खड़े हो गए। ग्राउंड खबर लेने के कौतुक की बजाय दिमाग सिर्फ यह सोचते हुए था, क्या गजब हुआ! तारों की जिस घेरेबंदी पर मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, केंद्र सरकार सब मानते थे कि चिड़िया भी विवादास्पद स्थल में नहीं घुस सकती उसमें कारसेवकों ने घुस कर, गुंबद पर चढ़ कर गुंबद ढहा दिए। हिंदू का यह रूप... यह शौर्य है या अपराध? इतिहास का बदला या भविष्य का घाव? .... हिंदू इतिहास में छह दिसंबर 1992 अकेली तारीख है जब इतिहासजन्य प्रतिहिंसा में हिंदू ने पहली बार हथौड़ा उठाया। babri masjid demolition : इतिहास...

  • वह दिन था अर्थ क्रांति का!

    नरसिंहराव की उधेड़बुन में आजाद भारत में मौन अर्थ क्रांति का दिन हुआ 24 जुलाई 1991। तब संसद का सत्र चल रहा था। वित्त मंत्री डा मनमोहनसिंह बजट पेश करने वाले थे। उससे ठीक पहले 12 बजकर 50 मिनट पर उद्योग मंत्री की तरफ से उद्योग राज्यमंत्री पीजे कुरियन ने लोकसभा में खड़े हो कर रूटीन अंदाज में स्पीकर को संबोधित करते हुए वक्तत्व दिया- सर, मैं सदन के पटल पर औद्योगिक नीति पर एक वकतव्य रख रहा हैं।‘  मतलब नई नीति का दस्तावेज। economic liberalism Narasimha Rao : मैं समाजवाद के दिनों में पत्रकार बना। तब भारत में फोन,...

  • इमरजेंसीः विदेशी साजिश और वैश्विक इमेज

    विदेशी साजिश के खौफ-पैरानॉयड मनोदशा में इमरजेंसी ( emergency conspiracy global image ) का फैसला था। हालातों के डर पैदा करने वाली खुफिया ब्रीफिंग में रॉ प्रमुख आरएन काव ने इंदिरा गांधी का कैसे-क्या माइंड बनाया इस पर किसी का फोकस नहीं रहा।... फिर पेंडुलम के दूसरे छोर पर नेहरू की बेटी को तानाशाह की वैश्विक बदनामी ने पहुंचाया। कैसे वे प्रजातंत्र स्थापक-पोषक पिता नेहरू की जगत पुण्यता के कंट्रास्ट में अपनी तानाशाह बदनामी पर विचार नहीं करतीं। तभी एक दिन उनका अपने स्तर पर चुनाव का फैसला था। यह भी पढ़ें: इमरजेंसीः पहेली और पैरानॉयड! emergency conspiracy global image...

  • इमरजेंसीः पहेली और पैरानॉयड!

    अपना मानना है कि इंदिरा गांधी का इमरजेंसी ( emergency Indira gandhi ) लगाना और चुनाव का फैसला उनका खुद का निर्णय था। वे अंतर्मन से गाइडेड थीं। वे पार्टी में विद्रोह (चंद्रशेखर-धारिया की बेबाकी, जगजीवन राम-वाईबी चव्हाण आदि की महत्वाकांक्षाओं) के भय और विदेशी साजिश के डर के पैरानॉयड में थी। जिन्हें 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा भारत की 85 साल पुरानी पार्टी को तोड़ने का इतिहास ज्ञात है वे जानते हैं कि इंदिरा गांधी ने राजनीति को कैसी मनोदशा में खेला। मैं 1975-76 में पत्रकार नहीं था लेकिन जेएनयू में फ्रीलांसिग करने लगा था। ऐसा जेएनयू में होने...

  • इमरजेंसीः खामोख्याल विपक्ष

    इमरजेंसी की घोषणा के साथ पहले से बनाई लिस्ट अनुसार रात में सोते हुए जितने नेताओं-कार्यकर्तार्ओं को गिरफ्तार किया गया था वहीं इमरजेंसी बंदियों का असली लब्बोलुआब है। घोषणा के अगले दिन सूरज निकला तो तब गिरफ्तार हुए अपने केसी की जुबानी का सत्य कि दिल्ली की सड़कों पर, जेपी के पटना में इमरजेंसी के खिलाफ कुत्ता भी भौंकता हुआ नहीं था! indira gandhi in 1975 अनुभव में इमरजेंसी दिखती नहीं थी। विपक्ष को सांप सूंघा हुआ था। न प्रदर्शन थे और न आंदोलन। सन् 1975-76 में देश की आबादी कोई 70 करोड़ थी। लेकिन इमरजेंसी के खिलाफ पर्चे बांटते...

  • इमरजेंसी… मुझे दिखी नहीं!

    जेएनयू और दिल्ली घूमते-देखते हुए लगा ही नहीं कुछ असामान्य है। जन-जीवन, आवाजाही और अखबार सब सामान्य। हां, अखबारों में विपक्ष और राजनीति की खबर ढूंढे नहीं मिलती थीं और न इमरजेंसी की खबर। मानों भारत बिना विपक्ष और राजनीति के हो। जेएनयू में बंदिश, घुटन जैसा कुछ महसूस नहीं हुआ। न ही सहपाठी छात्र-प्रोफेसर-स्टाफ उद्वेलित या बेचैन।.... जेएनयू की उन दिनों की याद से अब समझ आता है कि 26 जून 1975 से लेकर 10 जुलाई 1975 के पंद्रह दिनों में जो होना था वह हो गया। hari shankar vyas jindageenama : छब्बीस जून 1975 का वह दिन...मैं तब...

  • फ्लैशबैक में, लम्हों की खता!

    ख्याल कौंधा है कि महामारी काल में जो ठहराव है वैसा अपने अनुभव में पहले कब था? दूसरा सवाल है कि ठहरे वक्त की किंकर्तव्यविमूढ़ता में पुरानी घटनाओं को फ्लैशबैक में टटोलें तो क्या निकलेगा? ... आजाद भारत के इतिहास में सिर्फ छह-सात क्षण हैं, घटनाएं हैं जो 75 साल का कुल अनुभव हैं। कौन सी हैं ये घटनाएं? एक, चीन से हार। दो, बांग्लादेश जीत। तीन, इमरजेंसी। चार, ब्लूस्टार ऑपरेशन। पांच, नरसिंह राव की अर्थ क्रांति। छह, अयोध्या में मस्जिद ध्वंस। सात, मंडल आयोग। आठ, कोविड-19 महामारी। पंडित का जिंदगीनामा: लंदनः समझदारी की पाठशाला पंडित का जिंदगीनामा-18:  ( hari...

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