यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि बिहार से लेकर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया में और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बिहार के अपराध की चर्चा अचानक बढ़ गई है। एक हत्या होती है तो उसे ऐसे दिखाया जा रहा है, जैसे बिहार हत्याओं का प्रदेश बन गया। चुनाव के चार महीने पहले ऐसा होना अनायास नहीं है। ध्यान रहे बिहार में नीतीश कुमार की सरकार है, जो भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने हैं। वैसे भी आजकल मीडिया को गोदी मीडिया कहने का चलन है, जिसका मतलब होता है कि मीडिया भाजपा की सरकारों से सवाल नहीं पूछता है। ऊपर से नीतीश कुमार तो मीडिया को वैसे भी बहुत पसंद हैं। फिर भी अपराध की घटनाओं को बहुत बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा है। क्या मीडिया अचानक बेलगाम हो गया या इसके पीछे कोई साजिश काम कर रही है?
यह सवाल इसलिए है क्योंकि बिहार में इस समय औसतन हर महीने 230 से कम हत्याएं हो रही हैं। पूरे साल का आंकड़ा 27 सौ के करीब हत्याओं का है। अगर इसकी तुलना लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के राज से करें तो यह आंकड़ा काफी कम है। 2004 में यानी लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के शासन के आखिरी वर्ष में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक बिहार में 3,471 हत्याएं हुई थीं। यानी हर महीने 290 हत्याएं हुई थीं। सोचें, जब बिहार की आबादी आठ करोड़ के करीब थी तो हर महीने तीन सौ के करीब हत्याएं हो रही थीं और आज 12 करोड़ से ज्यादा आबादी है तो सवा दो सौ हत्याएं हो रही हैं। इसका मतलब है कि आबादी के अनुपात में हत्या और दूसरे अपराध में बड़ी कमी आई है। हत्याओं की प्रकृति भी अलग है। उस समय ज्यादातर हत्याएं संगठित अपराध, गैंगवार और नरसंहार में होती थीं, जबकि आज प्रेम प्रसंग, पारिवारिक कलह, आपसी झगड़े में ज्यादा हत्याएं हो रही हैं। यानी पैशन क्राइम और एक्सीडेंटल क्राइम की वजह से हत्याएं ज्यादा हो रही हैं। अगर राष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें तो देश भर में होने वाले अपराध में बिहार का अनुपात 5.2 फीसदी का है। इससे ऊपर महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य हैं। प्रति एक लाख व्यक्ति पर अपराध की राष्ट्रीय दर 422.2 है, जबकि बिहार में यह दर 277.1 है यानी राष्ट्रीय औसत से बहुत कम। फिर भी राहुल गांधी बिहार को क्राइम कैपिटल कह रहे हैं, मीडिया भी इसे दिखा रहा है और भाजपा, जदयू मिल कर इस नैरेटिव को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं।


