सर्वजन पेंशन योजना
  • भीड़ के लिए क्या जिंदगी, ‘मृत्यु’ और ‘मोक्ष’!

    कोई कितनी ही कोशिश करे, भारत की भीड़ को दुनिया से कनेक्ट करे, क्योटो और काशी में करार कराए, काशी को कितना ही आधुनिक बनाए, सब मिथ्या। काशी और कौम का अक्खड़ निर्गुणी सत्य एक ही था, है और रहेगा कि राम नाम सत्य है, मुर्दा साला मस्त है!... कबीरदास खेला और खिलाड़ी की बात तो तब कर सकते थे जब काशी की गलियों में जिंदादिली मिलती! ... तभी मुझे काशी को क्योटो से जोड़ने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुगाड़ पर हंसी आई। काशी का भला क्योटो से क्या लेना! काशी के लिए याकि हिंदुओं के लिए संभव ही...

  • ‘डिपार्चर लाउंज’ है मोक्ष!

    जापान ने बुढ़ापे के ‘डिपार्चर लाउंज’ को ‘सूर्योदय’ का नाम दिया है। वहां जिंदगी में पुनर्जिंदगी का मनुष्य अनुभव है। सोचें, लोगों द्वारा फुरसत और बिना किसी चिंता के शगल और शौक की अनुभूतियों में जिंदगी को जीना। बागवानी, कैलीग्राफी, तैराकी, पर्वतारोहण, खेल-कूद, कुकिंग, कम्युनिटी सेवा, लिखना, कविता करना, चित्रकारी, हैंडिक्राफ्ट, पॉटरी या जिस कंपनी से रिटायर हुए उसी में कम घंटों का छोटा काम करके या चैरी गार्डन, चिड़ियाघर में टूरिस्टों को घुमाने या गांव-कस्बे-छोटे शहर में स्कूल-नर्सरी के बच्चों की मदद में रम कर उनके बचपन के बीच का सुख। ध्यान रहे जापान में ऐसी जिंदगी जीते हुए...

  • हे राम! अमृत काल का (पुस्तक) मेला

    तय मानें मेले में जितनी पुस्तकें नहीं खरीदी गई होंगी उससे असंख्य गुना मोदीजी के हाथों से पुस्तक लेते हुए लोगों ने अपनी फोटो खिंचवाई। क्या नौजवान, क्या महिला और क्या प्रौढ़ पुरूष सब लपक कर मोदीजी से पुस्तक पाते हुए! और इस नजारे के मेरे कुछ मिनट के अनुभव में फोटो खिंचवाती भीड़ के हाथों में पुस्तक खरीदी होने का एक भी बैग नहीं देखा।...गेट से बाहर निकला तो मोदीजी खड़े थे... मुझे अपने साथ फोटो का आमंत्रण देते हुए। ... पर मैंने उनके साथ सेल्फी नहीं ली.... पर हां, प्रगति मैदान से बाहर निकलते मुझेउनके कंट्रास्ट में इंदिरा...

  • नींव गुलाम, संविधान आत्माविहीन!

    समझे, गांठ बांधे कि संविधान, व्यवस्था और नेतृत्व के कथित पारस पत्थर की खोट है जिससे पचहत्तर साल की आजादी में लोग जड़ बुद्धी में अंधा सफर करते हुए है। … भारत की रैवड़ अद्भुत है। वह दुनिया का अजूबा है। दुनिया में ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है जिसमें आजादी के बाद कुल आबादी के बहुसंख्यक अनुपात में लोगों का भेड-बकरी के माफिक आश्रित, भयाकुल, बंधुआ जीवन जीने जैसा करिश्मा हो। हर कोई सरकार पर आश्रित है। सरकार और सत्ता की भिन्न-भिन्न लाठियों, फिरौतियों, बुरी नजर, झूठ, अंधविश्वासों, मूर्खताओं, धर्मादाओं में भारत के सौ-सवा सौ करोड लोग 21वीं सदी...

  • उद्देश्यों की चूक से शुरू कलियुगी सफर!

    हिंदू की सतयुग बनाम कलियुग की धारणा दरअसल स्वतंत्र-स्वाभिमानी जीवन बनाम परतंत्र-बुंधआ गुलामी काल के अंतर पर है।  निर्भयी बनाम भयाकुल मनोदशा, बुद्धीमना बनाम अंधमूढता, कर्मवाद बनाम भाग्यवाद के काल फर्क में है। ... उस नाते 1947 में भारत जब आजाद हुआ था तो भारत को वह संविधान बनाना था जिसमें हिंदुओं की मनोदशा परिवर्तन, उनके स्वभाव-व्यवहार की चिंता होती। ... सवाल है आजाद भारत और उसके संविधान के क्या उद्देश्य होने चाहिए थे? अपना सीधा दो टूक देशज जवाब है कि भारत राष्ट्र-राज्य की पहली प्राथमिकता हिंदुओं का कलियुग खत्म हो। गुलामी के चौदह सौ सालों के अनुभव से...

  • बुद्धी गंवाई, और उज्जड़ बने!

    पचहतर का भारत कलियुग बढ़ा या घटा?-1: भारतीय उपमहाद्वीप पृथ्वी का प्राचीनतम सांस्कृतिक भूभाग है। जल्दी ही भारत आबादी में दुनिया का नंबर एक देश होगा। ऐसे देश के 140 करोड़ लोगों का जीवन कैसा होना चाहिए? खुशहाल, संतोषी, सफल जीवन। पर सत्य क्या है? लोगों का अव्यवस्था-केहोस-भ्रष्टाचार में लावारिस जीवन! कोई एक सौ करोड़ लोग पांच किलो राशन या पांच सौ, हजार, दो हजार रुपए की खैरात पर जीते हुए हैं। विश्व की सर्वाधिक दीन-हीन, निर्धनतम भीड़ का देश है भारत!  आर्थिकी में पराश्रित (चीन) और देशी-क्रोनी ईस्ट इंडिया कंपनियों की बेइंतहां लूट। एटमी महाशक्ति के बावजूद दुश्मनों से...

  • पहले दिन से सत्ता की भूख!

    पचहतर का भारत! सफर की सच्चाई-1: हम हिंदुओं को निश्चित ही ईश्वर का श्राप है! तभी इतिहास का बोध तनिक नहीं होता। न भूख मिटती है और न भय से मुक्ति पाते हैं। राष्ट्र बुद्धि और राष्ट्र संकल्प बनने का तो खैर सवाल ही नहीं। हमें मूर्ति पूजा के अलावा कोई उपाय नहीं सूझता। जीवन को जैसे-तैसे जीना और जुगाड़ हमारी सिद्धि है। इन्हीं छह बातों को मैं पिछले पचहत्तर वर्षों का लब्बोलुआब मानता हूं। क्या आधार है? जवाब में एक-एक करके पचहतर वर्षों के इन अनुभवों पर गौर करें- पहले दिन से हम इतिहास बोध के बिना- ईमानदारी से...

  • पिंजरे तोड़े बिना बचाव नहीं!

    कल्पना करें सदी के आखिर में पिघलती धरती के कारण यदि पृथ्वी के द्विपीय देश डूबे तो वहां के नागरिक क्या सोचते हुए होंगे? यदि मालदीव, सेसेल्स, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम जैसे देश डूबे तो सभ्यता के बनाए इन देशों के धर्म, भगवान, समाज, राजनीति और नेता क्या मनुष्यों को बचा लेंगे? लोग जब डूबने लगेंगे तब वे कहां जाएंगे? कथित मानव प्रगति क्या लोगों को बचा पाएगी? तब पच्चीस-पचास देशों के मनुष्यों को अहसास होगा कि यदि राष्ट्र की सीमाएं नहीं होतीं, सभ्यताओं का झूठा घमंड पाला नहीं होता तो नाव उठा कर बगल के महाद्वीप में वैसे ही पहुंच...

  • मानव अंतः पशुओं सा या इंसानी?

    पृथ्वी की समस्या मनुष्य है। उससे पृथ्वी को बचाना है। तब मनुष्य को बदलना होगा। बदलना तब संभव है जब मनुष्य पांच हजार वर्षों में बनी आदतों को छोड़े। मनुष्य ने समाज, व्यवस्थाओं, सभ्यताओं-राष्ट्रों को बनाकर धरती के बापी पट्टे काट कर पृथ्वी के शोषण और बरबादी की जितनी आदतें बनाई हैं उन्हें छोड़ना होगा। पर वह कैसे सुधरे? उसे कौन सुधारे?...पृथ्वी के सुधी जन कितनी ही कोशिश करें, वे पृथ्वी के मौजूदा आठ अरब लोगों और उनकी पीढ़ियों में यह जागरूकता नहीं बना सकते हैं कि बदलोगे नहीं तो बचोगे नहीं। चंद मनुष्य भले किसी दूसरे ग्रह में जाकर...

  • टूक निष्कर्ष, पर गले नहीं उतरता!

    ‘सभ्यता’ भस्मासुरी अंहकारों की वह पहली और अंतिम रचना है जो अंततः होमो सेपियन के निर्माण और मृत्यु का टाईम कैप्सूल साबित होगी। कैसा त्रासद सत्य है जो राम-रावण, महाभारत और सुमेर की पहली सभ्यता से लेकर आज तक सभ्यताओं के उत्थान-पतन की तमाम सच्चाईयों, कथा-कहानियों का निष्कर्ष है कि मनुष्य प्रवृति सभी समस्याओं की ज़ड़ है बावजूद इसके मनुष्यों में यह बोध नहीं बना कि वह सुधरे। अपने ढर्रे को बदले। भूख, भय और अंहकार से निर्मित सभ्यता के मकड़जाल को छोड़े। नए ढ़ग से जीवन जीने पर विचार करें। नया तरीका बनाएं। प्रलय का मुहाना-34: पृथ्वी की समस्या...

  • बिना सभ्य हुए ज्ञानी!

    कैसे हो मनुष्य सभ्य? जबकि मनुष्य और समाज के बिना सभ्य और सुसंस्कृत हुए पृथ्वी की समस्याओं का समाधान संभव ही नहीं है। ...पर यह काम हो कैसे? सभ्यता के इतिहास में कभी भी, किसी भी स्तर पर मनुष्य को सभ्य बनाने की वैज्ञानिक, तर्कसंगत कोशिश नहीं हुई। सत्य अनुसंधान के वैज्ञानिक तरीकों से समाज और उसके विकास का रास्ता नहीं बनाया गया। मनुष्य जीवन और समाज दोनों का धार्मिक और राजनीतिक टेकओवर इस कदर था कि सभ्य मनुष्य निर्माण में ज्ञान-विज्ञान और तार्किकता का हस्तक्षेप संभव ही नहीं हुआ। प्रलय का मुहाना -33: बिना सभ्य हुए ज्ञानी! मनुष्य खोपड़ी...

  • ‘सभ्यता’ में ‘असभ्य’ मनुष्य नियति!

    मनुष्य सभ्यता के पिंजरों का वह पालतू जीव है, जिसके दिमाग में समझदारी, तर्कसंगतता-चेतनता याकि विजडम, रैशनालिटी की बुद्धि इसलिए नहीं बन सकती है क्योंकि वह पिंजरे में कुंद है। मनुष्य पांच हजार वर्षों से सभ्यता के पिंजरे में जब कुलीन वर्ग के सिखाए रट्टे (धर्म-समाज-राजनीति) का तोता है तो उसे यह सुध कैसे हो कि वह मनुष्य है और मनुष्य होने का उसका अर्थ और गरिमा तभी है जब दिमाग चेतन हो। समझदार हो। सत्य और झूठ के अंतर को बूझने की रैशनालिटी लिए हुए हो। प्रलय का मुहाना -31:  बकौल अर्नोल्ड टॉयनबी सभ्यताएं आईं और गईं और ‘सभ्यता’...

  • पहली सभ्यताः हाइब्रिड फाउंडेशन!

    मनुष्य समाज दरअसल पशु प्रवृत्तियों और मनुष्य व्यवहार की वह वर्णसंकर, हाईब्रिड प्रजाति है, जिससे मानव दिमाग एक छोर से दूसरे छोर, जंगली से मानवीय छोर में झूलता है। दुविधाओं और अतिवाद में जिंदगी जीता है। यह भूख, भय, अहम का अतिवाद है तो इन पर शासन व शोषण की बनी गड़ेरिया बुद्धि भी कम अतिवादी नहीं है। …21वीं सदी के आठ अरब लोगों की मौजूदा आबादी में श्रेष्ठि मानव वर्ग आठ करोड़ भी नहीं होंगे। जबकि 99 प्रतिशत लोग पशुगत प्रवृत्तियों की भेड़-बकरी, सुअर की कैटल क्लास के एनिमल फार्म में जिंदगी जी रहे हैं।  सभ्यता की हाइब्रिड फाउंडेशन...

  • सुमेर से शुरू मकड़जाल!

    सुमेर की पहली सभ्यता में मनुष्य का सभ्यता नाम की आर्टिफिशियल जिंदगी में बंधना शुरू हुआ। तब बना मकड़जाल वर्तमान के सभी 195 देशों की सच्चाई है। मकड़जाल इसलिए क्योंकि सभ्यताओं का अनुभव बार-बार बनने और खत्म होने का है। बावजूद इसके मकड़ी की तरह इंसान बार-बार सभ्यता का टूटा जाला फिर बनाने लगता है। उसे जाले का छल, व्यर्थता और नया कुछ सूझता ही नहीं है। सुमेर में पांच हजार साल पहले निर्मित सभ्यता के टैंपलेट पुरानी और आधुनिक सभी सभ्यताओं के तौर-तरीके थे और हैं। प्रलय का मुहाना-30: कहते हैं सभ्यता से मानव का अंध युग खत्म हुआ।...

  • सभ्यता, ओझाई अतिशयता!

    धारणा सही नहीं है कि बस्ती बसना और खेती साथ-साथ घटित घटनाएं हैं। यह भी फालतू बात है कि इन दोनों से फिर सभ्यता निर्माण आरंभ हुआ। पुरातात्विक प्रमाणों से जाहिर है कि लोगों का सेटल होना, बस्ती बसा कर सामुदायिक जीवन का आरंभ पहले से था। कृषि से पहले कम से कम तीन हजार वर्षों तक मनुष्य कई जगह स्थायी बस्तियों में रहते हुए थे। उस बस्ती जीवन में शिकार-पशुपालन के कबीलाई जीवन में ओझे-पुजारी ही सभी की जिंदगी को गाइड करते थे। प्रलय का मुहाना-29: सभ्यता मनुष्य की खानाबदोश जिंदगी से निकला जादू-टोना है। पशुगत आदिम प्रवृत्तियों की...

  • सभ्यता है छलावा!

    विकास, स्पेस्क्राफ्ट, सुपर कंप्यूटर, औजारों-वस्तुओं के उपयोग और उपभोग की तमाम आधुनिकताओं-भौतिकताओं का सुख और संतोष है मगर ये सब तब बेमानी हो जाते हैं, जब मनुष्य की पशुताओं का जार्ज ऑरवेल का ‘एनिमल फार्म’ रियलिटी लगता है। जब विक्टर ह्यूगो का ‘ले मिजरेबल्स’ सभ्यता का खोखलापन खोलता है या अलेक्सांद्र सोल्जेनित्सिन का ‘गुलाग आर्किपेलागो’ मनुष्य जनित मनुष्य दमन की पिशाची दास्तां बताता है।..सभ्यता से पहले इंसान सचमुच सहज-सरल स्वभाव का प्राणी था। जबकि सभ्यता के बाद? अहंकार, झूठ, पाप, युद्ध, नरसंहार, गुलाम बनने-बनाने और शोषण जैसी प्रवृत्तियों के दसियों स्वभाव लिए रावण है! प्रलय का मुहाना-28: यों पृथ्वी है...

  • भय, अहंकार और त्रिभुज

    मनुष्य अपने को दोषी कैसे समझे? उसकी बुद्धि का तो समाज, धर्म व राजनीति के त्रिभुज से हरण है। हर मनुष्य त्रिभुज की ओपन जेल का बेसुध प्राणी है। हर बुराई याकि ईविल उसे इसलिए खटकती नहीं है क्योंकि उनका इतिहास व वंशानुगत अनुभवों से साधारणीकरण हुआ पड़ा है। कभी तलवार थी तो अब मिसाइल, बुलडोजर व लाठी है। इसलिए वह जायज है और उपयोगी है। पशुता, ईविल और औजार स्थायी है। पर हां, रूप बदलते हैं। कोई बुराई समाज का सहारा है तो किसी से धर्म को बल है और किसी से राजनीति का जलवा बनता है। प्रलय का...

  • पिंजरा, खुली जेल, कैदी मनुष्य!

    पांच हजार साल पहले मनुष्य जीवन ऑर्गेनिक मौलिकताओं से स्वस्थ और सच्चा था। बिना मानसिक विकारों-विकलांगताओं के था। बुद्धि स्वतंत्र और विवेकी थी। लेकिन मानव इतिहास की नंबर एक त्रासदी है जो बुद्धि के विवेक ने मनुष्य को भटकाया। उसने पशुपालन, शाकाहार के अनुभव में पहले तो प्लांटपालन याकि खेती का आइडिया बनाया। फिर उसकी व्यवस्थाओं में आपसी साझे के ऐसे नियम-कायदे बना डाले, जिनका अंत परिणाम पशुपालन के साथ मानवपालन हुआ। मनुष्य ने बेसुधी में अपने को जानवर बना दिया। अपने एनिमल फार्म बना डाले।...तभी वह गुलामी के असंख्य पिंजरों में है। आठ अरब लोगों का जीवन ओपन जेल...

  • धर्मः झगड़ों की विरासत

    धर्म वह चुंबक है जो लोगों को खींचे रहता है। उन्हें बांधता है। धर्म व्यक्ति और देश के दिमाग में अनुभूतियों से परे जीवन का ख्याल बनवाता है। श्रेष्ठ और खास होने का मुगालता बनाता है। जिंदगी को लाल, काले, पीले धागों में बांधता है। धर्म वह मृग मरीचिका है, जो दिमागी इलहाम को वास्तविक, अर्थपूर्ण बनवाने के लिए मनुष्य को दौड़ाता है। वह मनुष्यों के बाड़े बनवाता है तो समूह, संप्रदाय, संस्कृति के अभिमानी पहाड़ और अंधविश्वासों के अंधकार बनाता है...सवाल है धर्म पर इतना सोचना क्यों? इसलिए क्योंकि इसी से मनुष्य खुद अपना और पृथ्वी का भस्मासुर है।...

  • पत्थर, लाठी, पॉवर!

    पत्थर, मनुष्य का वह पहला हथियार था, जिससे वह पशु जगत का स्वामी बना। ...पत्थर ने मनुष्य की भूख बढ़ाई। आधुनिक वक्त में भी मनुष्य वंशज ‘पॉवर’ (पत्थर, लाठी) की भूख में मरे जा रहे हैं। हर मनुष्य लाठी और पॉवर का आकांक्षी है, भूखा है।...कई मायनों में पत्थर और उसकी ताकत मानव सभ्यता के निर्माण और विकास का आदि व अंत दोनों है। पत्थर के बाद तीर-कमान, भाले, लाठी, तलवार, तोप, मिसाइल का विकासवाद यदि मनुष्य खोपड़ी के दिमाग की उड़ान है तो वैसा होना जहां मनुष्य डीएनए के हिंसक रनवे से उड़ान का टेकऑफ है वहीं घूम-फिर कर...

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