सर्वजन पेंशन योजना
हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।
  • जाबी लगे घोड़ों की चारागाह

    अज्ञेय ने डा. लोहिया की के शब्दों में आलोचना की थी, - “लोहिया की ठेठ भाषा में ऐसे बिंब उभारने की शक्ति है, जिन की छाप मन पर बनी रहे; पर तर्क में जब हम बिंबों और प्रतीकों का सहारा अधिक लेने लगते हैं तब सचाई के खो जाने का खतरा रहता है।”... दरअसलहिन्दू नेताओं में अज्ञान, आलस्य, और आडंबर की ऐसी लत लगी हुई है कि वे आँखों के सामने हो रही को भी अनदेखा करते रहते हैं। वे ‘बुरी बातें न देखने’ वाले गाँधीजी के बंदर बनना पसंद करते हैं। ताकि उन की विवेकहीनता, अकर्मण्यता छिपी रहे, और...

  • कौन भ्रष्टाचार खत्म करना चाहता है?

    भारत में कुछ सत्ताधारी दलों द्वारा भ्रष्टाचार को ऐसा संगठित रूप दे दिया गया है, जिस में ‘पार्टी के लिए’ अरबों-खरबों का भ्रष्टाचार कराने वाले भी स्वच्छ कहे जाते हैं! इस का प्रारंभिक रूप बंगाल में सीपीएम ने बनाया, कि सत्तासीन नेता व्यक्तिगत रूप से ईमानदार दिखते थे, जबकि राज्यतंत्र को ऐसा कर दिया कि किसी का कोई भी काम बिना पार्टी इकाई को चढ़ावा दिए नहीं हो सकता था! उस से सीख कर हरेक दल की प्रतिभाओं ने कीर्तिमान बना डाले – हजारों करोड़ के वारे-न्यारे करके भी वे अपने को राजा हरिश्चन्द्र कहते हैं! जलील की तर्ज पर:...

  • हेट-स्पीच पहले परिभाषित तो करें!

    भारत में  दशकों से आम दृश्य है कि विशेष समूहों, दलों की ओर से जाति, वर्ग, धर्म, आदि संबंधित कितने भी उत्तेजक भाषण क्यों न हों, उस पर तीनों शासन अंग चुप रहते हैं। जैसे, ब्राह्मणों के विरुद्ध अपशब्द कहना आज एक फैशन है जिस में हमारे सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। हमारे देवी-देवताओं को गंदा कहना, किसी महान हिन्दू ग्रंथ को जलाना तक बरोकटोक चलता है। किन्तु अन्य किसी समुदाय या पुस्तक को कुछ कहते ही सभी नाराज होने लगते हैं। ऐसी चुनी हुई चुप्पियाँ और चुना हुआ आक्रोश दिखाना क्या न्याय है? क्या इस से सामाजिक सौहार्द बनता...

  • तो कांग्रेस ही राजनीति का मानदंड है!

    हर छोटे, बड़े मुद्दे पर अपनी कैफियत देने के बदले कांग्रेस के उदाहरणों के पीछे छिपना इसी का एक लज्जाजनक रूप है। संघ-भाजपा अपने विचारों को 'यूज एंड थ्रो' की शैली में थोक भाव में कूड़े में डाल रहे हैं। इस के लिए अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक, पुस्तिकाएं तक थोकभाव में हटा रहे है। भाजपा की ई-लाइब्रेरी में हजारों पुस्तकें हैं। पर उस में डॉ. हेडगेवार, गुरू गोलवलकर, नाना पालकर, एच. वी. शेषाद्रि, गुरूदत्त, या आचार्य रघुवीर की एक भी पुस्तक नहीं है। यानी अपने सब से महत्वपूर्ण, विचारशील नेताओं, संस्थापकों, पार्टी अध्यक्षों, विद्वानों के लेखन को ही अपदस्थ कर दिया।...

  • संघ परिवार : ब्राह्मण-विरोध की धार

    जातियाँ बेशुमार नहीं थी। ई.पू. चौथी सदी में ग्रीक कूटनीतिज्ञ मेगास्थनीज से लेकर हुएन सांग, अल बरूनी, और हाल की सदी तक विदेशियों ने यहाँ गिनती की जातियाँ देखी थीं। सब से पहले 1891 ई. की जनगणना में अंग्रेज अधिकारियों ने असंख्य जातियाँ लिखीं। अगले दो दशक में ब्रिटिश प्रशासक हर्बर्ट रिसले ने तो लगभग ढाई हजार जातियाँ और दर्जनों ‘नस्लों’ तक की सूची बना दी! इस प्रकार, अनेक जातियों, ‘नस्लों’, और कुछ ‘रिलीजनों’ तक का निर्माण किसी हिन्दू पंडित/विद्वान ने नहीं, बल्कि अंग्रेज शासकों ने किया! संघ-भाजपा के नेता मैकॉले, मिशनरी, और मार्क्स को दशकों से कोसते रहे। पर...

  • वात्स्यायन जी (अज्ञेय) और दिल्ली

    कवि अज्ञेय ने अपने अंतिम वर्ष में एक लंबी कविता लिखी थी ‘घर’, जिस में यह पंक्तियाँ भी थीं: ‘‘घर/ मेरा कोई है नहीं/ घर मुझे चाहिए...’’। इस में रूपक और दर्शन, दोनों की अद्भुत प्रस्तुति थी। पर स्थूल रूप से उन के संपूर्ण जीवन पर सरसरी नजर डाल कर दिखता है कि उन का डेरा, या ठौर-ठिकाना सब से अधिक समय और सब से अधिक प्रकार के डेरों में दिल्ली ही रहा। अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभ में, जब वे मात्र उन्नीस वर्ष के थे, तब भी वे दिल्ली में थे, फिर दिल्ली जेल में रहे, और अंततः जीवन...

  • डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले, और कहाँ पहुँचे? (3)

    हेडगेवार की इस आधिकारिक जीवनी से गत नौ दशकों के अनुभवों का मिलान करके एक संक्षिप्त निष्कर्ष तो मिलता ही है: नौ दिन चले, अढ़ाई कोस!...आज विशाल, सत्ताधारी, संपन्न, साधनवान संगठन बन जाने के बाद, उस आक्रामक समूह से लड़ना तो दूर, संघ के विविध नेता उस की ठकुरसुहाती, सिरोपा करते, उन के लिए संस्थान-इमारतें बनवाते और भरपूर अनुदान, और ‘पेंशन’ तक दे रहे है! संघ-परिवार के नेता देशी-विदेशी मुस्लिम नेताओं को खुश करने की खुली चिन्ता दिखाते हैं, और चिंतित हिन्दुओं को फटकारते हैं। इस तरह, संघ से हिन्दू समाज का आशावान बने रहना घातक सिद्ध होता रहा, और...

  • डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले, और कहाँ पहुँचे? (2)

    चाहे आज पूरे देश पर उन के स्वयंसेवकों की सत्ता क्यों न हो! पर वे आज भी मानो बचकर, छिपकर, अंतर्विरोधी, दोमुँही बातें बोलकर ही सब कुछ करते हैं।..अंदर कुछ, बाहर कुछ, तथा कुछ छिपा कर, अधूरी बात बताकर काम करना और लेना मानो उन का स्वभाव बन चुका है। ...उन के नेता, केवल चलते-चलाते जुमले बोलकर निकल जाते हैं, ‘अब समय बदल गया है’ या ‘यह/वह संभव नहीं है’, आदि।...वीर सावरकर ने इस सबको समझ कहा था कि किसी स्वयंसेवक की समाधि पर एक ही अभिलेख होगा: “उस ने जन्म लिया; वह आर.एस.एस. में आया; वह मर गया।”...संघ के...

  • डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले, और कहाँ पहुँचे?

    डॉ. हेडगेवार ने, जाने-अनजाने, इस भ्रम का निराकरण नहीं किया कि संघ अपने आरंभिक कार्य - हिन्दू समाज के शत्रुओं से सीधे लड़ना - छोड़ चुका है। जबकि उसी आरंभिक छवि के कारण संघ के फैलते चले जाने से डॉ. हेडगेवार को अपने ‘संघ-कार्य’ के प्रति बदगुमानी भी हो गई। वे संघ विस्तार को स्वयंसेवकों की संघ-निष्ठा का परिणाम मानते थे। जबकि वस्तुतः सामान्य सचेत हिन्दू और कांग्रेसी, हिन्दू महासभाई, तथा गैर-राजनीतिक बड़े हिन्दू, जैसे राजा लक्ष्मण राव, कृष्णवल्लभ नारायण सिंह (बबुआ जी), आदि एवं कुछ हिन्दू साधु-संत भी संघ को अपने प्रत्यक्ष लड़ाके के रूप में सहयोग दे रहे...

  • बी.बी.सी. से नाहक नाराजगी!

    बी.बी.सी. को ‘गोरे, क्रिश्चियन’, ‘नस्लवादी’, आदि कहकर दोषी दिखाने का प्रयास इसलिए भी निष्फल रहेगा, क्योंकि उस का वही रुख ट्रंप के अमेरिका, पूतिन के रूस, ओबन के हंगरी, आदि के लिए भी रहा है। वे सभी गोरे क्रिश्चियन ही हैं।... ऐसे कृत्रिम दोषारोपण करके निकलने का उपाय हिन्दुओ के लिए विशेष लज्जास्पद है क्योंकि उन की क्लासिक धर्मशिक्षा सत्य पर दृढ़ रहना सिखाती है। उस ठोस आधार को छोड़ कर क्षुद्र प्रपंच, पार्टीबंदी, छाती पीटना, आदि अत्यंत दुखद है। एक डॉक्यूमेंटरी बनाने पर बी.बी.सी. से नाराजगी जताना भारत के लिए सम्मान की बात नहीं। वह एक विश्व-प्रतिष्ठित, पुरानी समाचार-सेवा...

  • संविधान के मूल ढाँचे की व्यर्थ बहस

    डॉ. अंबेदकर ने कहा था: ‘‘राज्य के विभिन्न निकायों के काम सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान एक औजार मात्र है। यह औजार इस काम के लिए नहीं कि कुछ खास सदस्य या खास दल ही सत्ता में बिठाए जाएं। राज्य की क्या नीति हो, समाज की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कैसे संगठित हो – यह सब समय और परिस्थिति अनुसार लोगों को स्वयं तय करना है।..यह पंक्तियाँ साफ दर्शाती हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं के अनुसार न तो संविधान ‘धर्म-ग्रंथ’ है, न उस का कोई ‘मूल ढाँचा’ है, न उस में कुछ भी अपरिवर्तनीय है। किसी भवन के...

  • चंद्रशेखर मजे में, नुपूर खतरे में – क्यों?

    अच्छा हो, कि हमारे सर्वोच्च सांसद, मंत्री, और न्यायाधीश समाज के विवेकशील प्रतिनिधियों को साथ लेकर समरूप विचार-नीति और दंड-नीति बनाएं। जिस से शिक्षा और कानून, तथा राजनीतिक और धार्मिक व्यवहारों पर सभी समुदायों को एक समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। किसी भी बहाने किसी समुदाय को विशेष अधिकार, या किसी को विशेष उपेक्षा न मिले। विशेषाधिकारों का दावा अधिक दूर तक नहीं चल सकता। सब को निरपवाद रूप से मांनना होगा कि ‘दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो अपने लिए नहीं चाहते।’ स्वतंत्र भारत में यह आम दृश्य है कि हिन्दू धर्म, जाति, आदि पर कितने...

  • स्वामी विवेकानन्द: व्यवहारिक जीवन के शिक्षक

    दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में उन  के  शिक्षण को तिरोहित कर उन्हें  मात्र ‘रिलीजियस’ श्रेणी में रख दिया गया। मानो उन की शिक्षाओं की बच्चों, युवाओं को आवश्यकता नहीं।...किन्तु याद  करें,  बरसों  पश्चिम में कीर्ति-पताका फहरा कर जब विवेकानन्द भारत आए, तब  देश भर में घूम-घूम कर उन्होंने आम जनों के बीच व्याख्यान दिए। कोलम्बो, मद्रास से ढाका, लाहौर तक उन के व्याख्यान लाखों लोगों ने सुने। ...विवेकानन्द ने ऐसी अनेक सीख दी, जो नित्यप्रति जीवन में काम आने वाली है। स्वामी विवेकानन्द को केवल धर्म-गुरू समझना एक भ्रामक धारणा है। वे महान शिक्षक थे: भारतीय ज्ञान-परंपरा के व्याख्याता। अमेरिका,...

  • संघ परिवार: अब कुरान का प्रचार!

    इंडियन साइंस कांग्रेस में रा.स्व.संघ के शिक्षण मंडल की संस्था ‘रिसर्च फॉर रिसर्जेंस फाउंडेशन’ ने सोने की स्याही से लिखी एक कुरान को प्रदर्शित किया। इस प्रकार, साइंस के साथ कुरान को स्थान देकर इस के रिसर्जेंस की महिमा भी रेखांकित कर दी! निस्संदेह, संघ परिवार के क्रिया-कलाप, हिन्दू-हित की दृष्टि से, दिनों-दिन भयावह रूप ले रहे हैं। ....यदि संघ-परिवार के रहनुमाओं को इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार-इतिहास का रंच मात्र भी सही बोध होता तो वे कुरान को साइंस सम्मेलन में रखकर गौरवान्वित न होते। अभी नागपुर विश्वविद्यालय में चल रही 108 वीं इंडियन साइंस कांग्रेस में रा.स्व.संघ के शिक्षण मंडल की...

  • संघ परिवार की हिन्दू आलोचना

    संघ-भाजपा नेताओं के क्रिया-कलाप सचेत हिन्दू में भरोसा पैदा नहीं करते। क्योंकि संघ-भाजपा सूत्रधारों ने हिन्दू-विरोधियों से कभी लोहा नहीं लिया। वे शत्रु के नियमों से, शत्रु विचारों, तरीकों की नकल कर, शत्रु के मैदान में ही खेलते रहे हैं। अपनी जमीन, अपने नियम, आदर्श, आदि ‘व्यवहारिकता’ के नाम पर छोड़ दिए, अथवा बनाये ही नहीं! तब नकल करने वाले असल को कैसे हराएंगे? अधिक से अधिक, वे कांग्रेस को हटाकर खुद कांग्रेस बन जाएंगे। जो अभी तक होता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू समाज को 1. सचेत (विजिलेंट)बनाने,और  2. संगठित करने के दो...

  • समान नागरिक संहिता: हिन्दू-हित या चुनावी प्रपंच?

    उचित होगा कि संविधान के अनु. 30  के दायरे में देश के सभी समुदाय और हिस्से सम्मिलित किये जाएं।’’  वह मात्र एक पृष्ठ का, किन्तु अत्यंत मूल्यवान विधेयक था। यदि वही विधेयक हू-ब-हू फिर लाकर पास कर दिया जाए, तो राष्ट्रीय हित के लिए एक बड़ा काम हो जाएगा। उस की तुलना में हिन्दुओं के लिए महत्वहीन ‘समान नागरिक संहिता’ को आज उठाना केवल सांप्रदायिक तनाव उभारने का नुस्खा है। उस से किन्हीं दलों को चुनावी लाभ-हानि भले हो जाए, देश-हित घूरे पर ही पड़ा रहेगा।  हिन्दू समाज पिछले हजार सालों से एक सभ्यतागत युद्ध झेल रहा है। भाजपा-परिवार इस...

  • संघ परिवार– स्वेच्छा से बीमार

    सच तो यह है कि संघ-भाजपा के सत्ता में आते ही संघ-परिवार अपनी पूरी शब्दावली ही बदल लेता है! तब ‘इस्लामी आक्रामकता’, ‘इस्लामी उत्पीड़न’ विषय ही उस के लिए अदृश्य हो जाते हैं, चाहे इस्लामी उग्रता कितनी भी बढ़ती जाए। देश के अंदर ही अनेक स्थानों में हिन्दुओं के सामूहिक उत्पीड़न, विस्थापन, तथा कन्हैयालाल जैसे दर्जनों निरीह हिन्दुओं के लोमहर्षक जिहादी कत्ल पर भी कोई संवेदना नहीं दिखती। आर.एस.एस. की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा प्रयाग में चल रही है। इस अवसर पर उन का बयान हैरतअंगेज है! यह बयान कि, ‘‘मुस्लिम समाज से संवाद का आमंत्रण आया तो संघ विचार...

  • संघ परिवार– दो नावों पर सवार

    संघ परिवार पक्का जातिभेदी भी बन रहा है, और जातियों को खत्म करने का उपदेश भी दे रहा है।.....दुनिया में अंतहीन उदाहरण हैं कि राजनीति कर्म में नीयत या कथनी का कोई मूल्य नहीं। केवल करनी, और करनी का फल ही असली चीज है। लेनिन से लेकर गाँधी, और राजीव से लेकर अटल बिहारी तक ऐसी कथनी-करनियों का इतिहास मौजूद है। जिन्होंने घोषणा एक तरह की, किन्तु उन की करनी का फल कुछ और निकला। अतः धर्म का आडंबर और अधर्म को प्रश्रय देने की चतुराई केवल धर्म की हानि करेगी, और कर रही है। यह हिन्दू समाज पर नित्य...

  • क्या संविधान ‘प्रस्तावना’ की विकृति सुधरेगी?

    संविधान का ‘बुनियादी ढाँचा’ 1950 वाली प्रस्तावना था, और 1976 ई. में किया गया बदलाव उस पर चोट थी। क्योंकि वह कोई भाषाई नहीं, धारणागत संशोधन था। जबकि ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’ कोई नयी धारणाएं नहीं जिन का संविधान निर्माताओं को पता न था। बल्कि ‘सेक्यूलर’ पर तो चर्चा करके छोड़ा गया था। सो, उन्होंने भारतीय गणराज्य को ‘सेक्यूलर’, ‘सोशलिस्ट’ नहीं कहा तो यह सुविचारित था।... जैसे भी देखें, ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’ को प्रस्तावना में जोड़ना संविधान की बुनियाद पर ही चोट थी। उसे न हटाना ही एक मतवादी और हिन्दू-विरोधी जबरदस्ती बनाए रखना है। आशा करें कि भाजपा के सर्वोच्च...

  • हिन्दू नेताओं की इस्लाम-परस्ती

    हिन्दुओं का दुर्भाग्य कि उन के अपने नेता उन्हें जिहादियों के सामने परोस देते हैं, और फिर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। जिम्मेदारी लेने पर तो कुछ करना होगा। सब से पहले, भूल सुधार। किन्तु चूँकि वे इस से बचना चाहते हैं, इसीलिए चुप्पी साध उलटे हिन्दुओं को अरक्षित छोड़ देते हैं। यह पिछले सौ सालों से चल रहा है। अपने अज्ञान में भारत के हिन्दू नेता वैश्विक इस्लामी राजनीति को सर्वाधिक मदद पहुँचाते रहे हैं।  गत सौ सालों में अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी उग्रवाद को खाद-पानी देने में सब से बड़ी भूमिका भारत के हिन्दू नेताओं की है। पहली बार, 1920-22 में...

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