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01-08-2025 Vol 19

‌राष्ट्रवाद यानी जिन्दाबाद-मुर्दाबाद, बस!

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भारत के विश्वगुरु होने की बातें घोर लज्जाजनक हैं! वस्तुत: ज्ञान का दंभ भरना सब से दयनीय है। सवा अरब आबादी के खाते-पीते देश में अब हिन्दी या अंग्रेजी में भी एक भी साहित्यिक/वैचारिक पत्रिका नहीं जो पूरे देश में जानी भी जाती हो। अर्थात्, देश के हर‌ कोने में पहुँच रखने वाला कोई साहित्यिक, वैचारिक मंच तक नहीं। यह दुर्दशा अंग्रेजी राज में कतई न थी। आज कोई हिन्दी टीवी चैनल भी नहीं जिस से प्रतिदिन देश-विदेश के महत्वपूर्ण समाचार भी मिलें। हमारे यहाँ सिर्फ तमाशा, चीख-पुकार, तू-तू-मैं-मैं का रेला भर है।

राष्ट्रवाद एक रोग-नशा है, जिस से देश के लोग ग्रस्त हैं। इस ने हर बात ‘हम’ और ‘वे’ में बाँट कर देखना सिखाया। धर्म-अधर्म के आधार पर नहीं, राजनीतिक भेद-स्वार्थ पर। इसी भावना में अपनी दुर्बलताओं, समस्याओं का दोष विदेशियों को देना। किसी प्रमाण की परवाह न करना, न हालात बदलने की चिन्ता। बस, जिस किसी की भरपूर निन्दा और आत्मश्लाघा – यही मूल टेक अधिकांश विमर्श में मिलती है। चाहे वह राजनीतिक भाषण हो या अकादमिक पर्चा। बल्कि इन में भेद भी धुँधला हो चुका है।

उदाहरणार्थ, जो काम देसी शासक बढ़-चढ़कर अठहत्तर वर्षों से कर रहे – उस का दोष भी 166 वर्ष पहले दिवंगत हुए विदेशी को दिया जाता है! जबकि देसी नीतियों से हमारी भाषाएं और अब तो लिपि भी निरंतर क्षीण हो रही है। जो उस में निहित संस्कृति के ही लोप होने की पूर्व-सूचना है। पर इस पर संसद‌ से‌ लेकर अकादमियों में कभी नोटिस भी लिया गया? जबकि आई.के.एस. (‘भारतीय ज्ञान’ का मुहावरा भी अंग्रेजी के अनुवाद से!) का डंका बजाने में करोड़ों रूपए और मानव घंटे नियमित नष्ट किये जा रहे है। ताकि एक राजनीतिक दल-संगठन भोले-भाले युवाओं को लुभा सके। उस प्रोपेगंडा से किसी और प्राप्ति की परवाह भी नहीं। भारतीय ज्ञान का डंका इसलिए बजाना ताकि और‌ लोग भी डंका बजाएं। वह ज्ञान किधर है, उस में किन बातों की, कहाँ प्रासंगिकता है, उस का उपयोग राष्ट्रीय नीति-निर्धारण और जीवन में कैसे होना है? – यह सब मोटे प्रश्न भी संसद से‌ लेकर नीति-दस्तावेज तक गधे के सिर से सींग की तरह गायब हैं। क्यों कि डंका, प्रोपेगंडा मात्र ही आदि अंत है।

अतः भारत के विश्वगुरु होने की बातें घोर लज्जाजनक हैं! वस्तुत: ज्ञान का दंभ भरना सब से दयनीय है। सवा अरब आबादी के खाते-पीते देश में अब हिन्दी या अंग्रेजी में भी एक भी साहित्यिक/वैचारिक पत्रिका नहीं जो पूरे देश में जानी भी जाती हो। अर्थात्, देश के हर‌ कोने में पहुँच रखने वाला कोई साहित्यिक, वैचारिक मंच तक नहीं। यह दुर्दशा अंग्रेजी राज में कतई न थी।

आज कोई हिन्दी टीवी चैनल भी नहीं जिस से प्रतिदिन देश-विदेश के महत्वपूर्ण समाचार भी मिलें। तुलना में यूरोप, अमेरिका में उन की भाषाओं में न केवल अखिल राष्ट्रीय अनेक साहित्यिक, बौद्धिक पत्र-पत्रिकाएं, अपितु उन के टीवी चैनल सदैव ठोस, संयत, प्रमाणिक समाचारों, ज्ञानवर्धक डॉक्यूमेंट्रियों से भरे होते हैं। पर हमारे यहाँ तमाशा, चीख-पुकार, तू-तू-मैं-मैं का रेला भर है। अधिकांश चैनल बारहों महीने, चौबीसो घंटे किसी मामूली या झूठी बात को भी जोर-जोर से फैलाने में लगे मिलते हैं। क्या बीबीसी या सीएनएन में ऐसा है? यदि नहीं तो इस का दोष भी पंडित नेहरू या लॉर्ड डफरिन को दें?

हमें सारी गड़बड़ी या तो सामान्य, या फिर विदेशियों की करतूत लगती है जो भारत से ‘जलते’ और ‘डरते’ हैं। हम यही मान कर, और किसी न किसी देसी राजनीतिक दल को कोस कर संतुष्ट रहते हैं। हर बात में ‘हम सही’ और‌ ‘वे गलत’ वाली टेक। यह मूलतः राष्ट्रवाद का रोग है, जिस ने हर समस्या का दोष अंग्रेजों को‌ देने के आसान नारे से एक झूठा बौद्धिक आडंबर खड़ा किया था। तभी से हमें सोचने-परखने से छुट्टी हो गई। जिन्दाबाद-मुर्दाबाद ने सारा स्थान ले लिया। परदोषारोपण धीरे-धीरे सनक में बदल गया। आज वह पागलपन की हद में पहुँच रहा ह।

उसी रोग के दुष्प्रभाव में साहित्य, समाज, आदि हर विषय में रुटीन अहंकार व द्वेष प्रदर्शन, तथा सूक्ति-श्लोक दुहराना ही विद्वता है। भारतीय परंपरा ‘ऐसी’, और पश्चिम की ‘वैसी’;  ‘हम’ ऊँचे और‌ ‘वे’ नीचे;  भारत में हर गड़बड़ी का दोष अलाँ, फलाँ देश, या विदेशी एजेंसी, या उन के ‘एजेंट’ जो यहाँ अमुक दलों के लोग हैं।

यही आज यहाँ प्रमुख स्वर है जो सोशल मीडिया में प्रमुखता से और अन्यत्र भी भरपूर है। नीतियों और व्याख्यानों में सदिच्छाएं और सपाट घोषणाएं उसी क्रम में है, जो गाँधी-युग से चल रहा है। राष्ट्रवाद का नशा करने के बाद से ही भारतीय बुद्धि फतवेबाजी में डूब गई। मोटे तौर‌ पर 1910-15 तक भारतीय मनीषियों, कवियों, नेताओं के स्वर में तथ्यपरकता, विवेकशीलता, सार्थक प्रस्तुति, ज्ञानपरक दृष्टिकोण मिलता है। तिलक या श्रीअरविन्द के भाषण, लेखन उलट कर देख लीजिए।

वह दृष्टिकोण राष्ट्रवादी आंदोलन के उभार के साथ उलटता चला गया। लफ्फाजी और परदोषारोपण मुख्य टेक बनता गया। गाँधीजी ठसक से कह देना पर्याप्त मानते थे कि ‘हिन्दू-मुस्लिम विरोध अंग्रेजों की देन है’। धीरे-धीरे वैसे ही फतवे देना हर बात में देना राष्ट्रीय अंदाज बन गया है।आरोप लगा देना, और ऊँची हाँक देना संपूर्ण वक्तव्य माना जाता है। फलाँ ‘बिका हुआ’, अलाँ ‘राष्ट्रद्रोही’, यह अमुक एजेंसी ने करवाया, या ‘हम आज दुनिया को सिखा रहे’, आदि किसी दावे के लिए प्रमाण देखने-परखने की बात ही दिमाग में नहीं आती। हर बात पर घोषणाएं कर देने वाले ही चिंतक कहे जाते हैं। देश में सब लोग बड़े-छोटे गाँधी हैं।

इसीलिए प्रोपेगंडा एक राष्ट्रीय रोग बन चुका है। इस हद तक कि यदि कोई किसी भी दावे के लिए प्रमाण पूछे तो उसी को संदिग्ध समझा जाता है। यह रोगी मानसिकता राष्ट्रवाद की देन‌ है। तभी टैगोर जैसे संवेदनशील कवि ने क्रोध से इस पर चेताया था! ‘नेशनलिज्म’ पर उन के तीनों व्याख्यान (१९१६) आज भी सामयिक हैं, और राष्ट्रवाद की हानियों पर सभी चेतावनियाँ सही साबित होती मिलती हैं।

पर प्रोपेगंडा यदि राजकीय शक्ति-संसाधनों से पोषित, प्रेरित हो, तब उस से बचना सामान्य जनों के लिए असंभव है। लोग स्वभाव से ही सीमित जानकारी वाले और विश्वासी होते हैं। वे राजकीय,‌ शैक्षिक, मीडिया तंत्र द्वारा फैलाई बातें मानते हैं। फिर उस में अहंकार भी जुड़ जाता है। हर बात ‘हम’ और ‘वे’ में बाँटने का यह दुष्परिणाम सहज है। देशवासी ‘हम’ की भावना से जुड़ना सहज मानते हैं। उसी रौ में  ‘वे’ को‌ दोष देना भी। इस के बाद धूर्त नेताओं, उन के समर्थकों के लिए कुछ भी फैलाते रहना सरल है। इक्के-दुक्के शंकालुओं की बात अनसुनी रहती है। प्रोपेगंडा और पुरस्कार का दबाव बहुत भारी ठहरता है।

इसीलिए, आज आई.के.एस. का डंका बजाना ही राष्ट्रवादी चिंतन है! हर लेख या भाषण में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को नारे-सा लहरा देना ही प्रमाण समझा जाता है कि भारत सब की चिन्ता करता, प्रकृति से प्रेम रखता है। जबकि यूरोप, अमेरिका संकीर्ण, लुटेरे हैं जो दुनिया पर कब्जा व दोहन के सिवा कोई उद्देश्य नहीं रखते। स्वयंसिद्ध। यही राष्ट्रवाद है। पार्टी-वाद इसी सिक्के का दूसरा पहलू है: अपने दल की बड़ाई और दूसरे पर लांछन। यहाँ अधिकांश विचार-विमर्श अब यही है। सत्यार्थी के लिए स्थान नहीं। पार्टी-बंदी सर्वग्रासी हो चुकी है। आज के राष्ट्रवादी अबोध लड़के-लड़कियों, नवयुवाओं को दो दिन के आडंबरी सम्मेलन से ‘थिंकर’ होने के बहाने पार्टी-प्रचारक बनाकर उन के मानस को विकृत कर रहे हैं। ऐसा अपराध, सत्यानाश यहाँ अंग्रेजों ने कभी नहीं किया था।

इसीलिए हमें अपने ही अंतर्विरोध तक नहीं दिखते। जो शेखी बस संस्कृत सूक्तियाँ दुहरा-दुहरा कर बघारते हैं, वह हमारी आर्थिक, शैक्षिक, वैदेशिक नीतियों में कहीं नहीं दिखती! नीतियों में वही पश्चिमी फैशन कूट-कूट कर भरा मिलता है। सोशलिज्म, नेशनलिज्म, डेमोक्रेसी, सेक्यूलरिज्म, डेवेलपमेन्ट, एनवायरमेंट, माइनॉरिटी, ह्यूमन राइट्स, चाइल्ड राइट्स, डिप्राइव्ड सेक्शंस, इन्कलूसिवनेस, डिफेरेन्टली एबल्ड, थर्ड जेंडर, आदि आदि। सब की सब पश्चिमी नकल, एक भी अपना सोचा नहीं। इन्हीं धारणाओं के अनुरूप सभी कानून, निर्देश, कार्यक्रम, दावे, शोध, शिक्षण हो रहे हैं।

परख कर देखें – संस्कृति या विकास, शिक्षा या अर्थनीति, विज्ञान या तकनीक, साहित्य या कला, वातावरण या पर्यावरण – किस चीज में हम ने गत अठहत्तर सालों में कोई ऐसी चीज रखी जो भारतीय नियंताओं की अपनी भी सोची हुई है? केवल नकल की आदत के साथ अपनी श्रेष्ठता की डींग हाँकना ही स्वतंत्र भारत है। हम ने आदतन उपदेश, शेखी, बहानेबाजी, कुर्सी-लिप्सा, दोहरापन, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजा-संगठनवाद, आदि के सिवा कुछ विशेष नहीं दिखाया। यह सब बुराईयाँ पश्चिम में हम से बहुत कम हैं।

निस्संदेह उद्योग, व्यापार, कृषि, और चिकित्सा जगत की उपलब्धियाँ हैं। पर इस में उसी पश्चिम की शैक्षिक, वैज्ञानिक-तकनीकी, संस्थानिक और वित्तीय सहायता का भी बड़ा योगदान रहा। सालाना हमारे प्रतिभावान हजारों की संख्या में बेहतर शिक्षा और अवसर के लिए पश्चिम चले जाते हैं – जब कि उस हेतु पश्चिम से कोई यहाँ नहीं आता? क्या इस में कोई जबरदस्ती है, या सब स्वेच्छा से हो रहा है?

शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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