पौराणिक मान्यता के अनुसार, ब्रह्मा, विष्णु और महेश—इन त्रिदेवों की संपूर्ण सृष्टि के संचालन में अपनी-अपनी भूमिका है। ब्रह्मा सृजनकर्ता हैं, विष्णु पालनकर्ता, और शिव संहारक। ऋषियों, मुनियों, देवताओं, असुरों और मनुष्यों द्वारा इन त्रिदेवों से वरदान और दिव्य अस्त्र-शस्त्र पाने की असंख्य कथाएं पौराणिक ग्रंथों में अंकित हैं। इनमें से शिव अपने सहज वरदानी स्वभाव के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। वे देव हों या दानव—सबको समान भाव से वरदान देते हैं।
भोलेनाथ, जो सहज-सरल भाव में पूजे जाते हैं, वही जब रुद्र रूप में आते हैं तो दुष्टों के लिए संहारक बन जाते हैं। उनका एक अत्यंत भयानक अस्त्र है—रौद्रास्त्र, जो ग्यारह रुद्रों में से एक की शक्ति का आह्वान करता है और लक्ष्य को भस्म कर देता है। भगवान शिव के अनेक अस्त्र-शस्त्र ऐसे हैं जो संपूर्ण विनाश करने में सक्षम माने जाते हैं—जैसे रौद्रास्त्र, महेश्वर अस्त्र, चंद्रहास तलवार, पाशुपतास्त्र, त्रिशूल, पिनाक धनुष, और परशु।
ऐसी मान्यता है कि शिव के इन दिव्यास्त्रों के प्रयोग मात्र से शत्रु या राक्षस वर्ग का अस्तित्व समाप्त हो सकता है।
पिनाक: शिव का प्रलयंकारी धनुष
पौराणिक ग्रंथों में शिव के धनुष—पिनाक—का वर्णन विशेष रूप से मिलता है। यही शिव धनुष त्रेतायुग में सीता स्वयंवर का कारण बना। यह धनुष इतना शक्तिशाली था कि इसकी टंकार से पर्वत हिलने लगते थे, बादल फट जाते थे, और पृथ्वी कांपने लगती थी। इस धनुष के कारण ही शिव को “पिनाकी” कहा गया।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, देवताओं का काल समाप्त होने पर इस धनुष को देवताओं ने पृथ्वी को सौंप दिया। राजा जनक के पूर्वजों में से राजा देवरथ को यह प्राप्त हुआ। कालांतर में, यही वही धनुष बना जिसे उठाने और प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त पर राजा जनक ने सीता का स्वयंवर रचा। अयोध्या के राजकुमार श्रीराम ने इसे प्रत्यंचित किया और विवाह सम्पन्न किया।
आज के युग में भी भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन (DRDO) ने इसी पिनाक धनुष की सांस्कृतिक महत्ता को ध्यान में रखते हुए अपने बहु-नाल रॉकेट लांचर का नाम “पिनाक” रखा है।
पिनाक और सारंग: शिव-विष्णु का युद्ध
कई पौराणिक स्रोतों में उल्लेख है कि देवताओं ने दो समान क्षमता वाले धनुष—सारंग और पिनाक—निर्मित करवाए। एक शिव को मिला, दूसरा विष्णु को। ब्रह्मा ने जानना चाहा कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है, इसलिए युद्ध की योजना बनी। किंतु आकाशवाणी ने युद्ध रोक दिया। रुद्र ने अपना धनुष पृथ्वी पर फेंक दिया—वही पिनाक बना।
रामायण के बालकाण्ड के अनुसार, जब परशुराम ने श्रीराम को चुनौती दी, तो राम ने विष्णु का धनुष शारंग उठा लिया, उसे प्रत्यंचित कर तीर चढ़ाया और परशुराम से पूछा कि लक्ष्य क्या हो। उसी क्षण परशुराम को बोध हुआ कि श्रीराम कोई सामान्य योद्धा नहीं, स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं।
त्रिशूल: तीन कालों का संहारक
शिव के हाथों में सदा विराजमान त्रिशूल न केवल एक शस्त्र है, बल्कि एक दिव्य प्रतीक भी है। यह तीन गुणों—सत्व, रजस और तमस—का प्रतीक है, साथ ही भूत, वर्तमान और भविष्य का भी द्योतक है। जब शिव इसका प्रयोग करते हैं, तो यह संपूर्ण ब्रह्मांड को कंपा देता है। इसकी मारक क्षमता इतनी है कि इसे चलाने पर कोई भी देव, दानव, या असुर इससे बच नहीं सकता।
तृतीय नेत्र और महेश्वर अस्त्र
शिव का तृतीय नेत्र ही महेश्वर अस्त्र है—जो शिव के भीतर छिपे क्रोध और अग्नि की ज्वाला का प्रतीक है। इससे निकलने वाली उग्र ऊर्जा दिव्य प्राणियों तक को राख कर सकती है। इसमें सम्पूर्ण सृष्टि को भस्म करने की शक्ति निहित है।
पाशुपतास्त्र: परम परमाणु अस्त्र
पाशुपतास्त्र को मन, वाणी, नेत्र या धनुष से चलाया जा सकता था। यह शिव का सबसे शक्तिशाली अस्त्र माना जाता है। तीनों लोकों में कोई भी जीव इससे नहीं बच सकता। रामायण में यह अस्त्र मेघनाद के पास था, और महाभारत में शिव ने यह अर्जुन को प्रदान किया था।
परशु और टांगीनाथ की कथा
भगवान शिव का एक और अस्त्र—परशु—उन्होंने विष्णु के अवतार परशुराम को प्रदान किया था। जनश्रुति है कि सीता स्वयंवर के बाद लक्ष्मण से विवाद के कारण आत्मग्लानि से ग्रस्त परशुराम झारखंड के डुमरी (गुमला) स्थित लुचुत पाट की पहाड़ी पर पहुंचे, जहां उन्होंने अपने परशु को पृथ्वी में गाड़ कर तपस्या की। यही परशु आज भी “टांगीनाथ धाम” में प्रतिष्ठित माना जाता है। लोकभाषा में “परशु” को “टांगी” कहा जाता है—और वहीं स्थित है भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर भी।
शिव, शस्त्र और संस्कृति
भगवान शिव के ये अस्त्र केवल पौराणिक कल्पनाएं नहीं हैं—बल्कि वे भारतीय संस्कृति, शौर्य और आत्मबोध का रूपक भी हैं। उनका त्रिशूल हो या पिनाक, पाशुपतास्त्र हो या महेश्वर दृष्टि—हर अस्त्र एक चेतावनी है, एक तांडव का प्रतीक, एक अंततः शिव में ही विलीन होने वाली ऊर्जा।


