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स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।
  • द्वारपाल-मुक्त कांग्रेस की स्थापना का समय

    आपस में ही एक-दूसरे को नेस्त-ओ-नाबूद करने में लगे हुए अपने अगलियों-बगलियों की असलियत अगर राहुल-प्रियंका को ठीक से मालूम हो जाए तो, मुझे लगता है कि, वे ख़ुद ही बैरागी हो जाएं। क़रीब चार साल पहले राहुल अर्द्ध-संन्यासी कोई ऐसे ही नहीं हो गए थे। तब उन्होंने खुल कर कहा था कि 2019 के आम चुनाव में कई बार उन्हें गहरा अहसास हुआ कि वे तक़रीबन अकेले ही यह युद्ध लड़ रहे थे और उनकी पार्टी तक पूरे मन से उनके साथ नहीं थी। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि दुनिया-जहान की ख़बरें रखने वाले और बचपन से...

  • नरेंद्र भाई नौ साल चले अढ़ाई कोस

    नरेंद्र भाई के राज में जो हुआ है, उसे बहुत बढ़-चढ़ कर दिखाया गया है। जो नहीं हुआ है, उसे बहुत बढ़-चढ़ कर दबाया गया है। यह दौर मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कडवा थू की राह पर चलने का था। अगले चुनावों तक यह राह और तेज़ रफ़तार से तय होगी। लेकिन मौजूदा सरकार की इस ठेंगा-शैली ने जन-मन में उकताहट की एक मोटी परत जमा दी है। सो, यह चुप्पी जब टूटेगी तो सैलाब-सा आएगा। नौ साल में चले अढ़ाई कोस के अनवरत महिमामंडन का गुब्बारा लिए आख़िर कोई कितने वक़्त कुदकता रह सकता है? लोकसभा का कार्यकाल आज से...

  • लोकतंत्र की अफ़ीम के चटोरों का देश

    तो राजनीति अगर शुद्ध-सेवा है और अगर हमारे राजनीतिक इस पवित्र भाव में सराबोर हो कर सेवक बनने की होड़ में लगे हैं तो फिर तो भारत-भूमि धन्य-धन्य है कि हमें ऐसे जन-प्रतिनिधि मिले हैं। हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे राजनीतिक दल मिले हैं और उन राजनीतिक दलों के ऐसे आलाकमान मिले हैं, जो सुनिश्चित करते हैं कि हर चुनींदा सहयोगी को बारी-बारी से सेवा का मौका मिले। सबको बराबरी के अवसर देने का धर्म निभाने के लिए उनका अभिनंदन होना चाहिए। लोकतंत्र में जन-निर्वाचन के ज़रिए चुन कर आए सेवा-उद्यत प्रतिनिधियों की दो टोलियां अपने-अपने मुखियाओं को कबीले...

  • इतना भी क्या चुनाव-पिपासु होना नरेंद्र भाई!

    कर्नाटक का आज का रुख तय करेगा कि दक्षिण-विजय के नरेंद्र भाई के सपने का आगे क्या होने वाला है? दक्षिण में कर्नाटक से ज़्यादा उम्मीद भाजपा फ़िलहाल और कहां से लगा सकती है? अगर कर्नाटक ने भाजपा को आज नाउम्मीद कर दिया तो तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्यों उसे गले लगाने को हुलसेंगे? तब दक्षिण का रास्ता भाजपा के लिए आज के बाद और लंबा हो जाएगा।वैसे तो पिछले नौ साल में नरेंद्र भाई ने प्रादेशिक चुनावों के प्रचार में अपनी भागदौड़ की झड़ी लगा रखी है, मगर कर्नाटक में अपने प्रधानमंत्री का भीषण चुनाव-पिपासु रूप देख...

  • सितमगर से इश्क़ के ख़ब्ती दौर में

    अपने पर अत्याचार करने वाले को ही प्रेम करते रहने की गाथाएं भारतीय समाज में कोई कम तो नहीं हैं। जो जान निकाले रहते हैं, उन्हीं पर जान छिड़कते रहने वाली सूक्तियों को आपने भी यहां-वहां देखा होगा। रोज़ किसी न किसी से आप भी सुनते होंगे कि मारता है, पीटता है, लेकिन घर भी तो वही चलाता है। यह भाव भारतीय मानस में भीतर तक घुसा हुआ है। ऐसे भी हैं, जो मारते हैं, पीटते हैं, घर भी नहीं चलाते, उलटे परिश्रम कर के लाई पत्नी के पैसे भी उड़ा देते हैं; लेकिन कितनों को कोई बाहर का रास्ता...

  • मटरगश्ती और विवशता के बीच झूलते हम

    हम दो पाटों के बीच फंसे हुए हैं। एक पाट दूसरों को घेर कर तालठोकू अंदाज़ में सब-कुछ चला रहा है। दूसरा पाट दूसरों से घिर कर विवश-मुद्रा में जैसे-तैसे ख़ुद चल रहा है। सो, आइए, दोनों के बीच, हम-आप किसी-न-किसी तरह अपने को साबुत बचाए रखें।…हम ने जो बोया है, वही हम काट रहे हैं। आगे भी जो हम बोएंगे, वही काटेंगे। इस में किसी और को क़ुसूरवार मत ठहराइए। यह पतंग आप ने ही उड़ाई है। इसे उड़ाते वक़्त अगर आप छत की मुंडेर से गिर पड़े हैं तो इल्ज़ाम दूसरों पर क्यों मढ़ रहे हैं? पिछले एक...

  • योगी के प्रति मुग्ध भाव का नया समाजशास्त्र

    भारत के 97 करोड़ हिंदुओं में से 40 फ़ीसदी को भी अगर मैं पूरी तरह मतांध-विरोधी मान लूं तो भी 50 करोड़ से ज़्यादा हिंदू ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिल-दिमाग़ पर ताले लटका लिए हैं। वे वही सुन रहे हैं, जो उन्हें सुनना है; वे वही देख रहे हैं, जो उन्हें देखना है; और, वे वही बोल रहे हैं, जो उन्हें बोलना है। दो, उन के मन-मस्तिष्क बदल देने का माद्दा रखने वाला फ़रिश्ता अभी तो दूर-दूर तक आसमान से उतरता दिखाई नहीं देता। हमारे समाज का पिछले एक दशक में जैसा (कु)रूपांतरण हुआ है, उस ने अतीक अहमद प्रसंग...

  • एकता के सात फेरे और एक अदरक-पंजा

    अजूबा तभी होगा, जब प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं के चेहरे यक-सां होने के साथ-साथ उन सभी के ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मन भी आपस में घुलमिल जाएं। क्या यह आसान होगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, मार्क्सवादी पार्टी और कांग्रेस के जन-जन एक-दूसरे के लिए रूह-अफ़ज़ा हो पाएंगे? क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के पट्ठे गलबहियां कर घूमने लगेंगे? क्या केरल में वाम दलों और कांग्रेस के धरतीपुत्र मिलजुल कर चुनावी खेत में हल चला लेंगे? बुधवार को कांग्रेस-अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पूर्व-अध्यक्ष राहुल गांधी से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार...

  • जमूरों के भरोसे चलता आभासी-संसार

    अब राहुल हों या नरेंद्र भाई, इतना बड़ा देश है, किस-किस को फॉलो करें? जिसे न करें, वही मुंह फुला लेगा। एक अनार, सौ बामारों का कैसे इलाज़ करे? इसलिए अपने अनुगामियों की तुलना में नरेंद्र भाई सिर्फ़ 0.003 प्रतिशत लोगों को और राहुल महज़ 0.001 फ़ीसदी लोगों को ही फॉलो करते हैं। मैं तो मानता हूं कि इतना बड़प्पन दिखाना भी जनतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए काफी है। वरना संसार के सब से बड़े लोकतंत्र का राष्ट्रपति को पूरा ठेंगा ही दिखाए बैठा है। आप ही की तरह इतनी तो अक़्ल मुझ में भी है कि मैं समझ...

  • नक्कालों की नाली में बहता राहुल का पसीना

    कांग्रेस आज जन-विश्वास के नहीं, परस्पर-विश्वास के संकट से जूझ रही है। जन-जन का भरोसा कांग्रेस से उठा नहीं है। नरेंद्र भाई के राजकाज की शैली ने दरअसल उसे कांग्रेस के प्रति पिछले कुछ बरस में बढ़ाया ही है। लेकिन कांग्रेस के भीतर एक-दूसरे पर भरोसा तक़रीबन ढह गया है। जितना नरेंद्र भाई कांग्रेसियों को नहीं मार रहे हैं, उस से ज़्यादा तो कांग्रेसी आपस में एक-दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं। या तो कांग्रेसी अपने को पूरी तरह राहुल गांधी पर छोड़ दें या राहुल गांधी ख़ुद को पूरी तरह कांग्रेस पर छोड़ दें - इसके अलावा कांग्रेस के...

  • तवारीख़ी तहरीर बदलने की ख़ुशबू

    मेरा मानना है कि लोकसभा से राहुल की सदस्यता ख़त्म करने के फ़ैसले ने सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के निर्वाण के सफ़र की दूरी अब बहुत छोटी कर दी है। सियासत तकनीकी दांवपेंच का खेल नहीं होता है। बहानों के जाल बिछा कर अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने की कुचालें दीर्घकालीन राजनीति में उलटबांसी साबित होती हैं। इसकी एक नहीं, कई मिसालें भारतीय राजनीति ने देखी हैं। सियासी कुरुक्षेत्र में तो मुकाबला आमने-सामने का होता है। सो, मान कर चलिए कि राहुल का निष्कासन अब सड़क को ही संसद बना देगा। पहले मुझे ‘दो जिस्म, एक जान’ वाले कथन...

  • वह काला अध्याय और यह काला अध्याय

    राहुल गांधी को लोकसभा से निष्कासित करने की बातें उड़ाई जा रही हैं। लेकिन आपातकाल के वक्त को याद करें। सुब्रह्मण्यन स्वामी की सदस्यता खत्म करने के लिए प्रस्ताव आया था तो उसमें तीन मुख्य आरोप थे। देश-विदेश में भारत विरोधी प्रचार करने का आरोप तीसरे क्रम पर था। उनके मसले पर राज्यसभा में लंबी बहस हुई।.... आखिर में ओम मेहता ने स्वामी को सदन से निष्कासित करने का प्रस्ताव पेश किया। स्वामी के ख़िलाफ़ आरोप क्रमांक-3 को प्रस्ताव से हटा दिया गया। यानी उन पर विदेशों में भारत के खि़लाफ़ प्रचार करने की तोहमत नहीं लगाई गई।... क्यों? इसलिए...

  • नरेंद्र भाई के सौ अपकर्म और एक सत्कर्म

    एक बात के लिए तो नरेंद्र भाई को दाद भी देनी पड़ेगी कि उन्होंने भाजपा में परिवारवाद का तक़रीबन अंतिम संस्कार कर दिया है। 2024 आते-आते वे भाजपा में परिवारवाद के बचे-खुचे टीलों को भी ध्वस्त कर डालेंगे। भले ही वे ऐसा इसलिए कर पाए हों कि उनका ख़ुद का परिवार है नहीं और अपने भाई-बहन के परिवारों में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, मगर किसी राजनीतिक दल को पारिवारिक विरासत की कुरीति से मुक्ति दिलाने का काम ख़ुशनुमा वादियों की सैर नहीं है। भारत में ऐसा कौन-सा राजनीतिक दल है, जो गले-गले तक नही तो टखनों-टखनों तक परिवारवाद...

  • प्रधान-मंत्री कोई हो, प्रधान-मंत्र अब राहुल हैं

    जिस दिन राहुल का सूर्य उत्तरायण होगा, वे किसी का विकल्प नहीं, मौलिक-कृति होंगे। ऐसा जब भी होगा, प्रकृति भारत का नया भाग्य रचेगी। तब तक के लिए हम-आप यही कामना कर सकते हैं कि राहुल को अपनी आस्तीनें बलाओं से मुक्त बनाए रखने की सन्मति और शक्ति मिले, झाड़फूंकी-टोटकेबाज़ों को वे अपने से दूर बनाए रख सकें और कनखजूरों को झटक कर परे फेंक पाएं। इतना भर हो जाए तो सब हो जाए! भारत जोड़ो यात्रा से अपने लिए ग़ज़ब की निजी साख़ हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने रायपुर के कांग्रेस महाधिवेशन में अपनी भावनाओं का मार्मिक...

  • घनचक्करी झूले पर झूलता कांग्रेस अधिवेशन

    मुझे लगता है कि आज़ादी के बाद हो रहा 31वां कांग्रेस-अधिवेशन अब तक का सबसे नीरस और निरर्थक आयोजन साबित होने वाला है।... मैं अब आश्वस्त होता जा रहा हूं कि राहुल गांधी के पसीने की बूंदों को सहेज कर संगठन के खेत की सिंचाई करने में आज की कांग्रेसी-टोली की कोई दिलचस्पी नहीं है। उनमें से ज़्यादातर की दिलचस्पी ख़ुद के अलावा किसी चीज़ में नहीं है। रायपुर में होने वाला 85 वां कांग्रेस-अधिवेशन घनचक्करी झूले पर झूलता दिखाई दे रहा है। मौका मिलते ही राहुल गांधी की हर पुण्याई में मट्ठा डालने की आतुरता पाले बैठा झुंड सतह...

  • खुल्लमखुल्ला बेपर्दा हुए पर्दानशीं

    बुधवार को लोकसभा में और बृहस्पतिवार को राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषणों का पोलापन आराधकों के लिए हो-न-हो, मेरे लिए तो सचमुच बेहद फ़िक्र की बात है। ख़ासकर राज्यसभा में तो विपक्ष ने जिस तरह प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान पूरे 88 मिनट बिना सांस लिए नारेबाज़ी की, उसे देख कर ऐसे सब लोगों का माथा ठनक गया है,...विपक्ष की त्योरियों ने संसद की गोल दीवारों पर यह इबारत उकेर दी है कि बहुत हुआ, लोकसभा और राज्यसभा को अप्रासंगिक बनाने की हुक़्मरानी कोशिशों को अब वह बर्दाश्त नहीं करेगा। नरेंद्र भाई मोदी मानेंगे नहीं, मगर इस सप्ताह के मध्य...

  • ’चश्मदीद का बहीखाता’ पन्ने-दर-पन्ने

    सरे राह चलते-चलते यूं ही ऐसे-ऐसे मिल गए कि मेरे पास इतने सकारथ संस्मरण इकट्ठे हो गए हैं कि, लगता है, अब मैं उन्हें एक-एक कर लिखना शुरू करने का हक़दार बन गया हूं। लेकिन ज़रा-सी हिचक अब भी बाकी है। संस्मरण-लेखन फूलों की सेज पर गुलाटी खाने का कर्म नहीं है। वह तो दुधारी तलवार पे धावनो है। इस तलवार की धार पर चलूं कि न चलूं? ...लेकिन लिखना ही है तो यह सब क्या सोचना? लिखना ही है तो गोलमोल क्यों लिखना? काहे की उपन्यास शैली? कहानी, कविताओं और उपन्यासों से बात बनती तो फिर बात ही क्या...

  • भोंपू-पत्रकारिता का अमृत-दशक

    सब-कुछ कुछ मुट्ठियों में जा रहा है और सब ख़ामोश बैठे हैं। चंद कंगूरे सब-कुछ लील रहे हैं और सब चुप्पी साधे हैं। इनेगिने सब-कुछ हड़प रहे हैं और सब मौन धारे हैं। समाचार-कक्ष बारात के बैंड-बाजे में तब्दील हो गए हैं। बाकी मुल्क़ ‘आज मेरे यार की शादी है’ की धुन पर नाचता ही चला जा रहा है।...इतना सन्नाटा तो श्मशान में भी नहीं होता है, जितना इन दिनों हमारे मन-मस्तिष्क में है।...यह गर्व की बात है या शर्म की कि जिन तीन वर्षों में देश की 60 फ़ीसदी आबादी मुफ़्त राशन की मेहरबानी पर ज़िंदा है, उन तीन...

  • खम्मम के शिगूफ़े का पेच-ओ-ख़म

    सकल-विपक्ष की घालमपेल ही नरेंद्र भाई की आस का तिनका है। विपक्ष जितना बिखरेगा, उतना ही वे निखरेंगे। खम्मम नरेंद्र भाई को नहीं, राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की पेशकश थी। वह नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के वैकल्पिक चेहरे को भी कुचलने की कोशिश थी। ग़ैर-कांग्रेसी विकल्प का कोलंबस बनी घूम रही त्रिमूर्ति का हर चेहरा मन-ही-मन जानता है कि न वह ख़ुद नरेंद्र भाई का विकल्प बन सकता है और न उस की बग़ल में मौजूद साथी। अभी ऐसा वक़्त भी नहीं आ गया है कि देश चंद्रशेखर राव, केजरीवाल या अखिलेश को नरेंद्र भाई का...

  • सियासत के सूखे पठार से रूमानियत की उम्मीद

    मैं नहीं मानता कि उनकी पदयात्रा ने सब-कुछ बदल कर रख दिया है, लेकिन उन्होंने दो व्यक्तित्वों के फ़र्क़ के हर्फ़ आम दिमाग़ों में चस्पा कर दिए हैं। यह कम नहीं है। अगर सड़क-चलते राहुल चार महीनों में इतना कर सकते हैं तो सोचिए कि शक्ति-संपन्न राहुल चार साल मिलने पर कितना कर डालेंगे? इसलिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने आगे के लिए मुल्क़ के ऐतबार की ज़मीन को अभंजनीय बनाने का काम किया है। आप ही की तरह मैं भी हुलस कर यह देखने बैठा हूं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन समारोह में हिस्सा लेने 21 में से कितने...

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