nayaindia Lok Sabha election सफ़ेद झूठ की काली मूसलाधार

सफ़ेद झूठ की काली मूसलाधार

Narendra Modi

मैं ने इतिहास के वे पन्ने भी पढ़े हैं, जिन में 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद जयप्रकाश नारायण से उन की मुलाकात का ज़िक्र है। जेपी आपातकाल के बाद जनता पार्टी की जीत और इंदिरा जी की हार के महानायक थे। वे इंदिरा जी से मिलने गए तो भीगी आंखों के साथ उन का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछने लगे, ‘इंदु, अपना खर्च कैसे चलाओगी?’ जवाब भी नम आंखों के साथ मिला, ‘पापू की क़िताबों से जो कुछ रॉयल्टी मिलेगी, उस से थोड़ा चल जाएगा।

‘मोशा’-सूरत पर हवाइयां उड़ती साफ़ दिखाई दे रही हैं। अभी तो लोकसभा चुनाव का दूसरा ही चरण पूरा हुआ है और नरेंद्र भाई मोदी ऐसी आंय-बांय-शांय मुद्रा में आ गए हैं कि सफ़ेद झूठ की काली मूसलाधार करने में इस बार सारी चौहद्दियां पार कर गए हैं। उन के दशकों पुराने अंतःपुरी सिपाहसालार अमित भाई शाह जैसे-तैसे ऊपरी आत्मविश्वास दिखाने की कोशिशों में अजीबोगरीब दावे कर-कर के अपने गिरोहाधीश की हवाहवाइयों पर गरबा करने में लगे हुए हैं।

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मैं 1977 में छठी लोकसभा के लिए हुए चुनाव से अब तक हुए सभी 12 आम चुनावों को दूर-पास से देख चुका हूं। मगर तेरहवीं बार जो देख रहा हूं, वह हुक़्मरान-खेमे द्वारा जम्हूरियत के अंतिम संस्कार के परम प्रयासों जैसा लग रहा है। अब से पहले लोकसभा के किसी भी चुनाव में महाझूठ का ऐसा प्रपंच और महाझूठों की ऐसी जुगलजोड़ी मैं ने तो नहीं देखी थी। नरेंद्र भाई सत्य के पुजारी नहीं है, यह मैं पहले भी जानता था। वे अपना सियासी मक़सद साधने के लिए हर कुत्सित साधन का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते हैं, यह मैं पहले भी जानता था। वे जंग और इश्क़ में फ़तह के लिए सब-कुछ जायज़ मानने के मनके फेरते बड़े हुए हैं, यह भी मैं पहले ही जानता था। मगर यह मैं नहीं जानता था कि उन के पतनलोकी महल की बहुत-सी सीढ़ियां देखनी तो अभी बाकी हैं।

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नरेंद्र भाई अगर प्रधानमंत्री न होते, नरेंद्र भाई अगर नरेंद्र भाई न होते, नरेंद्र भाई अगर गिरिराज सिंह, साध्वी प्रज्ञा, कुलदीप सेंगर, बृजभूषण सिंह, रमेश विधूड़ी, वगैरह-वगैरह होते तो मैं नरेंद्र भाई के कहे-किए पर मन मसोस भी लेता। मगर नरेंद्र भाई तो, एक भी कम नहीं, पूरे 140 करोड़ ‘परिवारजन’ के मुखिया हैं; वे बहुसंख्यकों के मान-न-मान मेहमान हैं; हिंदुओं के हृदय सम्राट हैं; विश्वगुरु बनने की राह के राही हैं; वे एक अकेले सब पर भारी हैं; वे गारंटी-पुरुष हैं,; गारंटी की भी गारंटी के गारंटर हैं; झोला ले कर कभी भी चल पड़ने वाले फ़कीर हैं। इसलिए मुझ से तो एक क्षण को भी यह सहा नहीं जा रहा है कि जिस महामना की उंगली पकड़ कर रामलला पांच सौ साल बाद अयोध्या आ कर विराजे, उस ने 2024 के चुनाव की पगड़ी किसी भी कीमत पर अपने सिर बांधने की हवस में जनतंत्र की सारी पवित्र परंपराओं पर कालिख मल दी है।

चुनावी आचार संहिता जैसी निरामिष व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाने का काम तो नरेंद्र भाई के लिए दस साल से सब से प्रिय शगल रहा है। इस बार तो उन्होंने इस व्यवस्था को ठेंगे-फेगे पर रखने के बजाय उस का सीधे घंटा-दर्शन दिशा में प्रस्थान करा दिया है। इस घंट-ध्वनि की गूंज ने, चुनावों के वक़्त आमतौर पर अंतरिम-सूरमा की भूमिका निभाने वाले निर्वाचन आयोग को, थरथर कंपा दिया है। मुसलमान-मुसलमान का अखंड-जप कर रहे नरेंद्र भाई की भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष को निर्वाचन आयोग ने अपने पार्किन्सनी-हाथों से हस्ताक्षरित एक नोटिस इसलिए नहीं भेजा है कि वरना ज़माना क्या कहेगा? इसलिए भेजा है कि अगर इतने पर भी वह दूसरी तरफ़ मुंह किए बैठा रहता तो कहीं जनता निर्वाचन आयोग को धोबीपछाड़ देने की षारीरिक तैयारी न कर लेती! मगर चूंकि निर्वाचन आयोग को जनता की नाराज़गी से ज़्यादा चिंता आकाओं की नाराज़गी की है, सो, वह राहुल गांधी के भाषण पर कांग्रेस को भी एक नोटिस भेजने की काइयां नटबाज़ी किए बिना बाज़ कैसे आता?

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कुंठा किसी से जो-जो न कराए, कम है। नतीजतन हमारे प्रधानमंत्री जी ने पहले तो बिना शोध किए फ़तवा जारी कर दिया कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में विरासत-कर लगाने का ऐलान किया है और विपक्ष की सरकार आई तो किसी की भी मृत्यु के बाद उस की आधी संपदा ही वारिसों को मिलेगी और आधी पर सरकार कब्ज़ा कर लेगी। फिर जब यह तथ्य सामने आया कि कांग्रेस के घोषणापत्र में तो दूर-दूर तक इस का कोई ज़िक्र नहीं है और असलियत तो यह है कि नरेंद्र भाई की सरकार में वित्त मंत्रालय संभालने वाले अरुण जेटली उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति पर टैक्स का क़ानून लाने की खुली तरफ़दारी किया करते थे तो नरेंद्र भाई ख़ुद बगलें झांकने लगे। वित्त राज्यमंत्री रहे जयंत सिन्हा के वे भाषण भी सामने आ गए, जिन में वे उत्तराधिकार-कर लागू करने की बात कहते थे। 2019 के आम बजट के पहले मीडिया में प्रकाशित-प्रदर्शित हुईं वे ख़बरें भी सामने आ गईं, जो बता रही थीं कि इनहेरिटेंस टैक्स लागू होने वाला है। फिर यह तथ्य भी सार्वजनिक हुआ कि 1953 से लागू इस टैक्स को तो ख़ुद राजीव गांधी ने 1985 में ख़त्म कर दिया था।

लेकिन नरेंद्र भाई आसानी से हार मानने वालों में कहां हैं? उन्होंने चुनावी भाषणों में कहना शुरू कर दिया कि राजीव गांधी ने तो विरासत-कर इसलिए ख़त्म किया था कि इंदिरा गांधी की छोड़ी अकूत संपत्ति विरासत में उन्हें मिलने वाली थी। अब कौन नरेंद्र भाई को बताए कि इंदिरा जी की मृत्यु 31 अक्टूबर 1984 को हुई थी और राजीव गांधी के वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1985 के अपने बजट भाषण में घोषणा की थी कि इनहेरिटेंस टैक्स से छूट 15 मार्च 1985 के बाद स्वर्गवासी हुए लोगों के मामलों में मिलेगी। 1985 के बजट भाषण का 88वां पन्ना नरेंद्र भाई चाहें तो आज भी पढ़ सकते हैं। तो इंदिरा गांधी तो इस छूट के दायरे में आती ही नहीं थीं। इस छूट का प्रावधान तो उन के निधन के साढ़े चार महीने बाद अमल में आया। मगर निर्लज्ज दलीलों का कोई क्या करे?

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मुझे नहीं मालूम कि महरौली में एक फार्म हाउस को छोड़ कर इंदिरा गांधी के पास कोई संपत्ति थी या नहीं। मुझे यह भी नहीं मालूम कि राजीव गांधी को इंदिरा जी से विरासत में इस के अलावा कोई और संपत्ति मिली थी या नहीं। लेकिन मुझे इतना ज़रूर मालूम है कि करोड़ो रुपए की कीमत का आनंद भवन इंदिरा गांधी ने देश को दान दे दिया था। मुझे यह भी मालूम है कि जगह-जगह जब इंदिरा जी को चांदी से तोला जाता था तो वे उस चांदी को अपने साथ नहीं लाती थीं, वहीं दान कर आती थीं। बिजनौर के कोषागार में ऐसी कई किलो चांदी आज भी रखी हुई है। मैं ने इतिहास के वे पन्ने भी पढ़े हैं, जिन में 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद जयप्रकाश नारायण से उन की मुलाकात का ज़िक्र है। जेपी आपातकाल के बाद जनता पार्टी की जीत और इंदिरा जी की हार के महानायक थे। वे इंदिरा जी से मिलने गए तो भीगी आंखों के साथ उन का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछने लगे, ‘इंदु, अपना खर्च कैसे चलाओगी?’ जवाब भी नम आंखों के साथ मिला, ‘पापू की क़िताबों से जो कुछ रॉयल्टी मिलेगी, उस से थोड़ा चल जाएगा।’

सियासती सनसनी के इस दौर में ऐसी संवेदनाओं की बात मोशा-मानसिकता के अनुगामियों को समझाना भैंस की बीन है। आप को बजानी है, बजाते रहिए। मगर भैंस खड़ी पगुराए तो मन भारी मत कीजिए। यह मूल्यों के मोल का दौर नहीं है। अब तोल के बांट अपने मानक बदल चुके हैं। इसलिए जिस कसौटी पर आप घिसना चाहते हैं, उस पर घिसने लायक सोना बनना बंद हो चुका है। सोने के नकली सिक्कों की दस बरस से गूंज रही छनछन की आवाज़ अगर हम ने अब भी नहीं नकारी तो आने वाली पीढ़ियों से अपने लिए माफ़ी की आस भी मत रखिएगा।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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