लोकतंत्र की क्लासिक आलोचना अखंडित हैं, तो लोकतंत्र को ही मानदंड मानना स्वत: एक छल है। जिस से लोगों को झूठे गुमान में फुलाकर इधर या उधर के प्रपंची को समर्थन देने के लिए फुसलाया जाता है।…विश्वविद्यालयों में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह…’ और ‘ला इलाहा इलल्लाह…’ के नारे अनायास नहीं है। उस के पीछे दशकों से अबोध किशोरों, युवाओं को ‘मायनोरिटी‘ चिंता और हिन्दू-द्वेष के पाठ पढ़ाना है। उसे संघ-परिवार के महापुरुष रोकने के बजाए मजे से चलने देते हैं, ताकि उन्हें हिन्दू ‘प्रतिक्रिया‘ का लाभ मिलता रहे! किसी दल को सचाई, निष्पक्ष आकलन, या समाज की परवाह नहीं है।यही चालू लोकतंत्री राजनीति है। समाज को तरह-तरह से बाँट कर वोट खरे करने की लालसा वाली।
कांग्रेस देश में लोकतंत्र ‘कमजोर होने’ का रोना रो रही, तो भाजपा देश को ‘लोकतंत्र की जननी’ बता लोगों को नाचने कह रही है। जबकि दोनों ही अधिकांश लोक को भुला कर, मात्र एक खास ‘अल्पसंख्यक’ की पूजा करने में लगी है।
यही लोकतंत्र की असलियत है। लोगों को बरगलाकर राज-मौज करने की प्रपंच-प्रतियोगिता। इस में चालू या भोले बौद्धिक भी काम आते हैं। जो भारत में भी चल रहा है। कुछ पहले, अशोका यूनिवर्सिटी के प्रो. सव्यसाची दास के पर्चे ‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ में वही रोना था। उस में डेमोक्रेसी को स्वयंसिद्ध मानदंड मान लिया गया है। जबकि दो हजार साल पहले के प्लेटो से लेकर बीसवीं सदी के मिचेल्स, मेन्केन, और विल ड्यूरां जैसे महान दार्शनिकों विद्वानों ने इसे ‘मूर्खों धूर्तों का शासन’ कहा है। इस का अशोका या किसी भी विश्वविद्यालय के लिबरल प्रोफेसरों ने किस शोध या तर्क से खंडन किया?
तब यदि लोकतंत्र की क्लासिक आलोचना अखंडित हैं, तो लोकतंत्र को ही मानदंड मानना स्वत: एक छल है। जिस से लोगों को झूठे गुमान में फुलाकर इधर या उधर के प्रपंची को समर्थन देने के लिए फुसलाया जाता है।
यह इस से भी स्पष्ट है कि ऐसे तमाम ‘लिबरल’ बौद्धिक सारा समय लोकतंत्री देशों की ही खिंचाई में लगाते हैं। जबकि कम्युनिस्ट या इस्लामी तानाशाहियों के बारे में तथ्य-संकलन, आलोचना, आदि बिल्कुल गोल रखते हैं! उलटे, विविध प्रसंगों में उन की बड़ाई दिखाने की ही जुगत करते हैं। जरा खोजिए: चीन या तिब्बत में लोकतंत्र की दुर्गति पर कौन सा सेमिनार, पर्चा, या शोध इन्होंने किया है? या, इस्लामी देशों में गैर-मुस्लिमों, स्त्रियों, पर क्रूरता और संगठित कुशिक्षा का कौन सा आकलन प्रस्तुत किया? अथवा, इस्लामी स्टेट, या मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे विश्व-व्यापी प्रभावशाली संगठनों, या जिहाद के इतिहास पर कौन सा शोध प्रकाशित किया?
जब कि यह सभी सीधे लोकतंत्र की चिंता से जुड़ते हैं। उस से पूरी दुनिया लंबे समय से दुष्प्रभावित भी हो रही है। किन्तु भारत में ‘लोकतंत्र की घटत’ पर चिंता करने वाले इन प्रश्नों पर पर्दा डाले रहते हैं। उन का सारा आक्रोश सदैव लोकतंत्री देशों के ही विरुद्ध मुख्य होता है। किसलिए? या तो अपने संकीर्ण प्रोपेगंडा और मनमानी व्याख्याओं को सम्मान देने, अथवा उन्हीं क्रूर अमानवीय इस्लामी, कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं का खुला-छिपा समर्थन देने के लिए।
यह तानाशाही प्रवृत्ति है कि वे किसी असहमत विद्वान – चाहे वह नोबल पुरस्कृत विद्याधर नायपॉल या विख्यात विदुषी तसलीमा नसरीन क्यों न हो – को न आमंत्रित करते, न उन का सम्मान करते हैं। जरा खोजिए: अशोका या जेएनयू ने इन्हें कभी किसी विषय पर बोलने, लिखने, पढ़ाने बुलाया? जबकि तसलीमा स्वतंत्र विचारी विदुषी हैं। पर उन्हें ‘लोकतंत्री’ बौद्धिक अछूत-सा मानते हैं।
तसलीमा कोई अपवाद नहीं। अनेक विद्वान रहे और अभी भी हैं जिन की सत्यनिष्ठा, लोकतांत्रिक भावना, तथा इतिहास, दर्शन, साहित्य लेखन में विशिष्ट योगदान के बावजूद उन्हें स्थाई रूप से तिरस्कृत रखा गया है।
अतः बहस यह होनी चाहिए थी, कि शिक्षा, शोध के नाम पर ऐसी मतवादी तानाशाही और संकीर्णता चलाने के क्या परिणाम हुए? सरसरी आकलन भी दिखाएगा कि हमारे विश्वविद्यालयों में ज्ञान और समझ बहुत गिरी है। विविध एक्टिविज्म और राजनीतिक प्रोपेगंडा का चलन बढ़ा है। उसी को शिक्षा, और स्कॉलरशिप कहने की जिद ठानी गई है। चाहे वामपंथी झोलाधारियों या संघी भाई-साहबों द्वारा।
इस तरह, अच्छे-अच्छे प्रतिभाशाली युवा इधर या उधर के राजनीतिक प्रपंचियों के हाथों में पड़कर मिट्टी हो रहे हैं। वे असुविधाजनक सचाइयों, पुस्तकों, और विद्वानों को भी देखने-सुनने से बचते हैं। भिन्न मत लेखकों को सुनने, सोचने के बदले उन्हें लांछित करते हैं। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है, जो लोकतंत्र का आधार भी है। पर अधिकांश लिबरल या संघी इस दुरभिसंधि में शामिल या चुप हैं।
मजा यह कि यह सब लोकतंत्र के लिए रोते/गाते हुए चल रहा है। भारत को ‘महान संस्कृति’ का देश कहने वाले का मजाक उड़ाया जाता है। पर इसे ‘ब्राह्मण वर्चस्ववादी फासिस्ट’ देश कहने वाले को सम्मानित किया जाता है। अपने समाज और धर्म से घृणा सिखाने वाले विचार ‘लिबरल’ और साहित्य शिक्षण में धीमे जहर की तरह फैलाए गए हैं। दूसरी ओर, किसी नेता और संगठन को महान, और दूसरों को दुष्ट बताते रहने के लिए देश का धन अंतहीन मात्र में बर्बाद किया जा रहा है।
यह प्रवृत्ति हमें कहाँ पँहुचाएगी? इस से देश या लोकतंत्र को भी क्या लाभ है? ऐसे प्रश्नों पर चुप्पी भी बताती है कि लोकतंत्र अयोग्यता, मिथ्याडंबर और धूर्तता को प्रश्रय देने की व्यवस्था भी है। कोई भी देश-हितैषी राजनीतिक ऐसी मक्कारी और मिथ्याचार को रोकेंगे। पर हमारे लोकतंत्री नेता इस से कतराते हैं क्योंकि उन्हें लोगों के लड़ने-मरने में वोट की गंध मिलती है। लेकिन जिस शासक को वोट की परवाह न हो, वह नई पीढ़ियों को मूर्ख बनाने वाली कुशिक्षा या दलीय प्रोपेगंडा पर अवश्य अंकुश लगाएगा।
वस्तुत: सभी लोकतंत्री देशों में लोकतंत्र के बहाने ही, समाज को तबाह कर सकने वाले मतवादों का प्रचार होता है। विघटक अतिरंजित या झूठी बातें फैलाई जाती हैं। समाज को एक करने वाली बातों के बदले, अलग-अलग समूहों, समुदायों के संकीर्ण ‘अध्ययन’ या ‘गणना’ कराकर उन्हें लड़ाया जाता है। जिस से मूढ़ प्रचारक और लफ्फाज पनपते हैं। वे समाज के बदले किसी दल या आइडियोलॉजी के झंडाबरदार बनते हैं।
यह सब ‘लोक’ को ही बेवकूफ बनाना है। क्यों कि अधिकांश लोकतंत्री नेताओं का ध्यान निजी धंधे-पानी पर रहता है। फलत: शिक्षा, संस्कृति बिगड़ती जाती है। निहित स्वार्थ और अंदर-बाहरी शत्रु भी इसे बढ़ाते हैं। वे झूठी बातें फैलाते, और सच्ची बातो को छिपाते हैं।
इस तरह, अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में विभेदकारी, समाज-विरोधी, या दलीय विष फैलाया जाता है। सारा गोरखधंधा इधर या उधर के मुट्ठी भर सूत्रधारों के हाथ रहता है। सामान्य लोग इसे नहीं रोक सकते, जिन के नाम पर यह प्रपंच होता है। उन पर बना-बनाया या मनगढ़ंत निष्कर्ष थोपा जाता है। ताकि केवल भेद-भाव, या इस या उस पार्टी का नरेटिव बने। तथ्यों को दरकिनार कर केवल उत्पीड़न, या विरोधी दल को कोसने का संगठित धंधा चलता है। इस में ‘लोक’ की चिंता नहीं, बल्कि केवल स्वार्थी दलबंदी रहती है। विश्वविद्यालयी सामाजिक शिक्षा के पाठों में शिकायत, द्वेष, राजनीतिक-प्रचार फैलाया जाता है। उसी को मीडिया में भी दबाव या दलबंदी से दुहराया जाता है।
अतः विश्वविद्यालयों में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह…’ और ‘ला इलाहा इलल्लाह…’ के नारे अनायास नहीं है। उस के पीछे दशकों से अबोध किशोरों, युवाओं को ‘मायनोरिटी’ चिंता और हिन्दू-द्वेष के पाठ पढ़ाना है। उसे संघ-परिवार के महापुरुष रोकने के बजाए मजे से चलने देते हैं, ताकि उन्हें हिन्दू ‘प्रतिक्रिया’ का लाभ मिलता रहे! किसी दल को सचाई, निष्पक्ष आकलन, या समाज की परवाह नहीं है।
यही चालू लोकतंत्री राजनीति है। समाज को तरह-तरह से बाँट कर वोट खरे करने की लालसा वाली। अतः लोकतंत्र का रोना-गाना के बदले उस की कमियों का उपाय करने, और जिम्मेदार हाथों में शासन होने की चिन्ता करना आवश्यक है।