‘स्यूडो-सेक्यूलरिज्म’ को दशकों से कोस-कोस कर जिन नेताओं ने अपनी जमीन फैलाई थी – सत्ता में आने के बाद वे हिन्दू समाज को तरह-तरह के ताने और नसीहतें बेधड़क देते रहते हैं। हिन्दू धर्म, मंदिर, देवी देवताओं, और शास्त्रों पर भी अपनी लनतरानियाँ सुनाते हैं। वे यह सब इस तरह करते, बोलते हैं जैसे कि वे स्वयं हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं! उस से अलग और ऊपर हैं। तब हिंदुओं को उन्हे खरी-खोटी सुनाने का कोई अधिकार नहीं है। तब वे बेधड़क कहते हैं कि ‘हम ने हिन्दुओं का ठेका नहीं ले रखा!’
हिन्दू पीड़ा का कारोबार – 2
उसी का परिणाम देश-विभाजन करके पंजाब, बंगाल, सिन्ध, और कश्मीर के करोड़ों हिन्दुओं की एकाएक, बिना नोटिस तबाही थी! तत्काल और दूरगामी, दोनों तबाही। वह स्वयं हिन्दू नेताओं ने अपने हाथों से किया, वह भी अधीरता में। उस में यह नासमझी भी थी कि बँटवारे से उन्हें ‘मुस्लिम समस्या से छुटकारा मिल जाएगा’। जबकि वस्तुत: इस समस्या को नये सिरे से जीवित करने का काम उन्होंने स्वयं किया था, खलीफत आंदोलन में अपनी ओर से 1919 में कूद कर।
इस प्रकार मुल्ले-मौलवियों की मूल जिहादी मनोवृत्ति को वैधता और नया इंधन प्रदान कर। इस पर रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्री अरविन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, और डॉ. अंबेडकर जैसे अनेक मनीषियों ने चेतावनी भी दी थी। वस्तुत: कांग्रेस कार्यसमिति में भी एक के सिवा कोई नेता खलीफत आंदोलन में कूदने के गाँधी-प्रस्ताव से सहमत न था। (चुपचाप)
पर अंग्रेजों के विरुद्ध ‘मास्टरस्ट्रोक’ लगाने के गाँधी-मंसूबे में न केवल उन तमाम चेतावनियों, असहमतियों को अनसुना किया गया, बल्कि बाद में भयावह परिणाम आते जाने पर सारी सच्चाई छिपाकर अंग्रेजों को दोष देने की मक्कारी की गई। इस में ‘राष्ट्रवाद’ बड़े काम की चीज साबित हुई। जो हर चीज का दोष ‘विदेशी’ को देने के लिए पहले से तैयार रहती है। वही प्रवृत्ति, स्वतंत्रता के बाद दलबंदी में बदल गई – यानी, हर चीज का दोष दूसरे दल को देना। ऐसा करने में विवेक, तथ्य, परिणाम, आदि हर बात से बेपरवाह रहना।
इस पृष्ठभूमि का आशय यह कि हिन्दू समाज अपने ही नेताओं की नासमझी और सत्ता-अधीरता के कारण गत सौ सालों से लगातार मारा, विस्थापित, अपमानित होता रहा है। स्वतंत्र भारत में और अधिक! पर चूँकि उस के अपने ही महान नेताओं की भूल और स्वार्थ से यह होता रहा। इसलिए वे नेता और उन के अनुयायी पूरी सावधानी और छल-बल से इतिहास पर भारी पर्दा डाले रखते हैं। यथासंभव तात्कालिक घटनाओं पर भी।
फलत: हिन्दू समाज की वंचना, उस के विरुद्ध कानूनी भेदभाव, दुष्प्रचार, उस का सामूहिक संहार तथा अपमान-बलात् आदि के कारण देश में असंख्य इलाकों से उस का क्रमशः विस्थापन जारी है। इस पर कुछ राजनीतिक दल मौन रहते या झुठलाते हैं, तो अन्य इसे भुनाकर लाभ उठाते हैं। उस पीड़ा को दूर करने के प्रयास के बजाए समय-समय पर नये-नये झुनझुने प्रस्तुत करते हैं। जिस से वह क्रम मजे से, दशकों से, अविराम चल रहा है।
इस पर कभी-कभी उन दलों के समर्थकों को भी हैरत होती है कि माजरा क्या है! कैसे एक हिंसा पर उन के नेता चीखते हैं, धरने देते हैं, तो दूसरी हिंसा पर ओठ सी लेते हैं? कैसे दशकों तक ‘तुष्टिकरण’ को पानी पी-पीकर कोसने वाले उन के पूज्य नेता लाल किले पर चढ़ते ही स्वयं छाती फुलाकर और ‘तृप्तिकरण’ के हुक्म देते हैं? (चुपचाप)
सो, अंत में विवश होकर उन के अनुभवी समर्थक भी नियमित दोहरेपन में सामुदायिक द्वेष को हवा देते रहने की तरकीब का ही अनुमान करते हैं। कि जैसे हो, हिन्दू-मुस्लिम नाराजगी, संदेह किसी भी बहाने चलता, बढ़ता रहे। यही उन के नेताओं को मुफीद है। इस सिद्धांत से असहमत दलीय समर्थक को भी इस का खंडन करने के लिए कुछ ठोस नहीं मिलता। पर मतवादी, दलबंदी आदत के कारण उन्हें सत्य की बजाए अपनी काल्पनिक टेक अधिक सुरक्षित लगती है। फलत: हिन्दू पीड़ा का विशाल कारोबार यहाँ चलता रहता है। कथित अपने लोगों द्वारा अपने लोगों की पीड़ा का अमानवीय कारोबार।
यानी, किसी न किसी रूप में हिन्दू-मुस्लिम सामुदायिक नाराजगी, कमोबेश हिंसा या तनाव चलते रहना। इस संबंध में मीडिया में भावनात्मक ज्वार और प्रोपेगंडा का उठते, मचलते रहना। इस बीच वास्तविक राजकीय नीतियाँ और उन के दुष्परिणाम यथावत रहना। चाहे दशकों बीत जाएं। यदि भारतीय राजनीतिक दल और नेता ऐसे व्यवहार पर चलें, तो यही कहना होगा कि उन्हें हालात बदलने की नहीं, केवल उस से फायदा उठाने की गरज है। क्या ऐसा कहना केवल काल्पनिक षड्यंत्र-सिद्धांत है? नहीं। (चुपचाप)
विकल्प नहीं है, चुपचाप साथ रहो
इयान फ्लेमिंग (जेम्स बॉन्ड) से लेकर अगाथा क्रिस्टी तक, प्रसिद्ध अपराध कथाओं के बड़े लेखकों के अनुसार कोई गलत व्यवहार एक बार अनायास हो सकता है। उस का दूसरी बार होना एक संयोग हो सकता है, पर तीसरी-चौथी बार पुनः होने का मतलब है कि वह जान-बूझकर की गई दुश्मन की कार्रवाई है। सो, यहाँ तो हिन्दू-मुस्लिम संबंध में दशकों का, सैकड़ों बार हुआ वही व्यवहार है, जिस के वैसे ही एकतरफा परिणाम भी होते रहे हैं। किसी विचारशील व्यक्ति द्वारा इसे झुठलाना कठिन है।
चुनाव के समय मुसलमानों को निशाना बनाते बयान – ‘जिन के बहुत बच्चे होते हैं’, जिन के कारण मंदिर पर ‘बाबरी ताला न लग जाए’ , आदि। पर कुर्सी पाकर अपने को ठोस मुस्लिम ‘तृप्तिकर्ता’, अब्बासी, मजार-पूजक, प्रोफेट-भक्त, सूफी-शागिर्द, असली मुस्लिम-प्रेमी प्रमाणित करने में सारे संसाधन झोंक देना। आँकड़ों और बेहिसाब रकमों, संस्थाओं, कदमों का ठोस हवाला देकर गर्व से कहना कि उन से बढ़कर मुस्लिम-परस्त कोई न हुआ। दूसरे तो बस मुसलमानों को ‘ठगते रहे थे’, आदि।
ऐसा दोहरा आचरण करने वाले न मुस्लिम-हितैषी हैं, न हिन्दुओं के त्राता। वे बस वोट-केंद्रित कारोबारी हैं। जिन का देश-प्रेम जितना बड़बोला दिखता है, उन की कुर्सी-वासना उतनी ही अतृप्त रहती है। उन के तमाम बयान व काम की समीक्षा यही संकेत करती है। उन के सरपरस्त या पिछलगुए भी पीछे नहीं रहते। वे मुस्लिमों को पेंशन देते हैं, ‘मुस्लिम मंच’ बनाकर प्रोफेट मुहम्मद की जयकार करते हैं, मदरसे और मस्जिदें बनवाते हैं, जिहाद का विरोध करने वाले पश्चिमी नेता के पुतले जलाते हैं । यह सब तो रिकॉर्ड पर है।
गोपन रूप से चतुर मुस्लिम नेता उन से इस्लामी राजनीति बढ़ाने के लिए कितना कुछ ऐंठते, फुसलाते रहे हैं – इस का हिसाब तो शायद ही किसी के सामने हो। क्योंकि यहाँ सेक्यूलरवाद, अल्पसंख्यकवाद की हवा सब दलों, बड़े बौद्धिकों पर तारी है। जैसा पहले भी कहा गया, हमारे बड़े बौद्धिक और नेता उस सत्य को स्थान नहीं देते जो इस हवा के विपरीत पड़े। (चुपचाप)
जबकि वही नेता हिन्दू समाज को तरह-तरह के ताने और नसीहतें बेधड़क देते रहते हैं। हिन्दू धर्म, मंदिर, देवी देवताओं, और शास्त्रों पर भी अपनी लनतरानियाँ सुनाते हैं। मंदिरों पर राजकीय कब्जा खत्म करने के बजाए देश भर के मंदिरों पर अपना दलीय कब्जा बना लेने के खुले मंसूबे रखते हैं। वे यह सब इस तरह करते, बोलते हैं जैसे कि वे स्वयं हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं! उस से अलग और ऊपर हैं। अतः हिन्दू समाज को उपदेशना, कोसना, जब-तब दुलत्ती झाड़ना, और उन्हीं से वोट-धन का दोहन करना उन का अधिकार है।
लेकिन हिन्दू समाज को उन से अपने कष्ट, उत्पीड़न, और अपमान में साझा करने तथा ऐसा न करने के कारण उसे खरी-खोटी सुनाने का कोई अधिकार नहीं है। तब वे बेधड़क कहते हैं कि ‘हम ने हिन्दुओं का ठेका नहीं ले रखा!’
इस बीच, सत्ता से बाहर रहते जिस ‘स्यूडो-सेक्यूलरिज्म’ को दशकों से कोस-कोस कर अपनी जमीन फैलाई थी – सत्ता में आने के बाद कभी भी उस इज्म की विकृति सुधारने, हिन्दुओं को वंचित करने वाले कानूनी प्रावधानों, राजकीय नीतियों-रीतियों को खत्म करने के लिए एक तिनका तक न उठाया। बल्कि, उसी को और बढ़ा कर हिन्दुओं को ‘आठवें दर्जे का’ उपेक्षित नागरिक बन जाने दिया! इस पर उन के समर्थक बुद्धिजीवी आनन्द रंगनाथन की हालिया पुस्तक पठनीय है: ‘हिन्दूज इन हिन्दू राष्ट्र: एट्त्थ क्लास सिटिजंस एंड विक्टिम्स ऑफ स्टेट-सैंकशन्ड अपार्थेड’। (चुपचाप)
पर जब तक संघ-परिवारी लोग कुर्सीनशीन हैं तब तक इस पर कुछ भी पूछने-टोकने पर घमंड से, और अपमानजनक भाषा में इक्के-दुक्के स्वरों को धमकाते, फटकारते हैं, कि तुम्हारे पास ‘विकल्प नहीं है। चुपचाप हमारे साथ रहो। वरना, तुम्हारी अधिक दुर्गति होगी!’ (जारी)
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