उस दुश्मन से सही लड़ाई हो ही नहीं सकती जब तक कि आप उसे पहचानते न हों। दुश्मन का आत्म-बोध और उस का शिकार-बोध, दोनों जानना जरूरी है, जैसे डॉक्टर के लिए पहले रोग की पहचान करना। तब दिखेगा कि यह आतंकवाद मूलतः सैनिक लड़ाई नहीं है।… इसलिए पाकिस्तान को कोसते रहना घोर आत्म-प्रवंचना है। पाकिस्तान उस आतंकवाद का प्रेरक नहीं, परिणाम है। उस का सूत्रधार नहीं, महज जिहाज का एक औजार है।
पहलगाम में जिहादी कार्रवाई को ‘आतंकवाद’, और उस के शिकार लोगों को ‘टूरिस्ट’ कहना जिन्हें हिन्दू पहचान कर मारा गया था। फिर सारी नाराजगी पाकिस्तान की ओर मोड़ देना। यह भुला कर कि वैसी ही कार्रवाइयाँ यूरोप, अमेरिका और पाकिस्तान में भी हुई हैं, जिस में पाकिस्तानी सत्ता का हाथ नहीं! इस हद तक कि एक बार पाकिस्तानी फौज को इस्लामाबाद की लाल मस्जिद में घुसकर कार्रवाई करनी पड़ी थी।
सो, यहाँ श्रीनगर से हजारों-हजार हिन्दुओं को धमका, अपमानित कर भगाना, गोधरा में हिन्दू तीर्थ-यात्रियों को सामूहिक जिन्दा जलाना, या उदयपुर में कन्हैया लाल तेली, या दिल्ली में अंकित शर्मा का कत्ल – यह सब किसी पाकिस्तानी का काम न था। तो उन एक जैसी कार्रवाइयों का प्रेरणा-स्त्रोत क्या है? इस सवाल को दबा कर समाधान असंभव है। चाहे पाकिस्तान पर चीख-पुकार कर हमारे नेता अपनी अकर्मण्यता, मूढ़ता और सत्तालोलुपता छिपाते रहें जो वे दशकों से कर रहे हैं।
चाहे-अनचाहे मीडिया भी वही ढर्रा पकड़ लेता है। यह जानते हुए कि कश्मीर ही नहीं पूरे देश में जगह-जगह, जब-तब निर्दोष, असहाय हिन्दुओं का उसी तरह कत्ल किया जाता रहा है – जो देसी जिहादी कार्रवाइयाँ हैं। आखिर पाकिस्तान ही भारतीय मुसलमानों का बनाया हुआ है। उसे जिहाद के कौल से ही बनाया गया था। मुस्लिम लीग के ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ में भी जिहाद का उल्लेख था।
अतः पाकिस्तान बनने से लेकर बाद में पाकिस्तानी और फिर बंगलादेशी मुसलमानों द्वारा भी काफिरों (गैर-मुस्लिमों) पर जिहादी हमले किसी अन्य स्तोत्र से प्रेरित रहे हैं। इस मूल तथ्य को छिपाना जिहादियों को ही प्रोत्साहन देना है। वे साफ देखते हैं कि काफिरों में इतना भी दम नहीं कि वे उन की कार्रवाई का नाम भी लें। काफिर जिसे ‘आतंकवाद’ कहते हैं, उसे खुद आतंकवादी ‘जिहाद’ कहते हैं।
पर काफिर जिहाद का नाम नहीं लेते, मानो उस का आदर करना पवित्र कर्तव्य हो! इस से अधिक नैतिक प्रोत्साहन जिहादियों के लिए और क्या होगा? अतः पाकिस्तान को आदतन पंचिंग-बैग बनाना भारतीय नेताओं और मीडिया की आरामपसंद कायरता या डफरता है।
पहलगाम में कत्ल भी बंगलादेश में मंदिरों पर हमले, या फ्रांस में चर्च में घुस कर हत्या, आदि जैसे ही अंतर्राष्ट्रीय जिहाद के रूप हैं। लेकिन यदि इस के बारे में कभी कुछ कहा ही नहीं जाएगा, तो उस से कैसे लड़ेंगे? कुछ पहले बी.बी.सी. पर अल कायदा के बारे में एक डॉक्यूमेंटरी आई थी। उस में है कि कैसे सीरिया के जिहादी कैंपों में छोटे-छोटे बच्चों को जिहाद और शरीयत की शिक्षा, तथा काफिरों पर हमले का प्रशिक्षण होता था। अफगानिस्तान, नाइजीरिया, आदि कई अन्य देशों में भी इस्लामी संगठन बालक और किशोर आयु से ही जिहाद का प्रशिक्षण देते हैं।
हक्कानिया जैसे अनेक देवबंदी मदरसे दुनिया भर में ‘जिहाद फैक्टरी’ के रूप में कुख्यात रहे हैं। उन के बारे में हिन्दू युवा कुछ नहीं जानते – क्योंकि ‘टूरिस्टों’ के विरुद्ध ‘आतंकवाद’ जैसे झूठे प्रोपेगंडा से सच्चाई छिपाई जाती है। उन की संपूर्ण शिक्षा ऐसी होती है, मानो जिहाद कोई विषय ही न हो!
तब कटिबद्ध जिहादी प्रशिक्षण के समक्ष उन के संभावित शिकारों, यानी काफिरों, हिन्दुओं या क्रिश्चियनों, की तैयारी क्या है? भारत जिहादी कारनामों से सदियों से त्रस्त देशों में एक है। केवल पिछले चार दशक में ही भारत में सैकड़ों बड़ी-छोटी जिहादी चोट हुई है। किन्तु स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक कहीं ‘जिहाद’ पर एक शब्द भी नहीं पढ़ाया जाता कि यह कौन सी चिड़िया है? एक शोध नहीं कराया गया कि सदियों से जिहाद का इतिहास क्या है? उस के विवरण, लक्ष्य, नतीजे, आँकड़े, आदि उस के अपने स्त्रोतों से क्या है? ऐसा स्वैच्छिक अज्ञान अतुलनीय है!
क्या जिहाद को समझे बिना समाधान संभव?
उस दुश्मन से सही लड़ाई हो ही नहीं सकती जब तक कि आप उसे पहचानते न हों। दुश्मन का आत्म-बोध और उस का शिकार-बोध, दोनों जानना जरूरी है, जैसे डॉक्टर के लिए पहले रोग की पहचान करना। तब दिखेगा कि यह आतंकवाद मूलतः सैनिक लड़ाई नहीं है। इसलिए भी पाकिस्तान को कोसते रहना घोर आत्म-प्रवंचना है।
इसीलिए, अमेरिका और यूरोप भी अपने अतुलनीय श्रेष्ठ हथियारों, सैनिकों, साजो-सामान के बाद भी फिलीस्तीन या अफगानिस्तान में ‘आतंकवाद’ को नहीं हरा सके। उलटे समझौते करने पर विवश हुए। क्योंकि जिहाद मुख्यतः वैचारिक, शैक्षिक लड़ाई है।
जिहादी प्रायः देश के अंदर ही रहते हैं, वहीं पनपते, फैलते हैं, और जब-तब हमले करते हैं। किन के ऊपर? मुख्यत: काफिर समाज पर – उन के बाजार, स्कूल, संसद, मंदिर, चर्च, सिनॉगाग, अदद काफिर व्यक्तियों, आदि पर। पेरिस और वियेना में चर्च और सिनॉगाग पर हमला हुआ। यहाँ भी अक्षरधाम, संकटमोचन, रघुनाथ मंदिरों, आदि पर होता रहा है।
सैनिक ठिकानों पर जिहादी हमले कुल एक प्रतिशत भी न होंगे। उन के हमले नागरिक समाज पर होते हैं, ताकि वे आतंकित हों। जो उन के लिए ‘टूरिस्ट’ नहीं, बल्कि काफिर हैं।
पर उन के शिकार समाज को नहीं मालूम कि जिहाद है क्या? हमारे युवा इस आतंकवाद से कैसे लड़ेंगे, जिस के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया जाता? उन के माता-पिता की भी वही शिक्षा हुई, इसलिए वे भी खाली हैं। पत्रकार और नेतागण भी आधी-अधूरी जानते हैं। तभी कहते हैं आतंकवाद से किसी को लाभ नहीं होता।
जबकि एक मतवाद सारी दुनिया में केवल आतंक के बल पर फैला है। उस के संस्थापक प्रोफेट ने खुद गर्व से यह बताया था। उन के अनुयायियों ने भी सदियों से उसी का सफलता से प्रयोग किया। आतंकित करना उन का तुरुप है, जिस के बिना वे कदापि नहीं बढ़ सकते। तब यह कहना अपने को ही भ्रमित करना है कि आतंकवाद से ‘किसी को लाभ नहीं होता’! यह सुनकर तमाम जिहादी हँसते होंगे।
पर दुश्मन को भ्रमित करना सदैव युद्ध का अंग रहा है। अतः जिहादी संगठन इस के प्रति सचेत हैं। कुख्यात संगठन ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ ने पूरी दुनिया में मिथ्या-प्रचार (डिस-इन्फॉर्मेशन) का व्यवस्थित तंत्र भी चला रखा है। जिस में वे आतंकवाद, जिहाद, मुसलमानों और इस्लाम के बारे में झूठी बातें फैलाते हैं, ताकि उन के शिकार भ्रम में रहें। ताकि काफिर लोग, उन की सरकारें, बुद्धिजीवी, मीडिया, आदि न केवल अनजान रहें, बल्कि उन का बचाव भी करें।
चूँकि हर कहीं आम लोग शान्ति चाहते हैं, इस भावना का फायदा उठा कर काफिरों को जिहाद की सचाई और इतिहास पर पर्दा डालने को कहा जाता है, ताकि ‘शान्ति’ बनी रहे। इसी के पूरक कदम के रूप में इस्लामी नेता नाराजगी दिखाते हैं, जब भी कोई सच कहे। जैसे, अभी कश्मीर में एक पत्रकार को रोका गया जो बता रही थी कि ‘टूरिस्टों’ को हिन्दू पहचान-पहचान कर मारा गया। पर यह तथ्य बताना इस्लाम को बदनाम करना कहकर, धमकी देकर बंद कराया जाता है।
जबकि सारे आतंकवादी ठसक से इस्लाम का ही हवाला देते हैं। उन के पर्चों, प्रशिक्षण, वीडियो में, हर कहीं इस्लामी किताबों की ही बातें दुहराई मिलती है। लेकिन जब कोई काफिर उसे दोष दे, तो आपत्ति की जाती है। जैसे, फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रोन पर।
पर मैक्रोन ने जिस इस्लामवाद और अलगाववाद को दोष दिया है, वह स्वतः प्रमाणित है। काफिर से अलगाव के बिना इस्लामी सिद्धांत का एक पाराग्राफ भी नहीं बनता। हर कहीं राष्ट्रीय कानूनों के बदले शरीयत को ऊँचा मानना, राष्ट्रीय शिक्षा के बदले मदरसे की सीख लेना, हर बात में कुरान, प्रोफेट और शरीयत का हवाला देना, आदि इस्लामवाद ही है। जिहाद का सिद्धांत कुरान व सुन्ना (प्रोफेट के कथन एवं व्यवहार) के सिवा और कहीं पर वर्णित नहीं है। सारे जिहादी संगठन वही पढ़ते-पढ़ाते हैं। कथित ‘व्याख्या की गलतफहमी’ भी तभी दूर होगी, जब पहले उसे सामने रखें।
मूल इस्लामी किताबों में सारी बातें इतनी बार, इतने साफ, और अनगिनत उदाहरणों से लिखी हुई हैं कि उन के अर्थ पर कोई संदेह नहीं बच सकता। इसीलिए मुहम्मद गजनवी, जहीर मुहम्मद बाबर से लेकर मुहम्मद अट्टा और मुहम्मद अफजल तक जिहाद का वही अर्थ करते रहे हैं, जो सचमुच है। सब की प्रेरणा हू-ब-हू एक रही है।
इसलिए उन आतंकवादियों के सिद्धांत, विचार, पर्चे, किताबें, और प्रशिक्षण दस्तावेजों का सार्वजनिक अध्ययन होना चाहिए। जैसे गणित या भौतिकी का वैज्ञानिक अध्ययन होता है। सामाजिक, आंतरिक सुरक्षा ऐसा उपेक्षणीय विषय तो नहीं – जिस में प्रोपेगंडा और आत्म-प्रवंचना से चलें! दुश्मन के बारे में प्रमाणिक जानकारी होने और उस के द्वारा हमले की संख्या में प्रतिकूल अनुपात होता है। अतः समझें कि पाकिस्तान उस आतंकवाद का प्रेरक नहीं, परिणाम है। उस का सूत्रधार नहीं, महज एक औजार है। आतंक फैलाना जिहाद का औजार है, जैसे उस के अन्य शान्तिपूर्ण औजार भी हैं। अधिक बड़े और अधिक मारक। हमारे नेता और मीडिया उसी के मारे हुए हैं।