जिहाद इंच-इंच बढ़ रहा है। शान्ति और सहजता से। काफिरों के सहयोग से। क्योंकि काफिर एक विचार को तोप या रिश्वत से खत्म करने की जुगत में है। अपने प्रोपेगंडा पर खुद फिदा! अतः जिहाद देश के सैकड़ों छोटे-छोटे इलाके प्रायः नि:शब्द रूप से धीरे-धीरे कब्जे में कर रहा है। यह सौ साल से अविराम जारी है। आगे अल्लाह जानता है!
दो पाकिस्तानी थे: अली भाई तहला और आसिफ फौजी, तथा दो हिन्दुस्तानी: आदिल हुसैन थोकर और अहसान। सरगना शायद हिन्दुस्तानी थोकर ही था। एक एक नाम और मिलते हैं: पाकिस्तानी हाशिम मूसा और हिन्दुस्तानी आसिफ अहमद शेख। यही चार से छ: नाम समाचारों की खोजबीन से मिलते हैं। अभी तक कोई पकड़ा न गया। पर सुरागों से कांड पाकिस्तानी क्षेत्र में एक विशेष ‘आतंकी’ संगठन का कारनामा लगा। सो, उस के ठिकानों पर दंड बरसाया गया। असंख्य हिन्दुस्तानियों ने ताली पीटी, और संतोष महसूस किया।
इस बीच दो असली और टेढ़े सवाल अछूते रहे। वे नये भी नहीं हैं। एक तो यह कि ‘आतंकियों’ के हिन्दुस्तानी ठिकाने पर क्या हो? इस पर भोला हिन्दू दिग्भ्रमित असहाय है। सदैव इसे टालने की जुगत करता रहा है। किसी न किसी तरह ‘विदेशियों’ को ही दोष देकर शुतुरमुर्गी हल चाहता है।
पर सवाल तो अड़ा खड़ा है, कमरे में हाथी की तरह। अगर दो पाकिस्तानी के लिए उधर दंड गया, तो दो हिन्दुस्तानी के लिए इधर क्या? इस का हिन्दू उत्तर, अभी तक के इतिहास से बड़ा विचित्र मिलता है। गत 35-40 सालों में, पूरे कश्मीर में इसी तरह हजारों हिन्दुओं को ‘पहचान-पहचान कर’ कत्ल करने वालों, उन पर बलात् करने वालों, आरे पर चीर देने वालों के देसी क्षेत्रों पर क्या कार्रवाई हुई? सारा आकलन दिखाता है कि उन्हें तो जैसे भारी पुरस्कार मिले! चाहे नाम दिया उस ‘क्षेत्र का विकास’ करना; आतंक करके छोड़ने की बात करने वालों को रोजगार देना, आदि। तदनुसार सार्वजनिक कोष से उसी क्षेत्र को सालाना अरबों रूपयों की विशेष सौगातें – जहाँ से चुन कर लाखों हिन्दुओं को मार भगाया गया।
यानी, उन ‘ठिकानों’ जहाँ वैसे हत्यारे और उन के मुखर या मौन सहयोगी रहते हैं जिन्होंने अपने मुहल्ले, शहर, और गाँव से हिन्दुओं को ‘पहचान-पहचान कर’ उजाड़ दिया, और हिन्दुओं की संपत्ति, जमीन, घर, दुकान हड़प लिए – उन्हें ही थोक भाव ‘विकास’ का स्पेशल पैकेज देना। किसी दैवी आपदा पर भी उन की राहत, सेवा में सब एजेंसियों को लगा देना। हर त्योहार पर दिल्ली नेता का दौड़कर वहीं जाना, गुमान से कहते कि ‘देखो मैं आप का कितना सगा हूँ! हर त्योहार पर आप के ही पास आ जाता हूँ, और कहीं नहीं जाता।’ आदि, आदि।
जिहाद भारत में बढ़ रहा है कैसे?
क्या यह सब देसी आतंकी ठिकानों को पुरस्कार नहीं? अंग्रेज शासक उल्टा करते थे – जिस क्षेत्र में बार-बार अनुचित कांड हों, उन्हें सामूहिक जुर्माना करना। ताकि पूरे क्षेत्र की चिन्ता उन कांडों को रोकने में हो। उस का सही परिणाम भी आता था। पर देसी शासकों ने उल्टे उन्हीं क्षेत्रों को विशेष सुविधा, अनुदान, आदि देने की नीति बनाई जहाँ हिंसा, अलगाव, सामुदायिक घमंड, तथा दूसरे समुदाय पर उत्पीड़न, आदि होता हो।
सो, चालू इतिहास यही है कि हिन्दुओं को ‘पहचान-पहचान कर’ यदि कोई हिन्दुस्तानी मारे, भगाए, अपमानित करे, उन के मंदिर अपवित्र करे, तोड़ दे, आदि – तो वह अनदेखा रहेगा। ‘मूंदहु आंख कतहुं कुछ नाहीं’। बंगाल, कश्मीर, केरल, गुजरात, असम, आदि अनगिन जगहों में हिन्दुओं को पहचान-पहचान कर मारने वालों पर अमूमन पहली कार्रवाई यह होती है कि जल्दी से, जैसे हो, उस खबर की लीपा-पोती कर दी जाए। ताकि कार्रवाई का प्रश्न उठने की नौबत ही न आए। नतीजन भारत के अंदर जहाँ-तहाँ कुछ घर, मुहल्ले, या गाँव, ‘स्वैच्छिक’ रूप से हिन्दुओं से धीरे-धीरे खाली होते जाते हैं। इस पर हिन्दू साहब-नेता, हाकिम, तथा पूजनीय प्रचारक अनजान बनने की अदा दिखाते हैं। पूछने पर कुछ करना अन्य की जिम्मेदारी बताते हैं – ‘दूसरे लोग क्या कर रहे हैं?’। यह नजारा दशकों से बदस्तूर है। यही गाँधी मार्ग, संघ मार्ग, याकि हिन्दू मार्ग है।
अतः पहले सवाल का तो यही कि हिन्दुस्तानी आतंकी ‘अपना’ है। उस के ‘ठिकाने’ का क्या किया जा सकता है! यानी, कुछ नहीं किया जा सकता। ले-देकर पुचकार, मनुहार, उपहार, आदि। बिना शर्त। इसलिए, उस के ठिकानों के संभावित शरारतियों या उसे भी विशेष अनुदान आदि तजवीज होती है।
बचा दूसरा सवाल, जिसे भी भोला हिन्दू नहीं छूता। कि अब तक लश्कर-ए-तोयबा ही नहीं, जैश-ए-मोहम्मद, अल कायदा, देवबंदी (यह भी ‘अपने’ हैं) तालिबान, हमास, हिजबुल्ला, इस्लामी स्टेट, आदि ‘आतंकियों’ के सैकड़ों ठिकानों पर, अमेरिका-यूरोप हजारों बार, लाखों बम बरसा चुके हैं। पाकिस्तान पर ही अमेरिका ने चौदह वर्षों तक सैकड़ों ड्रोन हमले किये, ठीक आतंकियों को ठिकाने लगाने के नाम पर। उस से क्या पाकिस्तान को रंच मात्र भी फर्क पड़ा? बल्कि आतंकियों का भी क्या हुआ? वही, जो एक ‘अपने’ मौलाना ने ठीक दिल्ली में, अपने ठिकाने पर खड़े होकर फख्र से लाउडस्पीकर पर कहा था: ”एक ओसामा मरेगा, तो सौ पैदा होंगे”।
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उन देसी मौलाना ने सही कहा था। ओसामा के बाद भी, कश्मीर, जम्मू, केरल, बंगाल, आदि में छोटे-छोटे ओसामाओं ने उसी निष्ठा से काफिरों को खत्म किया है। उन के कारनामों का परिणाम भी वही होता गया जो वे चाहते हैं। उन्हें कीमत की परवाह नहीं, इसलिए उन का हाथ ऊपर ही रहा है। वे अपने हजारों जिहादी मरवा कर भी एक दो गाँव भी खालिस इस्लामी कब्जे में ले लेना फायदे का सौदा समझते हैं। इसी कीमत पर उन्होंने दुनिया भर में सैकड़ों छोटे-बड़े स्थानों को काफिरों से खाली कराया है, जैसे कश्मीर को करा लिया।
इस परिघटना पर हिन्दू लाजबाव है! अपनी फौज, धन, और विकास के बावजूद असहाय है। वह जिहादियों के नजरिए से मामले को देखने-समझने में असमर्थ है। उस के नेताओं को ‘विकांस’ की रट लगा उस पर खुद मोहित होने के सिवा कुछ नहीं सूझता। वे कहते हैं: ‘विकांस में सभी समस्याओं का समाधान है’। अपने जुमले पर आप ही लट्टू वे कश्मीर के विकास में सारी दुनिया को लगा देते हैं। कहते हैं, ‘टेररिज्म को टूरिज्म से’ खत्म करेंगे। वह सब को ‘टूर करने’ कहते हैं। पर जब ‘टूरिस्ट’ छोटे ओसामाओं द्वारा जिबह होते हैं तो नेताओं के लंगूर बेचारे हिन्दू को ही ताने देते हैं कि वे टूर पर गये ही क्यों!
बहरहाल, किस्सा-कोताह कि मिसाइलों, बमों से ऐसे ‘आतंकी’ खत्म नहीं होते। क्योंकि वे आतंकी नहीं, जिहादी हैं: दुनिया को काफिरों से खाली कराने के विचार से भरे मिशनरी। उन्हें आतंकी कहना गलत है। जिहाद एक विचार है, और विचार तोपों से खत्म नहीं होते। वह विचार सदियों पहले एक नया पंथ चलाने वाले प्रोफेट ने दिया था। उसे व्यवहार में करके भी दिखाया था। उस विचार का पालन दर्जनों तरह के शान्तिपूर्ण तरीकों से भी होता रहा है। आतंक फैलाकर भी, और बेवकूफ बनाकर भी। दोनों का उद्देश्य और नतीजा काफिरों का खात्मा या उन्हें छल-बल-प्रलोभन किसी तरह अपने पंथ में मिलाना रहा है। जिहाद की नजर नतीजे पर है। तरीके पर नहीं।
पर बेचारा काफिर, खासकर हिन्दू, जिहाद से अनजान केवल ‘आतंक’ को बुरा समझता है! बाकी सब ठीक। इसलिए वही जिहाद की किताब पढ़ने-पढ़ाने लिए जमीन, संस्थान और अनुदान देता है। इस पर गर्व भी करता है। उसके नेता सिरोपा चढ़ाते कहते हैं: ‘प्रोफेट के बंधुत्व रास्ते पर चलो’। जैसे कोई मेमना नेता कहे ‘भेड़िए के झुंडत्व के रास्ते पर चलो’। उसे पता नहीं कि वे आतंकी उसी रास्ते पर चल रहे हैं। बड़े मिशन और समर्पण भाव से। वे प्रोफेट का ही बताया ‘सर्वोत्तम काम’ यानी जिहाद कर रहे हैं।
पर हिन्दू यह जानना ही नहीं चाहता। उस की आत्ममुग्ध बुद्धि नहीं मानती कि जिहाद बुरी चीज हो सकती है। क्योंकि जब किन्हीं प्रोफेट ने जिहाद का विचार दिया, तो वह जरूर अच्छा होगा! इसलिए वह सुविधा से उस के आतंक रूप को ‘विकृति’ कह कर शुतुरमुर्गी हल कर लेता है। उसी आत्ममुग्धता में यह भी मानता है कि चूँकि उसे गद्दी, सूट, और मिठाई अच्छी लगती है, तो ‘आतंकी’ बच्चों को भी लगती होगी। सो, वह उन्हें ‘आतंक’ की शरारत से दूर होने के लिए ‘विकांस’ देता है। यानी, वही गद्दी, मिठाई, सब्सिडी, मॉल, जैसी चीजें।
इस तरह, अंग्रेजी मुहावरे ‘कुत्ते को बुरा नाम दे दो और गोली मार दो’ की तर्ज पर हिन्दू नेताओं ने अपना मुहावरा बनाया है – ‘जिहाद को मीठा नाम दे दो और गले लगा लो’। बस जिहाद गदगद प्रेमपूर्ण हो जाएगा। उस की और उस के प्रति सब की गलतफहमी दूर हो जाएगी। फिर सब सुभीते से रहेंगे। ऐसा मुहावरा सब से बड़े हिन्दू नेता ने सौ साल पहले गढ़ा था। अहंकार से उपदेशा था, ‘बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो’। यह उसे और हिन्दू समाज को सूट करता था। सो, हिन्दू जिहाद नहीं देखता, जिहाद पर नहीं बोलता, जिहाद का अर्थ नहीं सुनता। वह ‘आतंक’ देखता है, जिहाद नहीं। वह पाकिस्तानी को देखता है, हिन्दुस्तानी को नहीं। वह अखलाक को देखता है, कन्हैयालाल को नहीं।
सो, जिहाद इंच-इंच बढ़ रहा है। शान्ति और सहजता से। काफिरों के सहयोग से। क्योंकि काफिर एक विचार को तोप या रिश्वत से खत्म करने की जुगत में है। अपने प्रोपेगंडा पर खुद फिदा! अतः जिहाद देश के सैकड़ों छोटे-छोटे इलाके प्रायः नि:शब्द रूप से धीरे-धीरे कब्जे में कर रहा है। यह सौ साल से अविराम जारी है। आगे अल्लाह जानता है!
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