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27-05-2025 Vol 19

सूर्यपुत्र शनि गुरु तथा शिक्षक भी

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शनि सीमा ग्रह कहलाता है। जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है। जगत में सत्य और असत्य का भेद समझना शनि का विशेष गुण है। यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है। विपत्ति, कष्ट, निर्धनता, देने के साथ साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है, जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है, संसार में उन्नति संभव नही है।

27 मई शनि जयंती पर

भगवान सूर्य और उनकी पत्नी देवी छाया से उत्पन्न शनिदेव का नाम सुनकर लोग सहम जाते हैं, डर जाते हैं, प्रकोप का खौफ खाने लगते हैं। ऐसा इसलिए कि लौकिक मान्यताओं में शनि को क्रूर ग्रह माना जाता है, लेकिन सच में ऐसा है नहीं। शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां हैं, इसलिए उन्हें मारक, अशुभ और दुःखकारक माना जाता है। आज के ज्योतिषी भी शनि को दुःख प्रदाता मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। वह शत्रु नही मित्र है। मोक्ष प्रदात्ता एक मात्र शनि ग्रह ही है।

सत्य तो यह है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ उचित न्याय करता है। केवल अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करने, समाज के अहित की बातों को मान्यता देने की कोशिश करने, अहम के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखने, अनुचित विषमता, अथवा अस्वभाविक समता को आश्रय देने वालों को ही शनि दंडित, प्रताड़ित करते हैं।

शनि जयंती 2025 का महत्व और कथा

पौराणिक व ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार शनि न्यायाधीश हैं। वे न्याय के देवता हैं। वे दंडाधिकारी की भूमिका का निर्वहन करते हैं। अच्छे व बुरे का परिणाम क्रमशः अच्छा व बुरा देने वाले ग्रह हैं। शनि को संतुलन और न्याय का ग्रह माना गया है। यह तपकारक ग्रह है, अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है। शनि का रंग गहरा नीला होता है। शनि ग्रह से निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं। शरीर में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है। सूर्य पुत्र शनि दुःखदायक, शूद्र वर्ण, तामस प्रकृति, वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्य हीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है।

शनि सीमा ग्रह कहलाता है। जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है। जगत में सत्य और असत्य का भेद समझना शनि का विशेष गुण है। यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है। विपत्ति, कष्ट, निर्धनता, देने के साथ साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है, जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है, संसार में उन्नति संभव नही है। मान्यतानुसार शनि के कोप से बचा भी जा सकता है और रूठे हुए शनिदेव को मनाया भी जा सकता है। शनि के कोप से बचने का उपाय है कि हम कभी अन्याय न करें। अनावश्यक विषमता का साथ न दें।

वैसे तो प्रत्येक शनिवार को शनि पूजा, आराधना का दिन माना जाता है। लेकिन ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन उनका अवतरण इस भूमि पर होने की मान्यता के कारण यह दिन उनके पूजन- आराधन के लिए सर्वोचित और सर्वोत्तम माना जाता है। इस दिन शनि का अवतरण होने के कारण इस दिन को शनि जयंती शनिश्चरी अमावस्‍या, शनि अमावस्या, शनिश्चरा जयंती भी कहा जाता है।

यह दिन कर्मों के अनुसार फल देने वाले देवता शनिदेव के जन्म का उत्सव है। इस दिन शनि जयंती मनाए जाने की पौराणिक परिपाटी है। शनिदेव शनि ग्रह को नियंत्रित करते हैं। रामभक्त हनुमान ने शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराया था। इसलिए शनिदेव के कथनानुसार हनुमान की पूजा करने वाले भक्त शनि देव के अति प्रिय और कृपा पात्र होते हैं।

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इसलिए शनिदेव के साथ-साथ हनुमान की पूजा का भी विधान माना गया है। कुंडली में शनि दोष, शनि ढैय्या या साढ़ेसाती होने पर शनिश्चरी अमावस्‍या इन सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्ति दिलाती है। शनि अमावस्या के दिन शनिदेव की कृपा पाने हेतु शनि मंदिर अथवा नवग्रह धाम मंदिर जाकर उपवास, दान, शनि तैलाभिषेकम, शनि शांति पूजा, प्रार्थना, हवन, यज्ञ, हनुमान चालीसा, दशरथकृत शनि स्तोत्र, शनि आरती, भगवान शनि की पूजा करना चाहिए। देवाशनि चालीसा, शनि अष्टोत्तर-शतनाम-नामावली, श्री शनैश्चर सहस्रनाम आदि का पाठ करना चाहिए।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार शनि के अन्य नाम यमाग्राज, छायानंदन, सूर्यपुत्र, काकध्वज, कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, रौद्रान्तक, यम, सौरि, शनैश्चर, मंद, पिप्पलाश्रय आदि हैं। इनका निवास स्थान शनि मण्डल है। इनके भाई-बहन यमराज, यमुना, वैवस्वत मनु, सवर्णि मनु, कर्ण, सुग्रीव, रेवन्त, भद्रा, भया, नास्त्य, दस्र, रेवन्त और ताप्ती हैं। इनके जीवनसाथी नीलादेवी अथवा धामिनी हैं। इनके संतान मांदा और नीला हैं।

ग्रंथों में इनकी नौ सवारियाँ बताए गए हैं- हाथी, घोड़ा, हिरण, गधा, कुत्ता, भैंसा , गिद्ध , शेर और कौआ। शनिदेव के जन्म के संबंध में स्कंदपुराण के काशीखंड में अंकित कथा के अनुसार राजा दक्ष की कन्या संज्ञा का विवाह सूर्यदेवता के साथ तो हुआ, लेकिन सूर्यदेव का तेज बहुत अधिक होने को लेकर संज्ञा परेशान रहती थी। वह सोचा करती कि किसी तरह तपादि से सूर्यदेव की अग्नि को कम करना चाहिए।

इसी तरह दिन बीतते गए और संज्ञा के गर्भ से वैवस्वत मनु, यमराज और यमुना तीन संतानों ने जन्म लिया। लेकिन संज्ञा अब भी सूर्यदेव के तेज से घबराती थी। एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि वे तपस्या कर सूर्यदेव के तेज को कम करेंगी। बच्चों के पालन- पोषण करने में कोई कष्ट न हो और सूर्यदेव को इसकी भनक न लगे इसके लिए उन्होंने एक युक्ति निकाली। उन्होंने अपने तप से अपनी हमशक्ल को पैदा किया, और उसका नाम संवर्णा रखा। बच्चों और सूर्यदेव की जिम्मेदारी अपनी छाया संवर्णा को सौंपते हुए कहा कि अब से मेरी स्थान पर तुम सूर्यदेव की सेवा और बच्चों का पालन करते हुए नारीधर्म का पालन करोगी, लेकिन यह राज सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही बना रहना चाहिए।

इसके बाद संज्ञा वहां से चलकर पिता के घर पंहुची और अपनी परेशानी बताई तो पिता ने डांट फटकार लगाते हुए वापस भेज दिया। लेकिन संज्ञा वापस न जाकर वन में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या में लीन हो गई। उधर सूर्यदेव को जरा भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि उनके साथ रहने वाली संज्ञा नहीं सुवर्णा है। संवर्णा अपने धर्म का पालन करती रही। छाया रूप होने के कारण उन्हें सूर्यदेव के तेज से भी कोई परेशानी नहीं हुई। सूर्यदेव और संवर्णा के मिलन से भी सवर्णि मनु, शनिदेव और भद्रा (तपती) तीन संतानों ने जन्म लिया।

एक अन्य कथा के अनुसार शनिदेव का जन्म महर्षि कश्यप के अभिभावकत्व में कश्यप यज्ञ से हुआ। छाया शिव की भक्तिन थी। शनिदेव के छाया के गर्भ में रहने के समय छाया ने भगवान शिव की इतनी कठोर तपस्या की कि उसे खाने-पीने की सुध तक नहीं रही। भूख-प्यास, धूप-गर्मी सहने के कारण उसका प्रभाव छाया के गर्भ मे पल रही संतान अर्थात शनि पर भी पड़ा और उनका रंग काला हो गया। शनिदेव के जन्म होने पर उसके रंग को देखकर सूर्यदेव ने छाया पर संदेह किया और उन्हें अपमानित करते हुए कह दिया कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। मां के तप की शक्ति शनिदेव में भी आ गई थी।

उन्होंने क्रोधित होकर अपने पिता सूर्यदेव को देखा तो सूर्यदेव बिल्कुल काले हो गए। उनके घोड़ों की चाल रूक गई। परेशान होकर सूर्यदेव को भगवान शिव की शरण लेनी पड़ी। इसके बाद भगवान शिव ने सूर्यदेव को उनकी गलती का अहसास करवाया। सूर्यदेव अपनी करनी का पश्चाताप करने लगे और अपनी गलती के लिए  क्षमा याचना की।

इस पर उन्हें फिर से अपना असली रूप वापस मिला। लेकिन पिता पुत्र के मध्य हो चुका खराब संबंध कभी फिर नहीं सुधरा। आज भी शनिदेव को अपने पिता सूर्य का विद्रोही माना जाता है। उन्हें पितृ शत्रु भी कहा जाता है। कथा के अनुसार शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य के द्वारा अपनी पत्नी छाया पर शनि मेरा पुत्र नहीं हैं कहकर अपमानित किए जाने के समय से ही शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखते थे। माता के छल के कारण पिता सूर्य ने उसे शाप दिया कि वह क्रूरतापूर्ण दृष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाए। इसलिए शनि ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिव को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की तरह शक्ति प्राप्त की।

शिव के द्वारा शनि को वरदान मांगने के लिए कहे जाने पर शनि ने प्रार्थना करते हुए कहा कि युगों- युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता सूर्य द्वारा उन्हें अनेक बार अपमानित किया गया है। इसलिए माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने। तब भगवान शंकर ने वरदान में उन्हें नवग्रहों में सर्वश्रेष्ठ स्थान होने और मानव, देवता के भी उनके नाम से भयभीत होने का वर दिया।

शनि के सदैव अपना सिर नीचे करके रखने के संबंध में ब्रह्मपुराण में अंकित कथा के अनुसार शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उनका विवाह चित्ररथ की कन्या से हुआ। शनिदेव की पत्नी सती, साध्वी और परम तेजस्विनी थी लेकिन शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में इतना लीन रहते कि अपनी पत्नी को जैसे उन्होंनें भुला ही बैठे हों।

एक रात ऋतु स्नान कर संतान प्राप्ति की इच्छा लिए वह शनि के पास आई, लेकिन शनि देव सदैव की भांति भक्ति में लीन थे। वे प्रतीक्षा कर-कर के थक गई और उनका ऋतुकाल निष्फल हो गया। आवेश में आकर उन्होंने शनि देव को शाप दे दिया कि जिस पर भी उनकी नजर पड़ेगी वह नष्ट हो जायेगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने पत्नी को मनाने की बहुत कोशिश की। लेकिन वह नहीं मानी। उन्हें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, लेकिन कुछ नहीं हो सकता था। अपने श्राप के प्रतिकार की ताकत उनमें नहीं थी। इसलिए शनिदेव अपना सिर नीचा करके रहने लगे।

Pic Credit: ANI

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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