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21-07-2025 Vol 19

बेरोज़गारी का संकट विस्फोटक हो रहा

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आज हालात यह हैं कि जब किसी सरकारी पद के लिए भर्ती निकाली जाती है, तो चाहे वह चपरासी का पद हो या क्लर्क का, लाखों की संख्या में अत्यधिक योग्य युवा आवेदन देते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्यों में यह स्थिति आम हो चुकी है। यह दृश्य केवल ‘बेरोज़गारी’ नहीं, बल्कि एक सामाजिक विस्फोट का पूर्व संकेत है। मूलधारा का मीडिया इस संकट की अनदेखी करता रहा है, लेकिन सोशल मीडिया के कैमरों में इन युवाओं की हताशा बार-बार कैद होती है।

हाल ही में उत्तर प्रदेश से एक ख़बर आई कि महज़ 2,000 सरकारी पदों के लिए 29 लाख से अधिक आवेदन आए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। समय-समय पर हम सुनते हैं कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से स्नातक करने के बावजूद 38 फ़ीसदी युवा बेरोज़गार रह जाते हैं। यह आंकड़े अकेले नहीं हैं, बल्कि वे एक गहरे संकट की गूंज हैं—एक ऐसा संकट जो अब हमारी अर्थव्यवस्था से कहीं अधिक समाज की शांति और लोकतंत्र की स्थिरता को चुनौती दे रहा है।

आज हालात यह हैं कि जब किसी सरकारी पद के लिए भर्ती निकाली जाती है, तो चाहे वह चपरासी का पद हो या क्लर्क का, लाखों की संख्या में अत्यधिक योग्य युवा आवेदन देते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्यों में यह स्थिति आम हो चुकी है। यह दृश्य केवल ‘बेरोज़गारी’ नहीं, बल्कि एक सामाजिक विस्फोट का पूर्व संकेत है।

मूलधारा का मीडिया इस संकट की अनदेखी करता रहा है, लेकिन सोशल मीडिया के कैमरों में इन युवाओं की हताशा बार-बार कैद होती है। जब यही युवा सड़कों पर आते हैं, तो लाठियाँ बरसाई जाती हैं। जब सरकारी नौकरियों की आस टूटती है, तो वे निजी क्षेत्र की ओर मुड़ते हैं—जहाँ शोषण और अस्थिरता उनका इंतज़ार कर रही होती है। दुर्भाग्य से अब निजी क्षेत्र में भी नौकरियों के अवसर तेजी से घट रहे हैं।

केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट भी

बेरोज़गारी की इस विकट स्थिति ने हमारे समाज की संरचना को भी प्रभावित किया है। लाखों युवक-युवतियाँ विवाह नहीं कर पा रहे, पारिवारिक दायित्व नहीं उठा पा रहे, और सामाजिक विषाद का शिकार हो रहे हैं। यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि समाजशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं के लिए चेतावनी है कि यदि इस वर्ग की आकांक्षाएँ बार-बार कुचली जाती रहीं, तो यह हताशा किसी दिन व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष का रूप भी ले सकती है।

अनौपचारिक श्रम का जाल

आज भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा अनौपचारिक मज़दूरी आधारित देश बन चुका है। आईएलओ के अनुसार, देश के 53।5 करोड़ मज़दूरों में से लगभग 40 करोड़ अत्यंत असुरक्षित स्थितियों में काम कर रहे हैं—इनकी आमदनी ₹200 प्रतिदिन से भी कम है। इनमें से अधिकांश शहरी मज़दूर हैं, जिनके पास न सामाजिक सुरक्षा है, न स्थिर वेतन, और न ही गरिमा।

देश के चार प्रमुख रोज़गार क्षेत्रों—भवन निर्माण, व्यापार और सेवा, औद्योगिक उत्पादन और खनन—में बेरोज़गारी क्रमशः 50%, 47%, 39% और 23% तक पहुँच चुकी है। ये वही क्षेत्र हैं जो देश के रोज़गार ढाँचे की रीढ़ थे।

कोविड लॉकडाउन के दौरान जिस तरह लाखों मज़दूर पैदल गाँवों की ओर लौटे, उसने इस संकट की जड़ता को उजागर कर दिया। लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे नीति-निर्माताओं ने इससे कोई सबक लिया?

समाधान क्या हो?

पाँच आवश्यक नीतिगत उपाय

1।     स्थानीय सरकारों को मज़बूती – शहरीकरण के इस युग में स्थानीय निकायों को वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों से सशक्त करना होगा ताकि वे रोज़गार सृजन में अग्रणी भूमिका निभा सकें।

2।    मानव श्रम आधारित नगरीकरण – भारी मशीनों के बजाय श्रम-आधारित कार्यप्रणालियों को प्रोत्साहन देने से न केवल शहरी रोज़गार बढ़ेगा, बल्कि ग़रीबों को गरिमा से जीने का अवसर भी मिलेगा।

3।   स्वास्थ्य व सफ़ाई क्षेत्रों में रोज़गार योजनाएँ – शहरी बस्तियों में स्वास्थ्य, जल, और सफ़ाई से जुड़ी सेवाओं के लिए विशेष योजनाएँ बनाकर बड़ी संख्या में नौकरियाँ सृजित की जा सकती हैं।

4।   शहरी मूलभूत ढाँचे में निवेश – आवास, जल निकासी, सार्वजनिक परिवहन जैसे क्षेत्रों में विकास, स्थानीय रोज़गार को पुनर्जीवित कर सकता है।

5।    छोटे व मध्यम उद्योगों का पुनरुद्धार – बेरोज़गारी पर सबसे तेज़ प्रभाव इन्हीं उद्योगों के पुनर्जीवन से पड़ेगा। इनके बंद होने से जो शून्य बना है, उसे भरा जाना आवश्यक है।

 

सिर्फ वायदों से नहीं चलेगा

2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ देने का वायदा किया था। अब वह सपना स्वयं बेरोज़गार युवाओं के लिए एक कटाक्ष बन गया है। कुछ वर्ष पहले जब युवाओं ने मोदी जी के जन्मदिन को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया, तब मैंने लिखा था कि यह कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक राजनीतिक चेतावनी है।

आज यह आवश्यक हो गया है कि सभी दल अपने-अपने घोषणा पत्रों में बेरोज़गारी के मुद्दे को केवल चुनावी चारा न बनाएँ, बल्कि मिलकर एक साझा राष्ट्रीय नीति बनाएँ—जिससे न केवल नौकरियाँ पैदा हों, बल्कि उनका न्यायसंगत वितरण भी हो।

बेरोज़गारी अब केवल आर्थिक समस्या नहीं रही। यह एक राष्ट्रव्यापी आकांक्षा संकट में बदल चुकी है। इसका समाधान भी किसी एक योजना, वायदे या बजट आवंटन से नहीं निकलेगा। इसके लिए बहुआयामी सोच, राजनीतिक इच्छाशक्ति, और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित पुनर्निर्माण आवश्यक है।

यदि समय रहते हम नहीं चेते, तो आने वाला दशक बेरोज़गारी नहीं—विस्फोट का होगा।

विनीत नारायण

वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी। जनसत्ता में रिपोर्टिंग अनुभव के बाद संस्थापक-संपादक, कालचक्र न्यूज। न्यूज चैनलों पूर्व वीडियों पत्रकारिता में विनीत नारायण की भ्रष्टाचार विरोधी पत्रकारिता में वह हवाला कांड उद्घाटित हुआ जिसकी संसद से सुप्रीम कोर्ट सभी तरफ चर्चा हुई। नया इंडिया में नियमित लेखन। साथ ही ब्रज फाउंडेशन से ब्रज क्षेत्र के संरक्षण-संवर्द्धन के विभिन्न समाज सेवी कार्यक्रमों को चलाते हुए। के संरक्षक करता हैं।

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