दुनिया भर में राजनीतिक गहमागहमी है। वैश्विक शतरंज की बिसात पर मोहरे इधर-उधर हो रहे है लेकिन इज़राइल अकेला है जो एक जगह अडिग खड़ा हुआ है, भौहें तनी हुईं, आँखों में आग, और इरादों में वही पुराना रूख, अड़ियल आत्मविश्वास। उसे न वैश्विक आलोचना की परवाह, न अलग-थलग पड़ने का डर है और न तबाह, नष्ट होने की आशंका।
इज़राइल लगातार आक्रामक है। आज भी बदला लेते हुए है। एक ऐसी जिद्द के साथ जो अब लगभग सभी को निर्दयी, अहंकारी, और अविचल लगने लगी है। और ऐसा होना इसलिए भी है क्योंकि उसकों ले कर अंतरराष्ट्रीय चुप्पी और उदासीनता बन गई है। मानों दुनिया ने यह मान लिया है कि इज़राइल डरता नहीं है और न ही उसे डराया जा सकता है।
जाहिर है सन् 2023 में इजराइल के प्रति दुनिया में सहानुभूति थी अब वही देश भय का कारण बन चुका है। इतिहास की करुणा वहीं अटकी रह गई है, लेकिन समय आगे बढ़ चुका है। पहले जो खुद आशंकित था, अब दूसरों में आशंका भर रहा है।
हमास के वीभत्स हमले के डेढ़ साल बाद, इज़राइल ग़ज़ा पार कर गया है—गोलियों की बौछार के साथ गुजरे सप्ताह सीरिया के दमिश्क तक पहुँच गया। प्रधानमंत्री नेतन्याहू की नजरें ईरान पर स्थाई तौर पर हैं। बावजूद इस सबके उसका अंतिम लक्ष्य अब भी अस्पष्ट है। क्या वह आतंकवाद को पूरी तरह समाप्त करना चाहता है? या पूरे समुदायों को मिटा देना उसका इरादा है? या फिर उसकी महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई है कि वह खुद को अमेरिका और चीन के समकक्ष विश्वशक्ति बनाना चाहता है?
सीधी बात कहें तो—इज़राइल नियंत्रण से बाहर हो गया है। वह विश्व जनमत की निगाहों में बेकाबू है।
मुख्य वजह गजा की तस्वीरे है। हर दिन यह सुनाई देता है, दिखता है कि गजा को इंसानियत से विहीन कर दिया गया है—और यह क्रम जारी है। बीते शनिवार, वहाँ भोजन जुटा रहे 32 फ़िलस्तीनी नागरिक मारे गए। लगभग सभी आम लोग, ज़्यादातर युवा। चश्मदीदों ने इसे ‘नरसंहार’ बताया, और कहा कि आईडीएफ (इज़राइली रक्षा बल) के सैनिकों ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाईं। इस समय ग़ज़ा में 20 लाख से अधिक फ़िलस्तीनी विनाशकारी मानवीय संकट से जूझ रहे हैं। भुखमरी उनके दरवाज़े पर है, और खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ इसके आसन्न खतरे की चेतावनी दे चुके हैं।
इसी बीच, इज़राइल की ओर से समस्या का समाधान आया है। और यह वह एक “पुनर्वास योजना है जिसे भयावह माना जा रहा है। इजराइल के रक्षा मंत्री ने गजा में एक “मानवीय शहर” बनाने का प्रस्ताव दिया है-जहाँ एक बार फ़िलस्तीनी प्रवेश कर लें, तो उन्हें केवल किसी तीसरे देश जाने के लिए ही बाहर निकलने की अनुमति होगी। प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने इस योजना को पूर्ण समर्थन दिया है। परंतु पूर्व प्रधानमंत्री एहुद ओलमेर्ट ने लंदन के The Guardian को दिए साक्षात्कार में इस योजना को सीधे-सीधे “कंसन्ट्रेशन कैंप” कहा है। हां, यह इजराइल के ही एक पूर्व प्रधानमंत्री के शब्द हैं, हमारे नहीं।
एक महीने पहले, इज़राइल ने ईरान के भीतर घुसकर उसके परमाणु और सैन्य ठिकानों पर हमला किया था। रणनीतिक दृष्टि से यह एक तर्कसंगत कदम था। वर्षों से ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा इज़राइल के लिए एक गंभीर खतरा रही है। मध्य-पूर्व में ईरान का विस्तारवादी रवैया न केवल इज़राइल के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए चिंता का विषय रहा है। कई देश इससे बचते रहे, लेकिन इज़राइल ने कूटनीति से सबक लेकर एक स्पष्ट, निर्णायक कार्यवाही की।
कल्पना कीजिए—यदि भारत ने पाकिस्तान के परमाणु विकास को समय रहते रोक दिया होता, तो आज हमारे पश्चिमी सीमांत क्षेत्र कितने शांत, नियंत्रित और सुरक्षित होते? लेकिन भारत इज़राइल नहीं है—और इज़राइल भारत जैसा व्यवहार नहीं करता। उसने समय की नब्ज़ पहचानी और ‘ऑपरेशन राइजिंग लायन’ के तहत ईरान पर हमला किया—उसी तरह जैसे उसने ग़ज़ा में तबाही को भी अपने संप्रभुता की रक्षा के नाम पर सही ठहराया।
निस्संदेह, एक परमाणु-संपन्न ईरान विश्व को और अधिक अस्थिर बना देगा। इससे सऊदी अरब जैसे अन्य देश भी परमाणु हथियार की होड़ में शामिल हो सकते हैं। और भले ही परमाणु हथियारों का प्रसार न भी हो, एक परमाणु ईरान इज़राइली सेना की रणनीतिक स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है—और यही इज़राइल के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
लेकिन विडंबना यह है कि ईरान की आक्रामकता से क्षेत्र को बचाने के प्रयास में इज़राइल स्वयं इस पूरे क्षेत्र को अस्थिरता की ओर धकेल सकता है—एक ऐसा अस्तित्वगत संकट जो वह खुद खड़ा कर रहा है।
फिलहाल इज़राइल–ईरान संघर्ष थमा हुआ है। दोनों के बीच मौखिक समझौता, सीजफायर हुआ है, जो कभी भी टूट सकता है। तेहरान में अब भी एक कट्टरपंथी धर्मतांत्रिक शासन सत्ता में है। और नेतन्याहू—अब युद्धप्रिय शासक की छवि बन चुके हैं—जिन्हें युद्ध उतना ही प्रिय है जितना सत्ता। दोनों उनके लिए अब हाथ में हाथ डाले चल रहे हैं। खबरें हैं कि नेतन्याहू जल्दबाज़ी में चुनाव कराने की संभावना पर विचार कर रहे हैं।
शायद इसी कारण कुछ दिन पहले इज़राइल के लड़ाकू विमानों ने सीरिया के दमिश्क पर बमबारी की। और बमबारी में सीरिया के राष्ट्रपति भवन, रक्षा मंत्रालय और सेना मुख्यालय को निशाना बनाया गया। इज़राइल का दावा है कि यह हमले ड्रूज़ समुदाय पर सीरियाई सरकार के हमलों को रोकने और सुएदा क्षेत्र में असैन्यीकृत क्षेत्र लागू करने के लिए किए गए थे।
प्रधानमंत्री नेतन्याहू का यह स्पष्ट गणित है—सैन्य आक्रामकता से न केवल इज़राइल की सुरक्षा बढ़ती है, बल्कि उनका घरेलू राजनीतिक समर्थन भी। इसलिए ईरान पर एक और हमला जल्द हो सकता है।
लेकिन यदि नेतन्याहू की सत्ता की लालसा और राजनीतिक लाभ को अलग रख दें, तो भी इज़राइल के आक्रामक क़दम एक बड़ी रणनीतिक मंशा को दर्शाते हैं—बलपूर्वक क्षेत्रीय व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करना। परंतु यदि कोई राष्ट्र अपनी संपूर्ण सुरक्षा केवल असीम शक्ति के बल पर चाहता है, तो वह उस अराजकता को ही स्थायी कर देता है जिससे वह भागना चाहता है।
अंततः इज़राइल को स्वयं से यह सवाल पूछना होगा—क्या उसके ये क़दम उसकी सुरक्षा की गारंटी हैं? या वह स्वयं और पूरे क्षेत्र को स्थायी संघर्ष में धकेल रहा है?