राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

सोशल मीडिया धीरे-धीरे ढ़ह रहा है?

एक समय था जब फॉलोअर्स की संख्या से क़ीमत तय होती थी। जिसके ज़्यादा अनुयायी, वही असरदार, वही ‘प्रासंगिक’। मतलब भीड़ का आकार ही पहचान था, पहुँच थी, यहाँ तक कि ताक़त भी। लेकिन ‘द न्यूर्याकर में छपे ताजा लेख (It’s Cool to Have No Followers Now)  ने बताया कि यह तर्क चुपचाप ढह चुका है। हज़ारों या लाखों फॉलोअर्स होना अब प्रभाव का प्रतीक नहीं, थकान का है। इंटरनेट अब प्रेतों से भरा पड़ा है, बॉट्स, घृणा से भरे फॉलोअर्स, निष्क्रिय खाते। बड़े पेज अब उस पुराने दौर के अवशेष हैं जब ध्यान का मतलब अभी भी स्नेह होता था। आज असली ‘फ्लेक्स’ संयम है, एक निजी अकाउंट जिसमें पाँच सौ से कम फॉलोअर्स हों, बिना फिल्टर की तस्वीरें हों, और पोस्ट अनियमित हों।

लेखक ने इसे “Anti-Fame” याकि अदृश्य रहने की नई प्रतिष्ठा बताया है। अब ऑनलाइन न दौड़ना, आत्मविश्वास का प्रतीक बना है। एक ऐसे समय में जहाँ हर कोई दिखाई देना चाहता है, वहीं उदासीनता और दूर रहना नया प्रभाव बन चुकी है।

और सच कहूँ तो, इस थकान को मैंने पहले ही  महसूस करना शुरू कर दिया था। एक शांत, धीमी थकान। इस साल मैंने खुद से एक संकल्प लिया: कम शोर, ज़्यादा अर्थ। सोशल मीडिया अब सिर्फ़ एक ही काम करेगा, काम। न कोई ‘वैनिटी मेट्रिक्स’, न एल्गोरिद्म की कलाबाज़ियाँ, बस वह जगह जहाँ शब्द साँस ले सकें। अनुशासन बनाए रखने के लिए मैंने खुद को दो हिस्सों में बाँट लिया, एक निजी अकाउंट, उन कुछ लोगों के लिए जो सच में मुझे जानते हैं,
और दूसरा, पेशेवर, खुला अकाउंट,  उस दुनिया के लिए जो यह दावा करती है कि वह परवाह करती है।

अब जब साल अपने अंतिम महीनों में मुड़ रहा है, मैं उस निर्णय को देखती हूँ।
मेरा निजी अकाउंट लगभग निष्क्रिय है,  एक पोस्ट, मुट्ठीभर फॉलोअर्स, और एक डिजिटल संन्यासी की डायरी। पत्रकार के नाते का अकाउंट भी लगभग उसी जगह खड़ा है, वही चार सौ फॉलोअर्स, वही हर पोस्ट के बाद का सन्नाटा। मैंने लिखा, साझा किया, उपस्थित रही और फिर भी, जवाब में मिली सिर्फ़ चुप्पी। एल्गोरिद्म शायद मेरी भाषा नहीं समझता था।

पहले तो यह चुभता था। दर्द हुआ। मैंने गूगल किया, “how to grow your following”, 19 साल के बच्चे एल्गोरिद्म समझा रहे थे जैसे वह कोई धर्मग्रंथ हो। मैंने रील्स बनाए, वीडियो डाले, “कंटेंट स्ट्रैटेजी” अपनाई। पंद्रह सेकंड के अभिनय के लिए, किसके लिए? उन संपादकों के लिए जो शायद स्क्रोल करते हुए भी नहीं रुकते। यह हास्यास्पद लगा। और सच में, यह था भी। क्योंकि भारत में सोशल मीडिया का जुनून अब भी गहरा है।

किसी को नौकरी पर रखना हो, नोटिस करना हो, “प्रासंगिक” मानना हो, पहला मापदंड अब काम नहीं, प्रोफाइल है। अच्छा फॉलोइंग अब भी अच्छे लेखन से ज़्यादा वज़न रखता है। मैंने ऐसे संपादक देखे हैं, पुराने दौर के भी, जो अब कहानी, तस्वीर या रिपोर्ट की गुणवत्ता से नहीं,
फॉलोअर्स, लाइक्स और व्यूज़ से निर्णय करते हैं। मेरे कई संदेश सोशल मीडिया पर इसलिए अनुत्तरित रहते हैं क्योंकि (क) मेरे पास ब्लू टिक नहीं है, (ख) मेरे पास पर्याप्त फॉलोअर्स नहीं हैं। कोई यह नहीं देखता कि मैं क्या लिख रही हूँ, कहाँ लिख रही हूँ।

हाँ, यह भी चुभा, वह ‘अदृश्य’ महसूस होना, वह पीछे छूट जाने का भाव। लेकिन धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सोशल मीडिया मेरे जीवन में असल में कितना कम जोड़ता है। और कहीं उसी सफ़र में, मैंने परवाह करना ही छोड़ दिया। अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि संपादक मुझे ढूँढते हैं या नहीं, प्रकाशक नोटिस करते हैं या नहीं, या कोई मेरे लेख को साझा करता है या नहीं। लेख मौजूद है, बस वही काफ़ी है। बाक़ी सब मान्यता के मुखौटे में शोर है।

इस शोर से बाहर निकलना, अपना ध्यान वापस लेना, किसी के लिए विद्रोह का रूप हो सकता है, पर मेरे लिए यह राहत थी। फेसबुक तो मैंने बहुत पहले निष्क्रिय कर दिया था। X (ट्विटर) अब गूँजता नहीं। इंस्टाग्राम पर मैंने वही करना शुरू किया जिसके लिए वह बना था, ऐसी तस्वीरें डालना जो ‘लाइक्स’ नहीं, बस ठहराव माँगें। मैंने अनुपस्थिति का अनुशासन भी आज़माया, कम स्क्रॉलिंग, कम डोपामिन, अपने मन को तुलना की सड़न से बचाने का प्रयास।

और एक काम किया। मैंने तुलना छोड़ दी। मैंने परवाह छोड़ दी। Gen Z की भाषा में कहूँ तो,  मैंने बस ‘खुद’ किया (I did me), न फ़ीड के लिए, न फॉलोअर्स के लिए, बस अपनी मानसिक शांति के लिए। इसीलिए जब मैंने The New Yorker का लेख पढ़ा, तो भीतर एक अजीब-सी खुशी हुई, मुक्ति जैसी। पढ़ते-पढ़ते लगा कि शायद हम सोशल मीडिया के उस युग के अंत के करीब हैं जिसे हमने जाना था। शायद यह अब ख़त्म हो रहा है, यह शोर, यह फिल्टर, यह प्रदर्शन।
या शायद यह किसी और ठंडी चीज़ — एआई — को रास्ता दे रहा है, ध्यान की नई साम्राज्यशाही को। किसी भी तरह, यह विचार मुक्तिदायक है। शायद यही वह संकेत है कि हमें फिर से दुनिया को स्क्रीन से नहीं, बल्कि बिना फिल्टर की आँखों से महसूस करने की ज़रूरत है।

क्योंकि शायद हम सच में सोशल मीडिया के अंत की ओर बढ़ रहे हैं, एक ऐसा अंत जो शोर में नहीं आता, बल्कि एक शांत अस्वीकार के रूप में आता है। भीड़ से एक धीमा, सधा हुआ पीछे हटना, अपनी आवाज़ की ओर लौटना। और जब तक वह अंत पूरी तरह नहीं आता, मैंने अपनी खुद की एल्गोरिद्म समझ ली है, अब मैं उन अकाउंट्स को खोजती हूँ जिनके फॉलोअर्स कम हैं। क्योंकि शायद वे भी वही कर रहे हैं, संख्या में नहीं, गुणवत्ता में जीवित रहना।

Tags :

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *