सत्ता, एक बार मिल जाए तो छूटती नहीं। वह धीरे-धीरे रगों में आदत बनकर उतर जाती है, और फिर वही मृगतृष्णा बनी हुई होती!
यह भारत के लोकतंत्र की खास पहचान है। जो नेता ज़िंदगी भर सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, वे शिखर को ही फिर नियति मान लेते हैं। जितना ज़्यादा ठहरते हैं, उतना ही खुद को ‘अविनाशी’ समझने लगते हैं। नेता अपने ही स्थायित्व का प्रवक्ता बन जाता हैं। और सत्ता से ऐसा मोह किसी एक पीढ़ी की बीमारी नहीं है।
हमारे नेता, चाहे पुराने हों या नए, सत्ता से तब तक चिपके रहते हैं जब तक ‘आगमन’ ‘अंतिम अध्याय’ में नहीं बदलता। जिन्होंने कभी अनुशासन, आयु-सीमा और नैतिक मर्यादा पर उपदेश दिए थे, वही अपने प्रस्थान के नियम खुद बदलतें हैं। तब मानते है अब एक प्रधानमंत्री हैं जो इसलिए नहीं टिके हैं कि जनता के पास कोई विकल्प नहीं, बल्कि इसलिए है कि उन्होंने लोगों को यह यक़ीन दिला दिया है कि उनके बिना “नया भारत” और “सोने की चिड़िया” की परिकल्पना अधूरी है।
क्या यह बिहार का दृश्य नहीं है? नीतीश कुमार, जो कभी सुशासन के संयमी प्रतीक थे, अब उस छवि की छाया मात्र रह गए हैं। इस चुनाव में उनके दुर्बलता के संकेत खुले हैं- लड़खड़ाती ज़ुबान, खोए हुए ठहराव, और उनके इर्द-गिर्द मंडराते वे सहयोगी जो उन्हें गिरने से ज़्यादा बचाने में लगे दिखते हैं। जो कभी पत्रकारों से सहज बातचीत करते थे, अब कैमरे से दूर रखे जाते हैं, मानो दूरी अब उनकी गरिमा की आख़िरी रक्षा हो। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी, जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में रोड शो किया था, ने उसे अकेले ही किया, शायद डर था कि कहीं नीतीश किसी अप्रत्याशित क्षण में दृश्य को दुर्घटना न बना दें।
समझ, संयम खत्म है; जो बचा है, वह सिर्फ़ सावधानी का अभिनय है। दूर से नीतीश को देखते हुए, भ्रमित, भटके हुए, नामों की भीड़ में गुम, राजनीति के भीतर एक दुर्लभ भावना उठती है: दया। उस थके हुए आदमी पर, जिसे सत्ता अब भी छोड़े नहीं छोड़ती। दो दशक पहले जब नीतीश ने बिहार संभाला था, तब राज्य ‘बीमारू’ कहलाता था, हर मायने में बीमार। उन्होंने सादगी को राजनीति का गुण बनाया, अनुशासन को चुनावी भाषा। उन्होंने बिहार के घावों पर सड़कों की सिलाई की, गांवों में रोशनी पहुँचाई, लड़कियों को साइकिल पर बिठाया और शासन को नैतिक अर्थ दिया। मगर समय, सुधारकों को स्मारक में बदल देने का तरीका जानता है। बिहार ने अपनी ‘बीमारू’ छवि कुछ हद तक उतारी, और अब नीतीश खुद बीमार दिखते हैं, थके, असमंजस में, अपनी ही रची इमारत के भीतर क़ैद। त्रासदी यह नहीं कि वे बूढ़े हो गए हैं; त्रासदी यह है कि उन्हें जाना नहीं आता। और यही उनका पतन है, उनकी विरासत अब उनके ही बोझ में दब गई है।
नीतीश कुमार कभी वे नेता थे जिन्हें प्रासंगिक रहने के लिए तालियों की ज़रूरत नहीं थी। उनकी बातें मापी हुई होती थी, उनकी चुप्पी भी अर्थपूर्ण।
वह उस दुर्लभ भारतीय राजनीति के चरित्र थे जो नाटक से एलर्जिक था, जो शोर में नहीं, शांति में सुधार देखता था। जब वह सड़कों, बिजली, शिक्षा की बात करते थे, वह भाषण नहीं, योजना होती थी। लालू प्रसाद की अव्यवस्था और हिंसा के वर्षों के बाद, बिहार को एक “सुशासन बाबू” मिला था, जो बिना प्रचार के सुधार करता था, जो व्यवस्था में विश्वास जगाता था। वह न लालू की जन-लोकप्रियता जैसे थे, न मोदी की तमाशाई राजनीति जैसे। उनके सबसे अच्छे वर्षों में वे इस विचार के प्रतीक बने कि बिहार आधुनिक भी हो सकता है और नैतिक भी। पहली बार वोट डालने वाली लड़कियाँ उनके नाम को आदर से नहीं, अपनेपन से लेती थीं। वह उनके लिए सिर्फ़ मुख्यमंत्री नहीं थे, वह वह आदमी थे जिसने उनकी यात्रा सम्भव की थी। साइकिल, सड़क और सुरक्षा के ज़रिए उन्होंने दूरी को संभावना में बदला। उनके लिए नीतीश को वोट देना निष्ठा नहीं, कृतज्ञता थी, उस व्यक्ति के प्रति जिसने गति को स्वतंत्रता में बदल दिया।
2024 के लोकसभा चुनाव तक आते-आते भी, नीतीश कुमार के नाम में एक आदर बाकी था, वह शांत सम्मान जो लंबी सेवा से आता है।
लोग कहते थे, “नीतीश बाबू”, वह आदमी जिसने बिहार को उसकी caricature छवि से बाहर निकाला।
संख्याएँ अपनी कहानी कहती हैं, राज्य की सड़कें लगभग दुगनी हुईं, 14,000 से बढ़कर 26,000 किलोमीटर तक। अर्थव्यवस्था ₹77,000 करोड़ से बढ़कर ₹6 लाख करोड़ से ज़्यादा तक पहुँची। सामाजिक सुरक्षा पेंशन कुछ लाखों से बढ़कर एक करोड़ से अधिक लाभार्थियों तक पहुँची। सरकारी स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात राष्ट्रीय औसत से बेहतर हुआ। और वही लड़कियाँ, जो कभी आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती थीं, अब मीलों दूर साइकिल से स्कूल जाती हैं। बिहार अमीर नहीं बना, मगर अब अदृश्य नहीं है। जो राज्य कभी निराशा का प्रतीक था, उसने कुछ वर्षों के लिए संभावना की पहचान पाई, और नीतीश उसके अप्रत्याशित शिल्पकार थे।
मगर ज़मीन पर, कृतज्ञता के नीचे, थकान की एक परत हमेशा से थी, जैसे लोग धीरे से कहना चाहते हों: बस, अब हो गया। उनका शासन फीका पड़ने लगा था, सुधार नहीं, उलट-फेर की छवि बन चुकी थी। एनडीए से महागठबंधन और फिर वापसी, इस आवागमन ने “सुशासन बाबू” को “पलटू राम” में बदला । वह नेता नहीं, बस टिके रहने वाले जीव लगने लगे। जनता दल (यू) भी धीरे-धीरे ढलान पर था। 2015 में 71 सीटें थीं, 2020 में 43 रह गईं। नीतीश अब ऐसी पार्टी के मुखिया थे जो खुद उनसे ज़्यादा थकी हुई लगती थी। फिर भी नीतीश हर बार वापसी करते रहे, जैसे राजनीति में उनके पास नौ जिंदगियाँ हों। 2005 से अब तक उन्होंने हर बार एंटी-इनकम्बेंसी, विश्वासघात और ऊब से पार पाया।
पर फिर उनकी शपथ ने बस यह पुष्टि की कि नीतीश सेवानिवृत्त नहीं होते, वे गठबंधनों को पुनर्व्यवस्थित करते हैं। विश्लेषक कहते हैं कि उनकी ताक़त एक बारीक बुने हुए समीकरण में है, कुर्मी-कोइरी, ईबीसी, महादलित और महिलाएँ। वह भरोसेमंद 30 फ़ीसदी का आधार जिसने हर संकट में उन्हें सहारा दिया। यह निष्ठा परिचय, स्थिरता और “स्वच्छ शासन” के भ्रम पर टिकी है। राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं, नीतीश की असली ताक़त उनकी छवि की निरंतरता में है, भले ही आदमी खुद धुंधला हो चुका हो। इस चुनाव में वह मंच के बीच खड़े तो रहे, पर सुधारक नहीं, स्मारक बनकर। जो कभी संयम से पहाड़ हिलाते थे, अब माइक संभालने में डगमगा जाते हैं। जो कभी आत्म-संयम के प्रतीक थे, अब उलझे, अस्थिर, और कभी-कभी हास्यास्पद दिखते हैं, किसी अधिकारी के सिर पर गमले की टिप्पणी से लेकर अधूरी हँसी तक।
तो सवाल है, नीतीश कुमार जा क्यों नहीं रहे? या उन्हें जाने क्यों नहीं दिया जा रहा?
क्योंकि बिहार की सत्ता भी दिल्ली जैसी है, यह सिर्फ़ वोटों पर नहीं, बल्कि निर्भरता के जाल पर टिकी है। सैकड़ों अफसर और वफ़ादारों की रोज़ी उनकी मौजूदगी पर टिकी है। जिस दिन वे जाएगा हैं, कईयों का वजूद ख़त्म हो जाएगा। फिर है अहंकार, मतलब राजनीति का सबसे नशीला तत्व।
नीतीश हमेशा खुद को बिहार का नैतिक केंद्र मानते रहे, वह व्यक्ति जिसने लालू के साये से राज्य को निकाला। सेवानिवृत्ति का अर्थ होता पतन स्वीकारना और भारतीय नेता यह स्वीकारना नहीं जानते। और सबसे गहरी बात, उत्तराधिकार की असुरक्षा। दशकों की सत्ता के बाद न कोई वारिस, न कोई मज़बूत पार्टी, न कोई कथा जो उनके बिना साँस ले सके। ऐसे पुरुष इसलिए टिके रहते हैं क्योंकि वे व्यवस्था की कल्पना खुद के बिना नहीं कर पाते और व्यवस्था भी, दुख की बात है, खुद की कल्पना उनके बिना नहीं कर पाती।
जबकि हर राजनेता जीवन में वह पल लिए होता है जब विरासत उपस्थिति नहीं, अनुपस्थिति माँगती है। नीतीश वह पल कमा चुके थे। वह जा सकते थे, उस व्यक्ति की तरह जिसने बिहार को रोशनी दी, उसकी बेटियों को गरिमा दी, उसके शासन को मर्यादा दी। लेकिन अब वह इस ख़तरे में हैं कि इतिहास क्या उन्हें उसी सहन-शक्ति से याद करेगा जिसने उन्हें थका डाला? नीतीश कुमार आज राजनीति के उस करुण अध्याय का प्रतीक हैं जहाँ सुधारक अपने ही सुधार में फँस जाता है, निकल नहीं पाता। अपने करियर की संध्या में वह उस लोकतांत्रिक बीमारी का आईना हैं, जहाँ नेता आयु को अधिकार मान बैठते हैं, टिके रहने को सेवा समझ लेते हैं। क्योंकि सत्ता, जब बहुत देर तक पकड़ी जाती है, तो वह उन्हीं आदर्शों को जला देती है जिन पर कभी टिकी थी। वह उद्देश्य से स्वामित्व में, कर्तव्य से निर्भरता में बदल जाती है।
भारतीय राजनीति में संन्यास न परंपरा है, न पुण्य। और नीतीश कुमार आज उसके नवीनतम प्रतीक हैं, वह व्यक्ति जो यह साबित करता है कि जब सत्ता खुद जाने से इनकार करती है, तो वह नेता को नहीं, उसकी विरासत को खा जाती है।


