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लोकतंत्र में वंशवादी मानसिकता ठिक नहीं

लोकतांत्रिक प्रक्रिया और वंशवादी मानसिकता परस्पर विरोधी है। जनतंत्र में ‘जन’ की राय ही सर्वोच्च होती है। किसी ने सही कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के अन्य शीर्ष नेता जनता को अपनी पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए केवल प्रेरित करते हैं, जबकि राहुल गांधी और उनके छुटभैये नेता जनता को प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को वोट देने पर मजबूर कर देते हैं।

गत दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘मृत’ करार दिया। इसपर लोकसभा में नेता-विपक्ष और कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ‘गदगद’ दिखे और अब देशभर में घूम-घूमकर यह संदेश दे रहे है कि भारत की चुनाव प्रक्रिया ‘भ्रष्ट’ हो चुकी है और इसके परिणामस्वरूप देश में लोकतंत्र में ‘समाप्त’ हो गया है। ट्रंप का गैर-जिम्मेदाराना बयान समझ में आता है। एक तो वे अपने बड़बोलेपन के लिए कुख्यात है, दूसरा सत्य से परे होते हुए भी ट्रंप के वक्तव्य उनकी नज़र में अमेरिकी हितों की रक्षा हेतु रणनीति का हिस्सा होते हैं।

परंतु राहुल गांधी ऐसा क्यों कर रहे है? इसका स्पष्ट कारण राहुल के भीतर वंशवादी दर्प और उनका उस ‘अधिकार जताने की प्रवृत्ति’ से ग्रस्त होना है, जिसमें उन्हें भ्रम है कि ‘सच्चा लोकतंत्र’ वही है, जिसमें मतदाता और व्यवस्था उनकी ‘इच्छानुसार’ चले। जब हालात उनके मुताबिक न हो, तो उनके लिए ‘लोकतंत्र-संविधान खत्म’ और ‘चुनाव आयोग पक्षपाती’ हो जाता है।

अपनी इसी मानसिकता के कारण राहुल गांधी जमीनी हकीकत से पूरी तरह कट चुके हैं। उनका अहंकार उन्हें यह स्वीकार ही नहीं करने देता कि उनके विचारों की वजह से कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है। वे यह समझना तक नहीं चाहते कि भाजपा को बार-बार मिल रहा जनसमर्थन प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीयता और निर्णायक नेतृत्वशैली के साथ उनके नेतृत्व में भ्रष्टाचार मुक्त शासन, जमीनी स्तर पर विकास, आर्थिक नीतियों के प्रति ईमानदारी, सांस्कृतिक पुनरुत्थान और आतंकवाद के प्रति शून्य सहनशीलता आदि पर आधारित है।

यदि राहुल के चुनाव आयोग पर तथ्यहीन आरोपों को आधार बनाए, तो जब देश में 2004-14 के बीच कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग सरकार थी, तब 2014 में भाजपा कैसे प्रचंड बहुमत के साथ जीत गई? तब चुनाव आयोग पर भाजपा के किसी तथाकथित प्रभाव होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। यदि वाकई भाजपा ईवीएम मशीनों और मतदाता सूचियों में गड़बड़ी कर रही होती, तो प्रामाणिक रूप से बढ़ती लोकप्रियता के बीच भाजपा क्यों 2025 से पहले दिल्ली के दोनों विधानसभा चुनाव हारी? क्यों पिछले 11 वर्षों में भाजपा केरल, तमिलनाडु, पंजाब, तेलंगाना आदि राज्यों के चुनावों में जीतना तो दूर, वहां मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने लायक तक सीटें नहीं जीत पाई है? क्यों पश्चिम बंगाल के पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी भाजपा हार गई? ऐसे कई उदाहरण है।

सच तो यह है कि अगर मतदाताओं में भाजपा के प्रति कोई नाराजगी होती भी है, तो वे कांग्रेस की ओर नहीं देखते, बल्कि दूसरे विकल्प तलाशते हैं। कांग्रेस का वोटबैंक दिल्ली और पंजाब में ‘आम आदमी पार्टी’ की ओर खिसक चुका है। इतना ही नहीं, कांग्रेस के अधिकांश सहयोगी दल— सपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक, राकांपा आदि— उसके ही जनाधार पर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ा चुके हैं।

लगातार मिलती पराजय के कारण राहुल जिस मानसिक अवस्था से गुजर रहे है, उससे अन्य नेता भी शिकार रहे है। इस संदर्भ में मेरा एक व्यक्तिगत अनुभव है। छात्र जीवन में मैंने अपने साथियों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे और भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो बलराज मधोक (1920-2016) के लिए दिल्ली में बूथ एजेंट का काम किया था। 1967 के लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में जनसंघ ने तब अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन करके 35 सीटें जीतीं थी। मधोक स्वयं दक्षिण दिल्ली से विजयी हुए। लेकिन 1971 के मध्यावधि चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया, तब उस लहर में ऐसे विपक्षी नेता भी हार गए, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। इसी श्रेणी में मधोक भी शामिल थे, जिन्हें कांग्रेस उम्मीदवार शशि भूषण ने लगभग 73 हजार मतों से हराया था।

मधोकजी इस हार को स्वीकार नहीं कर पाए। उन्होंने आरोप लगाया कि इंदिरा गांधी ने ‘अदृश्य रूसी स्याही’ से धांधली की है। इस दावे से देश में सनसनी फैल गई। परंतु जनसंघ के वरिष्ठ नेताओं (अटलजी और आडवाणीजी सहित) ने इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया। उनका कहना था कि चुनाव में जीत-हार स्वाभाविक है, पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर शक करना अनुचित है।

मधोक जब इस मुद्दे पर अकेले रह गए, तो उन्होंने खीजवश अटलजी को ‘वामपंथ से प्रभावित’ बताना शुरू कर दिया। अंततः, अन्य मतभेदों के साथ इस विवाद ने 1973 में उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। इस आरोप से मधोक की राजनीतिक साख गिर गई थी। आज जब राहुल गांधी चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा पर सवाल उठा रहे हैं, तो क्या कांग्रेस में भी जनसंघ जैसी हिम्मत और इच्छाशक्ति है कि वह अपने ही नेता पर सख्त कार्रवाई कर सके?

राहुल भूल जाते हैं कि उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके चाचा संजय गांधी के साथ क्या हुआ था। दोनों ने आपातकाल (1975-77) के बाद यह सोचकर लोकसभा चुनाव कराया कि उनकी जीत निश्चित है। लेकिन तब न केवल कांग्रेस की हार हुई और उत्तर भारत में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया, बल्कि अपनी सीटों से इंदिराजी बतौर प्रधानमंत्री और संजय भी हार गए। इसी तरह 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी जी भी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे, लेकिन ग्वालियर से पराजित हुए।

इससे पहले 1971 में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह यह सोचकर उपचुनाव में प्रत्याशी बने कि बतौर मुख्यमंत्री उनकी जीत औपचारिकता है, किंतु वे भी हार गए। कांग्रेस के लोकप्रिय नेता और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री के।कामराज ने भी कभी कल्पना नहीं की थी कि वे 1967 के विधानसभा चुनाव में एक युवा डीएमके प्रत्याशी से हार जाएंगे। तब शायद ही किसी ने राहुल की तरह भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करने की हिमाकत की हो।

वास्तव में, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और वंशवादी मानसिकता परस्पर विरोधी है। जनतंत्र में ‘जन’ की राय ही सर्वोच्च होती है। किसी ने सही कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के अन्य शीर्ष नेता जनता को अपनी पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए केवल प्रेरित करते हैं, जबकि राहुल गांधी और उनके छुटभैये नेता जनता को प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को वोट देने पर मजबूर कर देते हैं।

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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