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पराजय पश्चिम की साझा ताकत की

अलास्का में हुई ट्रंप-पुतिन शिखर बैठक का नतीजा अब जग-जाहिर है। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि ट्रंप उन्हीं शर्तों या मांगों पर सहमत हुए, जिन्हें अगर 2022 में ही मान लिया गया होता, तो ये लड़ाई होती ही नहीं। पुतिन की शर्तें किस हद तक मानी गईं, इस पर से परदा खुद ट्रंप ने किस्त-दर-किस्त उठाया है। डॉनल्ड ट्रंप का (यूक्रेन) युद्ध विरोधी रुख अपनाना दरअसल पश्चिम की उन तमाम साझा नाकामियों का ही नतीजा है। ट्रंप यह कहने की स्थिति में रहे हैं कि यह उनका युद्ध नहीं है। यह जो बाइडेन का युद्ध है। अगर वे राष्ट्रपति रहते तो ये लड़ाई कभी शुरू नहीं होती। इन तर्कों से ट्रंप ने अमेरिका की घरेलू राजनीति में युद्ध खत्म करने के पक्ष में माहौल बनाया है।

रूस ने जिस रोज यूक्रेन में अपनी विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू की, इस स्तंभकार ने अपनी टिप्पणी में लिखा थाः “आधुनिक काल का जब कभी इतिहास लिखा जाएगा, 24 फरवरी 2022 को उस दिन के रूप में दर्ज किया जाएगा, जब 1991 में अस्तित्व में आए कथित एक-ध्रुवीय विश्व के अंत की पुष्टि हो गई।” उस विश्लेषण में यूक्रेन युद्ध की बनती गई पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए ध्यान दिलाया गया था कि दिसंबर 2021 में रूस ने अपनी मांगें अमेरिका और नाटो के सामने रखी थीं। अगर तब उन मांगों को मान लिया गया होता, तो यह युद्ध नहीं होता- और ना ही तब एकध्रुवीय दुनिया के कथानक का इतने खुले रूप में पटाक्षेप होता।

उस आलेख में आगे कहा गया था- “मगर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने हिकारत के भाव के साथ रूस की मांग को सिरे से ठुकरा दिया। तब शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं था (या मुमकिन है कि वे दुनिया को इसकी भनक नहीं लगने देना चाहते थे) कि दुनिया पर उनके एकछत्र राज करने का दौर गुजर चुका है। अब यह साफ है कि पश्चिम को इसका अहसास कराने की लंबी तैयारी व्लादीमीर पुतिन ने पहले से की थी। चीन के साथ रूस की धुरी बनाने में उन्होंने अपनी जो ताकत झोंकी थी, उसके पीछे भी इस तैयारी के लक्षण तलाशे जा सकते हैँ। चार फरवरी 2022 को ये तैयारी अपने एक ठोस मुकाम पर पहुंची, जब शीतकालीन ओलंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह में भाग लेने बीजिंग गए पुतिन की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ शिखर वार्ता हुई। इस बातचीत के बाद दोनों ने साझा वक्तव्य जारी किया, तो विश्लेषकों ने उसे एक नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद बताया था।…

इस विश्व व्यवस्था में एक धुरी चीन और रूस हैं। इनमें एक आर्थिक महाशक्ति है, जबकि दूसरा उसी दर्जे की सैनिक महाशक्ति है। उन देशों के साथ सहानूभूति और समर्थन रखने वाले देशों की एक बड़ी संख्या है। अगर पश्चिमी देश इस बदली स्थिति को स्वीकार करते, तो फिर वे उस नजरिए से रूस के साथ पेश नहीं आते, जैसा उन्होंने हाल के महीनों में किया है। अगर वे इसे समझ पाते, तो चीन को घेरने की मुहिम में एक नए शीत युद्ध की जमीन वे तैयार नहीं करते। लेकिन उन्होंने ऐसा किया। तो आखिर किसी ना किसी दिन, किसी ना किसी ताकत के हाथों उनके सामने नए सच का आईना आना ही था। यही 24 फरवरी यूक्रेन के खिलाफ रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई के साथ हुआ है।” (पुतिन ने परदा गिरा दिया है – जनचौक)

पिछले साढ़े तीन साल में एक-एक कर उन बातों की पुष्टि हुई है। अमेरिका और उसके पीछे चलने वाले यूरोपीय देशों ने इस युद्ध के बहाने रूस को बर्बाद करने का गुमान पाला। रूस पर इतिहास के सबसे सघन एवं सख्त प्रतिबंध लगाए गए। इन प्रतिबंधों का हवाला देते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तब कहा था कि वे Ruble (रूस की मुद्रा) को rubble (मलबा) बना देंगे। पश्चिमी देशों ने तब रूस को दुनिया में अलग-थलग कर देने का इरादा जताया। लेकिन असल में हुआ क्या?

रूस की अर्थव्यवस्था को तबाह करने की कोशिश में यूरोपीय देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को बदहाल कर लिया। रूस से सस्ते कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस को ना खरीद कर उन्होंने अपने यहां महंगाई, रोजकोषीय घाटा और आर्थिक विकास दर में गिरावट को आमंत्रित किया। दूसरी तरफ रूस ने अपनी अर्थव्यवस्था को आत्म-निर्भरता की दिशा देने में कामयाब हुआ। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि अब दुनिया सिर्फ पश्चिमी देशों के उपभोग पर निर्भर नहीं है।

रूस को अपनी ऊर्जा एवं अन्य निर्यातों के लिए नए बाजार मिले। इसके अलावा ग्लोबल साउथ यानी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों के साथ उसके संबंध पहले की तरह बने रहे या यह भी कहा जा सकता है कि और गहरे हुए। यह साबित हुआ कि अमेरिका और यूरोप का मतलब सारी दुनिया नहीं है।

यूक्रेन के सैनिकों और भाड़े पर लाए गए अन्य लड़ाकों के कंधों पर रख कर नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (नाटो) ने अपनी हथियार चलाए। उनकी सोच यह थी कि इनके जरिए रूस को धराशायी कर दिया जाएगा, जिसके अस्त्र-शस्त्र जंग खा चुके हैं। मगर रूस का मिलिट्री- इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स पश्चिम की साझा हथियार उत्पादन क्षमता पर भारी पड़ा। नतीजा यह है कि आज यूक्रेन का बहुत बड़ा इलाके रूस के नियंत्रण में है।

डॉनल्ड ट्रंप का (यूक्रेन) युद्ध विरोधी रुख अपनाना दरअसल पश्चिम की उन तमाम साझा नाकामियों का ही नतीजा है। ट्रंप यह कहने की स्थिति में रहे हैं कि यह उनका युद्ध नहीं है। यह जो बाइडेन का युद्ध है। अगर वे राष्ट्रपति रहते तो ये लड़ाई कभी शुरू नहीं होती। इन तर्कों से ट्रंप ने अमेरिका की घरेलू राजनीति में युद्ध खत्म करने के पक्ष में माहौल बनाया है। यह रणनीति कितनी कारगर है, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि ट्रंप ने उन पुतिन के लिए अपने देश की धरती पर लाल कालीन बिछाने का साहस दिखाया, जिन्हें दुनिया में “पराया” बना देने का संकल्प उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ने जताया था। जिन पुतिन को पश्चिमी जगत में खलनायक के रूप में पेश किया गया था, उन्हें शिखर वार्ता के लिए स-सम्मान अमेरिका की धरती पर आमंत्रित किए जाने का प्रतीकात्मक महत्त्व सारी दुनिया को समझ में आया है।

अलास्का में हुई ट्रंप-पुतिन शिखर बैठक का नतीजा अब जग-जाहिर है। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि ट्रंप उन्हीं शर्तों या मांगों पर सहमत हुए, जिन्हें अगर 2022 में ही मान लिया गया होता, तो ये लड़ाई होती ही नहीं। पुतिन की शर्तें किस हद तक मानी गईं, इस पर से परदा खुद ट्रंप ने किस्त-दर-किस्त उठाया है। 15 अगस्त को हुई शिखर वार्ता के कुछ घंटों बाद उन्होंने कहा

     हम सीधे शांति समझौते पर जाएंगे, जिससे युद्ध खत्म होगा। उन्होंने दो टूक कहा कि सिर्फ युद्धविराम उनके एजेंडे पर नहीं है। जब लड़ाई शुरू हो गई, तो उसके बाद से रूस का जोर ऐसे शांति समझौते पर रहा है, जिसमें युद्ध के ‘मूल कारणों’ का समाधान हो। जबकि यूक्रेन युद्धविराम पर जोर देता रहा है, ताकि उसे अपनी सैन्य ताकत को फिर से संगठित करने का मौका मिले।

   लड़ाई शुरू होने के बाद जब दोनबास, दोनेत्स्क/ लुहांस्क सहित कई इलाकों पर जब रूसी फौज ने कब्जा जमा लिया, तब से रूस का कहना रहा है कि वह रूसी भाषी इन इलाकों को नहीं लौटाएगा। अलास्का वार्ता से पहले ही ट्रंप ने ‘इलाकों की अदला-बदली’ की बात कहनी शुरू कर दी थी। उसका अर्थ है कि शांति समझौते में यूक्रेन को अपने कई इलाके रूस को देने की बात माननी  होगी।

   18 अगस्त को ट्रंप ने यह भी दो टूक कह दिया कि क्राइमिया को लौटाने की बात अब एजेंडे पर नहीं है। क्राइमिया का 2014 में रूस में विलय हो गया था। उसके पहले यह यूक्रेन का हिस्सा था। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेन्स्की इसकी वापसी पर भी जोर देते रहे हैं।

 और ट्रंप ने यह भी साफ कर दिया कि यूक्रेन को नाटो की सदस्यता नहीं मिलेगी। रूस की यह ‘मूल मांग’ थी। दरअसल, 2022 में पश्चिमी देश इस मांग पर राजी हो जाते, तो लड़ाई होती ही नहीं। आखिरकार अब अमेरिका ने ये मांग स्वीकार की है।

गौरतलब है कि ट्रंप ने बिना जेलेन्स्की या यूरोप को भरोसे में लिए पुतिन को अमेरिकी धरती पर आमंत्रित किया। यूक्रेन युद्ध कैसे रुके, इसके फॉर्मूले पर पुतिन के साथ उन्होंने बिना जेलेन्स्की और यूरोप से बात किए बिना सहमति बना ली। इससे जेलेन्स्की प्रशासन और यूरोपीय राजधानियों में फैली बेचैनी को समझा जा सकता है। चूंकि पुतिन के साथ जिस फॉर्मूले पर सहमति बनी, उसे यूक्रेन में लागू किया जाना है, अतः उस बारे में बताने के लिए ट्रंप ने जेलेन्स्की को ह्वाइट हाउस बुलाया।

मगर संभवतः अपने पिछले (फरवरी के) अनुभव के कारण जेलेन्स्की वहां अकेले नहीं जाना चाहते थे। तो उन्होंने यूरोपीय नेताओं से साथ चलने की गुहार लगाई। उनकी इस गुजारिश पर यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उरसुला वान डेर लियेन, नाटो के प्रमुख मार्क रुटे, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, जर्मनी के चांसलर फ्रिडरिष मर्ज और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर साथ जाने को राजी हुए। ट्रंप ने उनसे मिलने का एलान करते हुए 18 अगस्त को कहा- ‘आज बहुत बड़ा दिन है। कभी एक साथ इतने यूरोपीय नेता ह्वाइट हाउस नहीं आए। उनकी मेजबानी करना मेरे लिए गर्व की बात है।’

ट्रंप के लिए भले यह गर्व की बात रही हो, लेकिन यूरोपीय नेताओं से उनकी मुलाकात यूरोप की अप्रसांगिकता पर मुहर लगने का अवसर बनी। यूरोपीय नेताओं के बैठने की जैसी व्यवस्था ट्रंप ने की, वैसा अक्सर दफ्तरों में उस समय होता है, जब वहां का बॉस अपने मातहत अधिकारियों के साथ मीटिंग करता है। अपनी कुर्सी पर बैठे ट्रंप के टेबल पर अर्धगोलाकार बनाते हुए जिस तरह यूरोपीय नेता बैठे, उसने दुनिया के सामने उनकी हैसियत को बेनकाब कर दिया। उस नजारे की तुलना लोगों ने तुलना व्लादीमीर पुतिन के अलास्का पहुंचने के समय से की, जब उनके स्वागत में विमान की सीढ़ी तक लाल कालीन बिछाई गई थी!

ट्रंप, जेलेन्स्की और अन्य यूरोपीय नेताओं की बैठक से यह साफ हो गया है कि ट्रंप ने पुतिन के साथ जो सहमति बनाई है, यूरोप उसका प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए अब जो बात घूम रही है, वह यूक्रेन की सुरक्षा का गारंटी की है। बताया जाता है कि इस बारे में भी पुतिन और ट्रंप के बीच सहमति बनी है। मगर इस बारे में जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। हां, ट्रंप यह दो टूक कह चुके हैं कि अमेरिकी फौज यूक्रेन नहीं भेजी जाएगी। उस अग्रिम मोर्चे की जिम्मेदारी यूरोप को संभालनी होगी। जेलेन्स्की ने यह जरूर कहा है कि यूक्रेन अमेरिका से 100 बिलियन डॉलर के हथियार खरीदेगा और यह पैसा यूरोप देगा। तो मुद्दा यह है कि क्या यूरोपीय देश की सेनाएं वहां भेजी जाएंगी?

रूस ने बेलाग कहा है कि वह यूक्रेन की धरती पर विदेशी फौज की किसी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करेगा। रूसी राजनयिक मिखाइल उल्यानोव ने कहा है कि ऐसी कोई सहमति अलास्का में नहीं बनी थी। (https://x।com/GildasMtl/status/1957915286100664456)

उधर रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने रूस के नियंत्रण वाली कोई जमीन लौटाने की संभावना से इनकार किया है। उन्होंने कहा- ‘इलाकों पर कब्जा करना कभी मुद्दा नहीं था- ना तो क्राइमिया पर, ना दोनबास या नोवोरोसिया पर। मकसद वहां रूसी लोगों की रक्षा करना है, जो वहां सदियों से रहते आए हैं। उन्होंने शहर, बंदरगाह और कारखाने बनाए हैं। ये इलाके इस शर्त पर यूक्रेन को दिए गए थे कि वह तटस्थता और निर्गुट नीति पर चलेगा। अब चूंकि यूक्रेन उन गारंटियों को छोड़ रहा है, तो एक स्वतंत्र देश के रूप में यूक्रेन की मान्यता ही समाप्त हो गई है।’ (https://x।com/rinalu_/status/1957906561197621559)

ये बातें ट्रंप- पुतिन मुलाकात के बाद कही गई हैँ। इनसे संकेत मिलता है कि यूक्रेन के लिए रूस कितनी रियायत करने को तैयार होगा। इनके आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर शांति समझौता होना है, तो यूक्रेन को क्राइमिया और रूस के नियंत्रण में गए उन तमाम इलाकों पर से अपना दावा छोड़ना होगा, जहां रूसी मूल की बहुसंख्या रहती है। बाकी इलाकों में रूसी भाषी लोगों और उनकी संस्कृति की सुरक्षा का वादा उसे करना होगा। नाटो में शामिल होने की मंशा का परित्याग उसे करना होगा। इसके बाद उसकी सुरक्षा की गारंटी का सवाल आएगा। संभवतः यह गारंटी भावात्मक (abstract) अधिक होगी। इसके किसी ठोस जमीनी इंतजाम की संभवना न्यूनतम है।

ऐसा समझौता अक्सर विजेता देश पराजित देशों पर थोपते हैं। यूक्रेन की विडंबना यह है कि वह जिसे अपना संरक्षक समझता रहा है, उसी ने- यानी अमेरिका ने- ऐसे शांति समझौते पर हामी भर दी है। यूक्रेन की मुश्किल यह है कि वह इस समझौते से इनकार करता है, तो ट्रंप प्रशासन उसके लिए सैन्य एवं वित्तीय मदद रोक सकता है। उस हाल में रूस चल रहे युद्ध को निर्णायक रूप से बहुत जल्दी निपटा देगा। संभव है कि तब रूसी सेनाएं यूक्रेन की राजधानी कीयेव तक पहुंच जाएं। यह तो तय है कि  यूरोप यूक्रेन का बचाव नहीं कर पाएगा। यूरोप उस हैसियत में होता, तो आज उसकी अप्रासंगिकता की बात क्यों होती? दरअसल, हकीकत तो है कि अमेरिकी मदद भी अब लंबे समय तक यूक्रेन की रक्षा नहीं कर पाएगी। ट्रंप प्रशासन की नीति इस बात की भी खुली आत्म-स्वीकृति है।

मतलब साफ है। यूक्रेन युद्ध ने दुनिया पर पश्चिमी वर्चस्व का पटाक्षेप कर दिया है। इससे एक नई दुनिया के निर्माण का रास्ता खुला है, जिसमें विभिन्न देशों के पास अपनी संप्रभु विकास के लिए बेहतर अवसर होंगे। हां, उन देशों के लिए मुश्किल बढ़ी है, जो बड़ी ताकतों के शक्ति-परीक्षण में किसी एक ताकत की प्रॉक्सी बनने की नादानी करेंगे।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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