ट्रंप का ताजा युद्धविराम भी “नोबेल महत्वाकांक्षा” से भरा लगता है—घरेलू संकटों के बीच एक चमकदार विरासत की कोशिश। पर इस बार भी व्यवहारिक समस्याएं हैं। बंधक रिहाई का कार्यक्रम, तब जबकि गाज़ा के बंदरगाह बर्बाद हैं; पुनर्निर्माण के लिए अरब पूंजी को स्थायित्व पर भरोसा नहीं। दो-राष्ट्र ढांचे या यरूशलम पर समानता के बिना यह फिर हिंसा का ईंधन बनेगा। अरब देश तालियां तो बजा रहे हैं, पर असल में सभी मन ही मन इसे जातीय सफ़ाया मानते हैं।
नाज़ुक युद्धविराम की छाया में गाज़ा विनाश की कगार पर है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की साहसिक 20-सूत्रीय “शांति योजना” को हमास की आंशिक स्वीकृति मिली है। इसके बदले इज़राइल ने लगातार जारी बमबारी रोकने और बंधकों की चरणबद्ध रिहाई के साथ मानवीय सहायता की अनुमति पर सहमति जताई है। बावजूद इसके ठहराव किसी समाधान जैसा नहीं लगता। यह तो जैसे आठ दशकों से चल रहे त्रासदी नाटक में एक “कॉमर्शियल ब्रेक” भर है।
अक्तूबर 2023 से अब तक गाज़ा में कोई 46 हज़ार से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। इनमें 18 हज़ार बच्चे हैं। 23 लाख आबादी वाला यह इलाका मलबे में बदल चुका है; 75 प्रतिशत बुनियादी ढांचा नष्ट है, और भुखमरी विस्थापितों के पीछे-पीछे चल रही है। ट्रंप की ताज़ा योजना, जो कुछ दिन पहले सार्वजनिक हुई, “डेरैडिकलाइज़्ड” यानी चरमपंथ-मुक्त गाज़ा की कल्पना करती है। उनकी कल्पना में यह समृद्ध तटीय इलाका “मिडिल ईस्ट का रिवेरा” बनेगा। लेकिन इस सपने की नींव असमानता पर है—और यह नई हिंसा की जड़ें बो सकती है।
युद्ध के बाद पुनर्निर्माण की उनकी रूपरेखा, जो अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के धन से चलेगी, गाज़ा को एक “लक्ज़री रिज़ॉर्ट” में बदलने की बात करती है। बंधक—अब भी 48 लोग हमास के पास—हर 72 घंटे के चक्र में छोड़े जाएंगे, बदले में फ़िलिस्तीनी कैदियों की रिहाई और राहत सामग्री बढ़ेगी। हमास की जगह अरब देशों की देखरेख में एक तकनीकी प्रशासनिक संस्था बनेगी, जबकि इज़राइल “रक्षात्मक नियंत्रण क्षेत्र” बनाए रखेगा। इज़राइल ने इसे स्वीकार कर लिया है, और हमास ने “कुछ तत्वों” को शर्तों के साथ मंज़ूरी दी है। काग़ज़ पर यह योजना साहसिक लगती है: युद्ध खत्म, पुनर्निर्माण शुरू, समृद्धि की ओर कदम। मगर सतह खुरचो, तो यह सस्ती कूटनीति की तरह बिखर जाती है।
अंतरराष्ट्रीय क़ानून की दृष्टि से यह योजना फ़िलिस्तीनी संप्रभुता के साथ सीधा खिलवाड़ है। करीब 20 लाख गाज़ावासियों के “स्वैच्छिक पुनर्वास” का प्रस्ताव दरअसल जबरन विस्थापन की श्रेणी में आता है—जो जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन है और रोम संविधि के तहत युद्ध अपराध माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) बार-बार यह पुष्टि कर चुका है कि फ़िलिस्तीनियों को आत्मनिर्णय का अधिकार है। पर यह योजना इज़राइल को “बफ़र ज़ोन” के नाम पर गाज़ा की 16% ज़मीन हड़पने की अनुमति देती है—यह किसी जातीय सफ़ाए जैसा है, बस इसकी भाषा आधुनिक है।
मानवाधिकार संगठनों—खासतौर पर ह्यूमन राइट्स वॉच—ने इसे “नए सांचे में पुराना रंगभेद” कहा है। वेस्ट बैंक में बस्तियां बढ़ती जा रही हैं; गाज़ा के शरणार्थियों को, जिनकी वापसी पर संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 194 के तहत अधिकार है, अब “सैनिटाइज्ड एनक्लेव” में बंद किया जा रहा है—उनके सपनों को समुद्र किनारे के कॉन्डो में बदला जा रहा है। ट्रंप की यह योजना अमेरिकी विदेश नीति को परंपरागत नैतिकताओं से अलग करती है—कानूनी नींव की जगह “डील की छवि” को तरजीह देती है। पर जिस इलाके में कानून अक्सर पहली शिकार बनता है, वहां यह मॉडल अंतरराष्ट्रीय मानदंडों को खोखला कर सकता है—और दुष्ट ताकतों को सीमाएं बदलने की छूट दे सकता है।
इज़राइल की भूमिका इस पूरी त्रासदी में “राज्य आतंकवाद” जैसी प्रतीत होती है। अक्टूबर 2023 से शुरू हुए उसके सैन्य अभियान ने अस्पतालों, स्कूलों और राहत काफ़िलों तक को तबाह किया है। गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार अब तक 1 लाख 4 हज़ार से अधिक लोग घायल हो चुके हैं। यह सब उस नाकेबंदी के बीच हुआ है जो भूख को हथियार बना चुकी है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू “प्रतिशोध” की बाइबिलीय भाषा बोलते हुए अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) के वारंट से बचते रहे हैं, जबकि उनकी अतिवादी गठबंधन सरकार बस्तियों में हिंसा को उकसाती रही है।
ट्रंप की योजना इस बर्बरता पर कोई प्रश्न नहीं उठाती। उलटे, वह इज़राइल को सुरक्षा गारंटी के नाम पर और नियंत्रण सौंप देती है—बिना किसी जवाबदेही के। यह शांति नहीं, एक फाउस्टियन सौदा है: आज राहत, कल प्रतिशोध।
हमास भी निर्दोष नहीं। 7 अक्तूबर 2023 की उस भयावह घटना—जब 1,200 इज़राइली नागरिक मारे गए—ने इस नरक के द्वार खोले। हमास के चार्टर में इज़राइल के विनाश की कामना छिपी है, और ईरानी रॉकेटों ने उस नफरत को हवा दी है। उनकी “मानव ढाल” रणनीति ने गाज़ा को शहीदी की भट्टी बना दिया है। पर ट्रंप की “डेरैडिकलाइज़ेशन” की बात बिना परिभाषा के खोखली लगती है—यह संगठन को खत्म करने की मांग करता है पर उसके पीछे की वैचारिक या क्षेत्रीय जड़ों को नहीं छूता।
फ़िलिस्तीनी राजनीति का बिखराव भी इस जटिलता को बढ़ाता है। हमास की उग्रता और फतह की निष्क्रियता के बीच फंसे नेताओं ने कई बार समझौते के मौके गंवाए—2000 का कैंप डेविड, 2008 की ओल्मर्ट पेशकश—सब अधूरे रह गए। यरूशलम और शरणार्थियों पर कठोर रुख ने हर अवसर को ठुकरा दिया। ट्रंप की योजना, जो “तकनीकी शासन” थोपती है, दरअसल फ़िलिस्तीनियों से उनका एजेंसी छीनती है और इसे “नव-उपनिवेशवाद” के रूप में देखा जा रहा है।
क्या यह शांति टिकाऊ है या सिर्फ़ दिखावा? ट्रंप का अतीत कहता है—दूसरा। उनकी 2020 की “अल्टीमेट डील” पहले ही खलास हो चुकी है। यह नया संस्करण भी “नोबेल महत्वाकांक्षा” से भरा लगता है—घरेलू संकटों के बीच एक चमकदार विरासत की कोशिश। पर इस बार भी व्यवहारिक समस्याएं हैं—72 घंटे में बंधक रिहाई का कार्यक्रम, तब जबकि गाज़ा के बंदरगाह बर्बाद हैं; पुनर्निर्माण के लिए अरब पूंजी को स्थायित्व पर भरोसा नहीं। दो-राष्ट्र ढांचे या यरूशलम पर समानता के बिना यह फिर हिंसा का ईंधन बनेगा। अरब देश तालियां तो बजा रहे हैं, पर असल में इसे “प्रगति के नाम पर जातीय सफ़ाया” मानते हैं।
इस संघर्ष का 80 साल लंबा इतिहास इसी मूर्खता की मिसाल है। 1948 के नक़बा में 7.5 लाख फ़िलिस्तीनी अपने घरों से निकाले गए। अब तक 1 लाख से अधिक फ़िलिस्तीनी और करीब 25 हज़ार इज़राइली मारे जा चुके हैं—चार गुना असमानता। पीढ़ियाँ शरणार्थी शिविरों में पली हैं, उनके मानस पर इंतिफ़ादा के घाव हैं—पत्थरों के सामने टैंक। दो मिलियन गाज़ावासी खुले जेल में, वेस्ट बैंक में लोग चौकियों में घुटते हुए—यह सामूहिक आघात चरमपंथ को ही जन्म देता है।
आर्थिक दृष्टि से यह एक पाँच सौ अरब डॉलर का गड्ढा है। 2024 के मध्य तक इज़राइल की गाज़ा युद्ध की लागत 250 अरब शेकेल (करीब 67 अरब डॉलर) तक पहुँच चुकी थी, जिससे 2023 की आख़िरी तिमाही में उसका GDP 21% तक गिरा। फ़िलिस्तीन की अर्थव्यवस्था तबाह है—2007 से 2023 के बीच प्रति व्यक्ति GDP 54% घटा, व्यापार घाटा GDP का 40% हो गया, और इज़राइल पर निर्भरता और गहरी हो गई। भूमध्यसागर के लेवांट बेसिन में छिपे 453 अरब डॉलर मूल्य के गैस संसाधन युद्ध की बंधक बने हुए हैं।
रैंड कॉर्पोरेशन के आकलन के अनुसार हिंसक प्रतिरोध इज़राइल को हर दशक 250 अरब डॉलर का नुकसान पहुँचाता है, जबकि अहिंसक आंदोलन की लागत उसका एक अंश होती। 1948 से अब तक अमेरिका ने इज़राइल को 310 अरब डॉलर की सहायता दी है—एक ऐसे चक्र को पोषित करने में, जो वैश्विक बाज़ारों से ही खून चूसता है। कल्पना कीजिए, अगर यही धन ढांचे और शिक्षा पर लगा होता—तो शायद यह क्षेत्र मलबे नहीं, नवोन्मेष का केंद्र होता।
अमेरिका इस नरसंहार को बहुत पहले रोक सकता था। इज़राइल के जन्म का मध्यस्थ होने के नाते वॉशिंगटन के पास संयुक्त राष्ट्र में वीटो शक्ति थी। अगर उसने 1970 के दशक में प्रस्ताव 242—“भूमि के बदले शांति”—को लागू कराया होता, या ओस्लो समझौते के बाद बस्तियों पर रोक के बिना सहायता घटा दी होती, तो शायद इतिहास अलग होता। पर “ब्लैंक चेक समर्थन” ने असमानता को स्थायी बना दिया और कूटनीति को तमाशा। ट्रंप की आवेग-आधारित नीति ने इसे और चरम पर पहुँचा दिया—अल्पकालिक राजनीतिक लाभों को टिकाऊ न्याय से ऊपर रखा।
आगे की तस्वीर धुंधली है—थोड़ी उम्मीद, ज़्यादा भय। ट्रंप की यह योजना कुछ पल का विराम दे सकती है, पर कब्ज़े की जड़ों—बस्तियों, नाकेबंदी, अधिकारों के हनन—को छुए बिना यह घाव सड़ता रहेगा। हमास के भीतर विभाजन है, इज़राइली अतिवादी सक्रिय हैं, फ़िलिस्तीनी गुस्से में हैं। 2027 तक फिर एक नया विस्फोट संभव है—गुरिल्ला छाया बनाम राज्य की ताकत, और नोबेल का सपना राख में बदलता हुआ।
सच्ची शांति किसी सौदे से नहीं, न्याय से आती है। दो समान और जीवक्षम राज्यों, आर्थिक समानता और जवाबदेही के बिना यह केवल एक और अध्याय है—इस खून और अरबों डॉलर से सनी किताब का। निवेशकों और मानवतावादियों के लिए गणित साफ़ है—या तो इस चक्र को खत्म करें, या हमेशा इसकी कीमत चुकाते रहें।


