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हर योजना और मामले में धमक मनवाना!

जब करना जो मर्जी है फिर बिना लोगों की जान लिए कर लें। काले कृषि कानून लाए। 750 से ज्यादा किसान मरे। फिर वापस लिए। काहे को लाए थे?  लोगों में अपनी सत्ता की धमक पैदा करने?  हो गई। उससे पहले नोटबंदी से हो गई थी। कोरोना में अचानक लाक डाउन करके लाखों लोगों को सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चला कर, सबके करोबार बंद करवा कर हो गई थी।.. तब चुनाव सूची के लिए गरीब बीएलओ की बलि लेने की क्या जरूरत है?

मतदाताओं का  विशेष गहन पुनरीक्षण हो रहा है। 12 राज्यों की जनता सारे काम छोड़कर इसमें लगी है। और जो काम करवाने वाले हैं वे बीएलओ सर्वाधिक बुरे हाल में है।  काम के दबाव सें कईयों की मौत की खबरें आ रही हैं। कईयों ने तो डिप्रेशन में आत्महत्या तक की है। नौकरी छोड़ने ,उन्हें नौकरी से निकालने की धमकी देने, वेतन रोकने जैसी तमाम तरह की खबरें आ रही हैं।

लेकिन इस बीच सिर्फ एक खबर नहीं आ रही है कि प्रधानमंत्री मोदी ने या मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने 4 दिसबंर तक एसआईआर करने की तारीख को बढ़ाने की बात कही है या बीएलओ, आम जनता के प्रति कोई हमदर्दी का इजहार किया है।

बिल्कुल वही हाल है जो नोटबंदी के समय हुआ था। बस अभी तक रहम इतना है कि प्रधानमंत्री मोदी उस तरह जनता की परेशानियों का मजा नहीं ले रहे हैं जैसे नोटबंदी के बाद विदेश में लिया था कि घर में शादी है और पैसे नहीं हैं! जापान में उन्होंने शादी वाले घर का मजाक उड़ाते हुए बोला था कि 8 तारीख को अचानक हजार और पांच सौ के नोट खत्म।

आज भी कोई जनता के लिए बीएलओ के लिए ऐसी ही क्रूर और अमानवीय बात कह सकता है। कुछ पता नहीं क्योंकि सारी मान्यताएं ही, तरीके ही ऐसे बनाए जा रहे हैं जिसमें लोग कहीं हैं ही नहीं। दिल्ली और एनसीआर में भयानक प्रदूषण हो रहा है। मगर प्रधानमंत्री मोदी एक शब्द बोलने को तैयार नहीं। बच्चे बुजुर्ग सब परेशान। लेकिन प्रधानमंत्री की तरफ से कोई मीटिंग नहीं कोई इससे निपटने की बात नहीं। मान लिया है कि जनता यह सब सह लेगी।

इसीलिए लगातार इस तरह के काम किए जा रहे हैं। चार दिसम्बर क्यों जरूरी है एसआईआर के फार्म जमा करने के लिए? क्यों इस तारीख को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता ? उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में तो अभी कोई चुनाव ही नहीं है। और जिन राज्यों बंगाल केरल तमिलनाडु पुडुचेरी में अगले साल चुनाव हैं वहां भी अभी चुनाव की घोषणा में समय है। फिर इतनी जल्दबाजी क्यों?

इस जल्दबाजी की कीमत खास तौर से सामान्य सरकारी कर्मचारी जिन्हें बीएलओ के तौर पर लगाया गया है वे चुका रहे हैं। देश में किसी विशेष अभियान में इससे पहले इस तरह मृत्यु के आंकड़े नहीं आए। बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं में जहां हमेशा तेजी की जरूरत होती है वहां भी सबको प्रेरित करके काम करवाया जाता है, दबाव में नहीं। पोलियो के खिलाफ इतना बड़ा देशव्यापी बरसों चलाया गया। पूरी व्यवस्था के साथ स्मूथ ( सहज) तरीके से। शत प्रतिशत सफल रहा।

लेकिन अब काम की सफलता शायद महत्वपूर्ण नहीं रही है काम का प्रचार और उसके जरिए लोगों को परेशान करने का परपीड़ा सुख ज्यादा दिखाई देता है। और उद्देश्य! वह तो संदिग्ध है ही। 1950 जब चुनाव आयोग का गठन हुआ तब से कुछ सालों पहले तक पूरी दुनिया में एक प्रतिष्ठित संस्था का स्थान रखता था मुख्य काम वोटर लिस्ट में नए नाम जोड़ने का होता था। कोई नाम छूटे ना का नारा हुआ करता था। जैसे पोलियो के खिलाफ अभियान में घर घर जाकर पूछा जाता था कि कोई छोटा बच्चा तो नहीं

वैसे ही चुनाव आयोग पहले घर घर अपने कर्मचारी भेजकर यह पूछता था कि कोई नया बच्चा 18 साल का तो नहीं हुआ। नाम जोड़ना मुख्य काम हुआ करता था।

मगर अब जो एसआईआर हो रहा है उसमें बीएलओ नया नाम जोड़ने का फार्म लेकर ही नहीं आ रहे हैं। सिर्फ एक फार्म दिया जा रहा है। जिसे आप कलेक्टर जो जिले में जो इसकी सारी व्यवस्थाएं देख रहे हैं से भी भरने को कहें तो वे भी गलती कर देंगे। फार्म सरल बनाने के बदले जटिल तरीके से बनाया गया है। 2003 की वोटर लिस्ट इसका आधार है। मगर उसमें अपना नाम ढुंढना और अगर नहीं है तो फिर माता पिता का, दादा दादी, नाना नानी का नाम ढुंढकर उनके वोटर कार्ड की डिटेल लिखना बहुत मुश्किल है। इसमें उस समय की विधानसभा सीट का नाम, निर्वाचन क्षेत्र की संख्या, भाग संख्या ( यह क्या है? यह किसी को समझ में नहीं आ रही) क्रम संख्या ( यह भी कौन सी क्रम संख्या है लोगों को उलझा रही है) सब लिखना है।

तो जिनका फार्म आ गया है उनके लिए भरना मुश्किल। और जिनका नहीं आया है उनके लिए यह पता करना मुश्किल कि क्यों नहीं आया है।यह सारी कवायद इस तरह करवाई जा रही है जैसे इसका उद्देश्य ही जनता को परेशान करना हो और नाम काटना हो। बिहार में 65 लाख नाम काटे ही गए। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया। कहा यह मृत हैं इसलिए नाम काटे। वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए कि मी लार्ड हम जिन्दा हैं। कई लोग नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के यहां पहुंच गए। राहुल ने उनके साथ चाय पी और कहा कि में मृत लोगों के साथ चाय पी रहा हूं! मगर इस मारक व्यंग्य का भी कोई असर नहीं।

सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह हाथ खड़े कर चुका है और चुनाव आयोग पूरी तरह मनमानी पर उतारू! बिहार चुनाव की जीत का श्रेय उसे दिया जा रहा है। और वह शायद इसके लिए खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा है।

ठीक है बीजेपी भले खुश हो कि उसका 90 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट आया है। चुनाव आयोग खुश हो कि वह इतना ताकतवर हो गया कि यह कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट खुश हो कि वह यह सब करने दे सकता है। लेकिन इन सब के लिए गरीब बीएलओ की बलि लेने की क्या जरूरत है? जो करना है कर ही रहे हैं। तो बिना बीएलओ पर दबाव बनाएं कर लें। जैसे बैंकों के बाहर लाइन लगवाई थी वैसे ही तहसील कलेक्ट्रेट के बाहर लगवा लें कि फार्म यहां मिलेंगे। यहीं जमा होंगे। बीएलओ को मुक्त कर दें।

जब करना जो मर्जी है फिर बिना लोगों की जान लिए कर लें। काले कृषि कानून लाए। 750 से ज्यादा किसान मरे। फिर वापस लिए। काहे को लाए थे?  लोगों में अपनी सत्ता की धमक पैदा करने?  हो गई। उससे पहले नोटबंदी से हो गई थी। कोरोना में अचानक लाक डाउन करके लाखों लोगों को सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चला कर, सबके करोबार बंद करवा कर हो गई थी। भारत के लोग मान चुके हैं कि आप सर्वशक्तिमान हैं। जो चाहे कर सकते हैं। बस अमेरिका नहीं मान रहा। चीन नहीं मान रहा। उन्हें मनवाइए! भारत के लोगों को माफ कीजिए!

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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