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एसआईआर पर जिद छोड़े चुनाव आयोग

मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर एक जरूरी कदम है। मतदाता सूची की शुद्धता बहाल करने के लिए पूरे देश में निश्चित रूप से एसआईआर होना चाहिए। बिहार में इसका लाभ दिखा है। करीब 70 लाख नाम मतदाता सूची से कटे और कुछ राजनीतिक आपत्तियों को छोड़ दें तो कहीं से वास्तविक मतदाताओं की ओर से इसका विरोध नहीं हुआ। मतदाता सूची के शुद्ध होने का असर यह हुआ कि बिहार में पहली बार मतदान प्रतिशत 65 से ऊपर गया। ‘द हिंदू’ सहित कई अखबारों ने आंकड़ों के साथ बताया कि किसी भी जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष में अप्रत्याशित रूप से या अनुपात से ज्यादा नाम नहीं कटे हैं।

इसलिए पूरे देश की मतदाता सूची का शुद्धिकरण होना चाहिए। मृत मतदाताओं, स्थायी रूप से शिफ्ट कर चुके मतदाताओं और एक से ज्यादा जगह नाम वाले मतदाताओं के नाम निश्चित रूप से काटे जाने चाहिए। यह अच्छा कदम है लेकिन क्या इस अच्छे कदम को लागू करने की जिद में किसी हद तक जाया जा सकता है? क्या इसे लागू करते हुए जमीन पर सामने आ रही वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान देने की कोई जरुरत नहीं है? क्या इसकी कुछ बुनियादी गड़बड़ियों को ठीक नहीं किया जाना चाहिए? इन सवालों का जवाब यह है कि चुनाव आयोग को निश्चित रूप से अपनी जिद छोड़नी चाहिए और जमीनी समस्याओं को समझते हुए उसे दूर करना चाहिए।

चुनाव आयोग को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का विरोध राजनीतिक लग सकता है या तमिलनाडु के एमके स्टालिन और केरल के पिनरायी विजयन का विरोध राजनीतिक लग सकता है। वहां बूथ लेवल अधिकारी यानी बीएलओ के प्रदर्शन, विरोध, काम पर नहीं आने आदि के पीछे राजनीति देखी जा सकती है। लेकिन भाजपा शासित राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश या राजस्थान से जैसी खबरें आ रही हैं, चुनाव आयोग उनकी अनदेखी क्यों कर रहा है? कम से कम उन्हें तो आधार बनाया जाए और जरूरी सुधार किए जाएं?

गुजरात के गिर सोमनाथ जिले की हृदयविदारक घटना से भी क्या चुनाव आयोग के दिल में ख्याल नहीं आया कि कुछ सुधार किया जाए? गिर सोमनाथ जिले के 40 साल के एक शिक्षक अरविंद मुलजी वाधेर ने एक बेहद भावुक पोस्ट लिख कर आत्महत्या कर ली। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, कोडिनार के छारा कन्या प्राथमिक स्कूल में शिक्षक अरविंद ने फांसी लगाकर जान दे दी। अपनी पत्नी के नाम सुसाइड नोट में उन्होंने लिखा, ‘मैं अब यह एसआईआर का काम नहीं कर सकता… मैं पिछले कुछ दिनों से लगातार थका हुआ और मेंटली स्ट्रेस में महसूस कर रहा हूं। अपना और हमारे बेटे का ख्याल रखना। मैं तुम दोनों से बहुत प्यार करता हूं… लेकिन अब मेरे पास यह आखिरी कदम उठाने के अलावा कोई चारा नहीं है’। एक जिम्मेदार शिक्षक अरविंद ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि उनके काम के दस्तावेज स्कूल को सौंप दिए जाएं।

इसी तरह की हृदयविदारक घटना उत्तर प्रदेश की भी है। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में लोकपाल सुधीर एसआईआर के काम में लगे थे। उनकी शादी 26 नवंबर को होने वाली थी। उन्होंने शादी से जुड़े कामों के लिए छुट्टी मांगी लेकिन उनको छुट्टी नहीं मिली। उलटे सरकारी अधिकारियों ने उनके घर जाकर धमकाया और नौकरी छीन लेने की चेतावनी दी। अपने घर में परिवार के सामने हुए इस अपमान से आहत सुधीर ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। सोचें, उस सरकारी कर्मचारी के सामने कैसी असहायता की स्थिति रही होगी! लेकिन देश की क्रूर और बर्बर हो चुकी नौकरशाही और राजनीतिक व्यवस्था के लिए उस युवक की बेबसी का कोई अर्थ नहीं है।

ये दो प्रतीकात्मक घटनाए हैं। ऐसी दो दर्जन घटनाएं देश भर में हुई हैं। गुजरात के अरविंद हों, रमेश हों, उषाबेन हों या डिंकल सिंगोड़ीवाला या कल्पना पटेल इन सबकी मौत या खुदकुशी के पीछे ऐसी कोई न कोई कहानी है। राजस्थान के मुकेश, हरिओम और संतराम हों या मध्य प्रदेश के उदयभान, भुवन, रमाकांत, सीताराम, मनीराम या सुजान सिंह हों या उत्तर प्रदेश के विजय कुमार वर्मा, बिपिन यादव या सुधीर हों ये सब एसआईआर के काम में लगे थे और काम के अत्यधिक दबाव की वजह से उन्होंने आत्महत्या की है या अचानक मौत हुई है। ये सब भाजपा शासित राज्यों के कर्मचारी हैं। तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में भी अनेक बूथ लेवल अधिकारियों ने आत्महत्या की है या उनकी मौत हुई है।

इस तरह की घटनाओं को रोकना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। अगर चुनाव आयोग सिर्फ यह जिद छोड़ दे कि एक महीने के अंदर एसआईआर का पहला चरण पूरा करना है तो ऐसी घटनाएं अपने आप रूक जाएंगी। ठीक है कि बिहार में एक महीने में पहला चरण यानी मतगणना प्रपत्र बांटने और उन्हें वापस लेकर डिजिटली अपलोड करने का काम पूरा हो गया था लेकिन इससे कोई संवैधानिक बाध्यता या मेडिकल मजबूरी तो नहीं बन गई है कि यह काम हर जगह एक महीने में ही करना है! बिहार में समय नहीं था लेकिन जिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अभी एसआईआर चल रहा है वहां तो समय है। गुजरात में तो 2027 के अंत में चुनाव हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में 2028 के अंत में चुनाव है। उत्तर प्रदेश में भी मार्च 2027 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में जरूर अगले साल अप्रैल में चुनाव हैं लेकिन वहां भी अभी छह महीने का समय है। चुनाव आयोग ने बिहार में एक अक्टूबर को अंतिम मतदाता सूची जारी की थी और छह अक्टूबर को चुनाव घोषित किया था। इस लिहाज से भी चुनावी राज्यों में आयोग के पास मार्च तक का समय है। अगर चुनाव आयोग एक महीने में पहला चरण पूरा करने की जिद छोड़ दे और इसे दो महीने भी कर दे तो कर्मचारियों के ऊपर इतना दबाव नहीं होगा कि उसकी वजह से उनकी मौत हो जाए या वे आत्महत्या कर लें।

एसआईआर की पूरी प्रक्रिया में जो बुनियादी खामियां थीं उनमें से बहुत का निपटारा सुप्रीम कोर्ट ने कर दिया है। आधार को स्वीकार करने से लेकर नाम जोड़ने के आवेदन के उपायों तक कई चीजें सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं की सुनवाई से तय हो गई हैं। हालांकि अभी अंतिम फैसला नहीं आया है लेकिन जितने सुधार हुए हैं उनसे अनेक विपक्षी पार्टियां संतुष्ट हैं। मिसाल के तौर पर बिहार में ही मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद आपत्ति बंद कर दी थी। लेकिन एक सबसे बड़ी खामी इसे पूरा करने के लिए निर्धारित की गई डेडलाइन की है।

चुनाव आयोग ने पहला चरण एक महीने में और पूरी प्रक्रिया तीन महीने में समाप्त करने की डेडलाइन तय करके एसआईआर करने वाले कर्मचारियों के लिए मुसीबत पैदा कर दी है। कर्मचारी इस डेडलाइन का दबाव नहीं झेल पा रहे हैं। इतना ही नहीं उनके मूल कामकाज पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है। कई राज्यों से खबर है कि शिक्षकों के एसआईआर के काम में लगे होने की वजह से 10वीं और 12वीं के फॉर्म भरने का काम पीछे छूट रहा है। उसमें देरी हो रही है। शिक्षकों पर दोनों काम समय पर निपटाने का दबाव है। अगर फॉर्म भरने का काम समय पर नहीं पूरा होता है तो उन पर अनुशासन की कार्रवाई हो सकती है।

सोचें, पढ़ाई का क्या होगा? उस बारे में तो कोई सोच ही नहीं है रहा है कि शिक्षक एसआईआर का काम कर रहे हैं तो बच्चों का सिलेबस कौन पूरा कराएगा! पिछले दिनों एक खबर आई थी, जिसके मुताबिक पढ़ाई के अलावा शिक्षकों को 17 ऐसे काम करने पड़ते हैं, जो उनकी सेवा शर्तों में नहीं आते हैं। उसमें बच्चों को पढ़ाना सबसे आखिरी पायदान पर है। एसआईआर से लेकर मतदान और मतगणना कराने का काम उनके मुख्य कामों में शामिल है। अभी तो एसआईआर के बाद उनको जनगणना के काम में भी लगना है। बहरहाल, एसआईआर की प्रक्रिया शुरू होने पर कई और समस्याएं सामने आई थीं। जैसे शिक्षकों व कर्मचारियों के प्रशिक्षण की अवधि को उनकी सेवा में छुट्टी के तौर पर नहीं देखा जा रहा था, बल्कि उनको अनुपस्थित बताया जा रहा था। इसी तरह बीएलओ और बीएलए दोनों का प्रशिक्षण ठीक ढंग से नहीं होने की शिकायतें भी आई थीं। ये सारी शिकायतें दूर हो जातीं अगर चुनाव आयोग हर हाल में एक महीने में पहला चरण और तीन महीने में प्रक्रिया पूरी करने की जिद छोड़ देता।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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