प्रसिद्ध चित्रकार एवम कला समीक्षक अशोक भौमिक ने अपने विचारोत्तेजक व्याख्यान में चित्रकला की दुनिया में एक नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने एक नई स्थापना दी कि महान चित्रकार राजा रवि वर्मा से भारतीय चित्रकला में आधुनिकता की शुरुआत नहीं हुई थी, बल्कि रविंद्रनाथ टैगोर और अमृता शेरगिल ने भारतीय चित्रकला में आधुनिकता और लोकतंत्र को स्थापित किया था। जबकि अब तक यही माना जाता रहा कि कला में आधुनिकता की शुरुआत राजा रवि वर्मा से होती है।
राजा रवि वर्मा को भारत का पहला आधुनिक चित्रकार माना जाता रहा है। 1848 में जन्मे राजा रवि वर्मा का कद भारतीय चित्रकला के इतिहास में कुछ वैसा ही था, जैसा विश्व प्रसिद्ध चित्रकार वैन गॉग का था। वे वैन गॉग से पांच साल और रविंद्र नाथ टैगोर से 13 साल बड़े थे वे राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और केशव चन्द्र सेन से छोटे थे, जो बंगाल पुनर्जागरण के नायक थे। ग़ालिब का निधन 1869 में हुआ जिस साल गांधी जी का जन्म हुआ था। ग़ालिब को पहला आधुनिक शायर माना जाता है। जब ग़ालिब मरे राजा रवि वर्मा 21 साल के युवक थे।
राजा रवि वर्मा का निधन 1905 में हुआ था। यह वर्ष बंग भंग का था। उन्होंने 56 वर्ष की आयु पाई थी। प्रेमचन्द भी इतनी ही उम्र में मरे थे। राजा रवि वर्मा भारतेंदु से बड़े थे जो हिंदी नवजागरण के नायक थे। 1850 में शिमला में पहला स्टूडियो खुला था। पारसी थिएटर की शुरुआत भी 1850 में हुई थी। इस तरह कह सकते हैं कि राजा रवि वर्मा नवजागरण काल में पैदा हुए लेकिन वे बंगाल में नहीं, बल्कि दक्षिण में पैदा हुए, जहां बंगाल पुनर्जागरण की लहर नहीं पहुंची थी।
टैगोर और विवेकानंद समकालीन थे। 1892 में बंकिम का निधन हुआ था और टैगोर ने उन पर लेख भी लिखा था। नटी विनोदिनी भी टैगोर की समकालीन थीं। इस तरह भारत में कला और साहित्य को लेकर एक वातावरण निर्मित हो रहा था। वह एक प्रबोधन काल था।
इस कालखंड को लेकर प्रसिद्ध चित्रकार एवम कला समीक्षक अशोक भौमिक ने अपने विचारोत्तेजक व्याख्यान में चित्रकला की दुनिया में एक नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने एक नई स्थापना दी कि महान चित्रकार राजा रवि वर्मा से भारतीय चित्रकला में आधुनिकता की शुरुआत नहीं हुई थी, बल्कि रविंद्रनाथ टैगोर और अमृता शेरगिल ने भारतीय चित्रकला में आधुनिकता और लोकतंत्र को स्थापित किया था।
जबकि अब तक यही माना जाता रहा कि कला में आधुनिकता की शुरुआत राजा रवि वर्मा से होती है। प्रख्यात कला विदुषी भी मानती हैं कि कला में आधुनिकता का प्रारंभ राजा रवि वर्मा के चित्रों से होता है। आखिर यह आधुनिकता है क्या? इसका लोकतंत्र से क्या नाता है?
उन्होंने कहा कि भारत में कला मूर्तिकला के रूप में थी और वह मंदिरों और गुफाओं में अजंता आर्ट, खजुराहो एवम मुगल आर्ट के रूप में थी और चित्रकारों, कलाकारों को खुद को अभिव्यक्त करने की आज़ादी नहीं थी। वह निजी कला नहीं थी, बल्कि उन्हें ऐसी मूर्तियां और भित्ति चित्र बनाने के आदेश दिए गए थे। इसलिए उसमें कलाकार की स्वतंत्रता नहीं थी।
अशोक भौमिक का मानना है कि किसी भी कला के लिए दो बातें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। पहली, किस तरह की कला का सृजन करना है और उसे कला को किस तरह सृजित करना है क्योंकि प्राचीन काल और मध्यकाल में जो कला हमारे यहां थी उसमें कलाकार को विषय की आजादी नहीं थी और नहीं फॉर्म की।
उन्होंने कहा कि अजंता एलोरा या खजुराहो में जो कला दिखाई देती है वह वह कलाकार की स्वतंत्र चेतना से नहीं बनी थी, बल्कि वहां कलाकार एक श्रमिक की तरह था और उसे ऐसा बनाने के लिए शासकों द्वारा कहा गया था लेकिन असली कला तब है जब कलाकार खुद स्वतंत्र हो। वह कला को भी मुक्ति देता हो और खुद भी मुक्त होता हो।
उन्होंने राजा रवि वर्मा और उनके बाद बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि 1905 तक भारत में जो चित्रकला थी वह दर असल हिंदू कला थी। उसमें देवी देवताओं के चित्र अधिक होते थे। लेकिन क्या धार्मिक होने से आदमी आधुनिक नहीं होता? गांधी भी धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन उनसे बड़ा आधुनिक तब कौन हो सकता था? विवेकानंद भी धार्मिक व्यक्ति थे क्या तब वे बंगला समाज में आधुनिक नहीं माने गए?
उत्तर भारत में आर्य समाज आंदोलन और बंगला में ब्रह्मो समाज का आंदोलन अपने आप में आधुनिक नहीं था! राजा रवि वर्मा की आधुनिकता परम्परा से निकली थी। उसमें परम्परा का निषेध नहीं था। वह धार्मिक होते भी धर्मनिरपेक्ष थी जैसे गांधी जी धर्मनिरपेक्ष होते हुए आधुनिक थे।
अशोक भौमिक का कहना है कि जब से चित्रों के प्रिंट निकालने लगे तब से कला सार्वजनिक हुई है क्योंकि मुगल काल में जो चित्रकला थी उसमें प्रिंट की व्यवस्था नहीं थी और वह दरबार तक सीमित थी इसलिए जनता उस कला से परिचित नहीं थी लेकिन जब वह क्लब के रंगीन प्रिंट निकालने लगे तब वह घर घर में दिखाई पड़ने लगी।
उन्होंने कहा कि वर्ष 1941 भारतीय चित्रकला के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष है क्योंकि टैगोर और अमृता शेरगिल दोनों की का निधन इसी वर्ष हुआ था। गौरतलब है कि हिंदी पट्टी में जयशंकर प्रसाद और रामचन्द्र शुक्ल भी 1941 में चल बसे थे। प्रेमचन्द तो 1936 में ही चल बसे थे।
टैगोर की पहली चित्र प्रदर्शनी फ्रांस में लगी थी और तब अमृता शेरगिल भी वहां मौजूद थीं। अमृता शेरगिल ने टैगोर के चित्रों के बारे में कहा है कि टैगोर की कविता से अच्छे उनके चित्र ही हैं। लेकिन टैगोर के चित्रों पर अभी गंभीरता से बात नहीं हुई है। राजा रवि वर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी 1893 में वियना में लगी थी।
सत्यजीत रे ने भी कहा है कि टैगोर पर किसी भी चित्रकला का प्रभाव नहीं है चाहे वह भरतीय परम्परा की कला हो या यूरोपीय चित्रकला। भौमिक के शब्दों में टैगोर का कहना था साहित्य में हम भाषा का सहारा लेते हैं लेकिन चित्रकला में शब्दों जैसी कोई भाषा नहीं होती वहां सन्नाटा ही सब कुछ कहता है। साहित्य में कल्पना के लिए जगह होती है पर चित्रकला में साहित्य की तरह कल्पना नहीं होती।
कला में उसे व्यक्त कर दिया जाता है इसलिए चित्रों के अर्थ नहीं होते हैं, बल्कि उन्हें केवल महसूस किया जाता है। भौमिक राजा रवि वर्मा के चित्रों पर पारसी थिएटर के प्रभाव को स्वीकारते हैं और टैगोर के चित्रों में बाद के बंगाल थिएटर का भी है। राजा रवि वर्मा के चित्रों में प्रकाश पहली बार आया तो टैगोर के यहां जीव जगत और सेल्फ पोट्रेट पहली बार भारतीय चित्रकला में आए।
यह सच है कि टैगोर और अमृता शेरगिल के चित्रों में राजा राजा रवि वर्मा के चित्रों से काफी बदलाव दिखता है। वह एक नया प्रस्थान बिंदु है। उन्होंने अवनीन्द्र नाथ टैगोर के प्रसिद्ध चित्र भारत माता चित्र का भी जिक्र करते हुए कहा कि 1936 में नेहरू जी ने कांग्रेस की सभा में यह पूछा था कि यह भारत माता आखिर कौन है?
तब भारत माता की अवधारणा बंकिम चंद्र के प्रसिद्ध उपन्यास आनंद मठ से निकली हुई थी लेकिन अमृता शेरगिल ने 1935 में भारत माता चित्र में सामान्य स्त्रियों के चित्र बनाकर असली भारत माता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि टैगोर और अमृता शेरगिल ने दरअसल भारतीय चित्रकला में लोकतंत्र को स्थापित किया है इससे पहले की चित्रकला में धार्मिकता अधिक है और वह हिंदू आर्ट है।
लेकिन क्या केवल हिंदू आर्ट कह कर इस भारतीयता को खारिज किया जा सकता है? क्या आधुनिकता की अवधरणा पश्चिम से निकली है या भारतीयता में भी एक आधुनिकता छिपी थी? कबीर जिसके एक बड़े प्रतीक हैं। अशोक भौमिक ने एक बहस तो छेड़ दी है। कला विशेषज्ञ इस पर निष्कर्ष निकालेंगे।
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