Tuesday

01-07-2025 Vol 19

उकताहट के बीच मोरपंखी कलम में नई स्याही

163 Views

नरेंद्र भाई और कुछ करें-न-करें, हमारा मन तो लगाए हुए हैं। उन की मायावी रचनाओं की भूलभुलैया से हमारा जी तो बहल रहा है। उन के तिलस्मी संसार की दिव्यता-भव्यता ने हमारे चित्त को प्रसन्नता से तो भरा हुआ है। गुब्बारा ही सही, इस गुब्बारे को ऊंचे आसमान में उड़ने दीजिए। इसलिए कि जिस दिन यह फटेगा, इस के फटने से ऐसा डरावना खालीपन उपजेगा कि आप के प्राण छूट जाएंगे। इसलिए जब तक प्राण प्यारे हैं, चुपचाप पड़े रहिए और मेरा लिखा पढ़ते रहिए।

लिख-लिख कर उकताता जा रहा हूं। समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों लिख रहा हूं? किस के लिए लिख रहा हूं? लिख रहा हूं तो कोई पढ़ता भी है या नहीं? पढ़ता है तो गुनता है या नहीं? या ख़ुद ही लिखता हूं और ख़ुद ही पढ़ता हूं? अपने लिखे पर हर बार जो दस-पांच प्रतिक्रियाएं पढ़ने-सुनने को मिल जाती हैं, वे अब तक तो मेरी कलम की स्याही में हलकी-फुलकी रवानी बनाए हुए हैं, लेकिन कब तक बनाए रख पाएंगी? मेरी यह ऊहापोह इन दिनों जिस तरह बढ़ती जा रही है, वही मुझे अपने भीतर की उकताहट का अहसास करा रही है।

पहले ऐसा नहीं था। लिखना मेरे लिए पहले ऐसा ही था जैसे मछली के लिए तैरना। मुझे कभी लगता ही नहीं था कि मैं अलग से कुछ कर रहा हूं। आसपास के झंझटों का, प्रतिकूलता का, खुरदुरेपन का मेरे अक्षर-विश्व पर कोई असर नहीं पड़ता था। इधर बैठा और उधर, पता नहीं किस आकाशगंगा से, विचारों की बारहखड़ी ठुमक-ठुमक कर बरसने लगती थी। मगर पिछले दो-तीन महीनों से मैं महसूस कर रहा हूं कि अब मुझे उस का आह्वान करना पड़ता है। इस आह्वान का विधान रचना पड़ता है। इस विधान की पूजन सामग्री जुटानी पड़ती है।

पहले मुझे कुछ भी लिखने के लिए अलग से एकाग्रचित्त होने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लिखते वक़्त किसी भी घटना-परिघटना, बोल-चाल, चीख-चिल्लाहट से मेरा विचार-विचलन नहीं होता था। अब मैं पाता हूं कि ज़रा-सा भी खटका मेरा ध्यान भटका देता है। मैं ‘जाना था जापान, पहुंच गए चीन’ की झल्लाहट से भर जाता हूं। मेरे मन में चिढ़ से सराबोर यह भाव गहराने लगता है कि हरिभजन को आया था और कपास ओट रहा हूं। फिर एक अजीब-सी खीज मुझ पर घंटों हावी रहती है।

ऐसा क्यों हो रहा है, मैं समझ नहीं पा रहा। परिजन, यार-दोस्त, पास-पड़ोसी तो पहले भी मेरी लेखन-राह को गुदगुदा बनाने के लिए कोई उपक्रम दूर-दूर तक भी किया नहीं करते थे। वे तो ‘डोलत हैं रस आपने’ मुद्रा में थे और हैं। तो फिर फ़र्क़ क्या आ गया है? इस का मतलब है कि तफ़रीक़ के ये बीज कहीं मेरे ही भीतर पनप रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के राजधर्म की प्रेरणा से लेखन की दिशा: आत्ममंथन और रचनात्मकता

मगर वे क्यों पड़ गए और क्यों इस तरह अपने पैर पसार रहे हैं, समझ नहीं पा रहा हूं। बाहर तो कुछ बदला नहीं है। फिर भीतर यह बदलाव क्यों आता जा रहा है? या बाहर बहुत कुछ बदल चुका है और अब वह मुझे सालने लगा है?

अगर मुझे कुछ कोंचने लगा है तो इस का अर्थ है कि मेरे बुनियादी सूफ़ीपन का क्षरण हो रहा है। मेरे घड़े का चिकनापन दरदरा हो रहा है। मेरे अंतर्मन के मस्तमौलापन में दरारें पड़ने लगी हैं। हर हाल से अप्रभावी रहने की मेरी सामर्थ्य लड़खड़ाने लगी है। अगर ऐसा है तो यह तो बहुत चिंताजनक है। चिंताजनक क्या, खतरनाक है। खतरनाक क्या, भयावह है। यह तो मेरी स्वाभाविक रचनात्मकता के विध्वंस का संकेत है। इस से तो मोर्चा लेना ही होगा। अपनी सृजनात्मकता के सिंदूर को क्या मैं ऐसे ही मिट जाने दूं?

नहीं। बेबात मिट जाना तो अनर्थ होगा। अनर्थ क्या, पाप होगा। ऐसा पाप, जो चित्रगुप्त के बहीखाते में दर्ज़ हो जाएगा। जब दर्ज़ हो जाएगा तो उस का नतीजा भुगते बिना निज़ात नहीं मिलेगी। तो ऐसा पाप क्यों करना, जिस से मुक्ति आसान न हो? देखा नहीं कि जब सिंदूर का सवाल उठा तो कैसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने दुश्मन को मुंहतोड़ क्या हड्डी-पसली तोड़ जवाब दिया।

यह भी परवाह नहीं की कि कहीं इस से उन का देश परमाणु युद्ध के मुहाने पर तो जा कर खड़ा नहीं हो जाएगा? हो जाएगा तो हो जाएगा। वह बाद की बात है। अभी का राजधर्म है कि जबड़ातोड़ जवाब दिया जाए। सो, उन्होंने दिया।

अभी का राजधर्म तो अभी ही निभाना है न! उस के लिए क्या कोई कल का इंतज़ार करता है? हर बार राजधर्म का पालन करने से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता है। ख़ुद का तो है ही, आख़िर राजधर्म का भी अपना कोई मोल है। राजधर्म निभाने का फ़ैसला क्या कोई और करेगा? यह फ़ैसला तो राजा स्वयं करेगा कि कब उसे कौन-सा राजधर्म निभाना है और कब कौन-सा नहीं।

अटल बिहारी वाजपेयी अब नहीं हैं। होते भी तो वे राजघर्म का पालन करने की महज़ सलाह ही दे सकते थे। ऐसे मश्वरों पर कान देना-न-देना सुल्तानों के मूड पर है।

राजधर्म निभाने के फ़ैसले प्रजा से पूछ कर होते हैं क्या? और, प्रतिपक्ष को विश्वास में ले कर तो कतई नहीं होते। मैं राजा के इस जन्मजात अधिकार को कभी चुनौती नहीं दूंगा कि किसी फ़ैसले के पहले या उसे क्रियान्वित कर चुकने के बाद प्रजा को विश्वास में लेना-न-लेना उस की अपनी मर्ज़ी पर है। प्रजा का कर्तव्य है प्रजाधर्म का पालन करना।

और, प्रजा का धर्म है कि वह रथयात्राओं में हुलस कर हिस्सा ले, आई बलाओं को टालने के लिए ज़ोर-शोर से ताली-थाली बजाए और बेकार के प्रश्नों को अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा के मार्ग में कंटक न बनने दे।

तो मुझे भी अब अपना कलम-धर्म निभाना है। अपने भीतर की धरती पर उग रहे पसोपेशी बीजों को समूल नष्ट करना है। यह फ़िक्र नहीं पालनी है कि कहीं इस चक्कर में मैं किसी नाभिकीय-समर के चक्रव्यूह में तो नहीं फंस जाऊंगा? फंस जाऊंगा तो फंस जाऊंगा। वह बाद की बात है। अभी तो मुझे कलम-धर्म पुकार रहा है। मेरी कलम का सुहाग मेरी आंखों के सामने उजड़ जाए और मैं ख़ामोश बैठा रहूं? मैं इतना गया-बीता नहीं हो सकता कि नरेंद्र भाई के बताए राजधर्म की राह पर न चलूं। महाजनो येन गतः स पंथाः।

सो, लिखने से हो रही ऊब को मुझे अब ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ की झील में तिरोहित करना है। सोचिए तो सही कि अगर ग्यारह बरस से नरेंद्र भाई न होते तो मेरी कलम की स्याही तो कब की सूख गई होती। वे न होते तो क्या तो लिखता, वे न होते तो क्या तो कहता और वे न होते तो पता नहीं कितने ही रोमांचक दृश्य देखने से नैना वंचित रह जाते! वे हैं तो मोरपंखी कलम थिरक रही है।

मैं तो यह सोच कर ही सिहर जाता हूं कि जिस दिन वे भारत के सियासी मामलों के शीर्ष पर नहीं होंगे, उस दिन होगा क्या? तब किस पर लिखेंगे? तब किस पर बोलेंगे?

नरेंद्र भाई और कुछ करें-न-करें, हमारा मन तो लगाए हुए हैं। उन की मायावी रचनाओं की भूलभुलैया से हमारा जी तो बहल रहा है। उन के तिलस्मी संसार की दिव्यता-भव्यता ने हमारे चित्त को प्रसन्नता से तो भरा हुआ है। गुब्बारा ही सही, इस गुब्बारे को ऊंचे आसमान में उड़ने दीजिए। इसलिए कि जिस दिन यह फटेगा, इस के फटने से ऐसा डरावना खालीपन उपजेगा कि आप के प्राण छूट जाएंगे।

इसलिए जब तक प्राण प्यारे हैं, चुपचाप पड़े रहिए और मेरा लिखा पढ़ते रहिए। इत्ता-सा करने में आप का क्या जाता है? क्योंकि पढ़ने के बाद भी करना-धरना तो आप को कुछ है नहीं। इसलिए ढाक के तीन पातों पर अपना विश्वास अटल रखते हुए मैं भी अपनी कलम में फिर नई स्याही भर रहा हूं।

Also Read: IPL 2025: टेस्ट से सन्यास के बाद विराट कोहली संभालेंगे संभालेंगे कप्तानी की कमान?
Pic Credit: ANI

पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *