‘भारत विभाजन अंग्रेजों ने किया‘ कहना घोर प्रवंचना ही नहीं, सदभाव-फरामोशी भी है। दरअसल, अंग्रेज शासकों ने ही 1940 से मार्च 1947 तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच समझौता करा कर भारत को एक रखने के अनेक प्रयास किए। यह इतने विस्तार से अनेक मिशनों, संयुक्त वार्ताओं, दस्तावेजो, घोषणाओं, वक्तव्यों और निजी नोट्स तक में प्रमाणित है कि हिन्दू बौद्धिकता पर हैरत होती है! सभी प्रमाण दिखाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने फरवरी 1947 तक विविध कोशिशें की कि उन का बनाया ‘सुंदर साम्राज्य’ बना रहे।
भारत विभाजन अंग्रेजों ने नहीं किया-1
हिन्दू नेताओं ने गत सौ सालों से ‘राष्ट्रवाद’ के नकली नारे से अपना माथा चकरा लिया है। किसी भी समस्या में उन्हें विदेशियों को दोष देने के सिवा कुछ नहीं सूझता। इसीलिए 1947 में हुए देश विभाजन का मुख्य दोष वे अंग्रेजों को देते हैं! जब कि असल में विभाजन करने वाले डंके की चोट पर खुद कहते थे और आज भी कहते हैं: ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इन्शाल्लाह! इन्शाअल्लाह’। पर यह किसी नेता को सुनाई नहीं पड़ता — ठीक दिल्ली में और टीवी पर घंटों दिखने के बावजूद!
दूसरी ओर, असलियत यह है, जो अनेक हिन्दू महापुरुषों ने 19वीं सदी के अंत तक कहा भी था कि सदियों बाद अंग्रेजों ने ही हिन्दुओं को फिर सम्मान पूर्वक खड़े होने का उपाय किया! उन्होंने ही पूरे भारत को पहली बार एक भी किया। अंग्रेजों से पहले संपूर्ण भारत को एक राजनीतिक क्षेत्र के रूप में देखने, उस की व्यवस्था करने की दृष्टि नहीं थी।
इसीलिए पहला राजनीतिक अखिल भारतीय मानचित्र 1858 का ही है, अंग्रेजों का बनाया हुआ। उस से पहले भारत का कोई मानचित्र किसी भारतीय स्त्रोत से बना नहीं मिलता। सो, अंग्रेजों ने मानचित्र ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा, उस के लिए सैनिक तंत्र, प्रशिक्षण केन्द्र, उस के तकनीकी मैनुअल, सैन्य सम्मान और दंड, तथा आम जनगण के उपयोग के लिए यातायात, संचार, रेलवे, अस्पताल, डाक, करेंसी, सार्वजनिक पक्के भवन निर्माण, नागरिक-सामाजिक समानता, पुरातत्व अन्वेषण व संरक्षण, संग्रहालय, छापाखाने, सार्वजनिक आधुनिक शिक्षा, पुस्तकालय, इतिहास लेखन, पांडुलिपियों का अध्ययन, साहित्य पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं, अनुवाद, यानी राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर सार्वजनिक सांस्कृतिक, बौद्धिक विकास की संपूर्ण आधुनिक व्यवस्था सिरे से बना कर दी।
19-20वीं सदी के डेढ़ सौ सालों तक हर महत्वाकांक्षी भारतीय इंग्लैंड जाकर ही शिक्षित और काबिल बनता रहा! भारत में आंतरिक सुचारू नागरिक जीवन के लिए भी पुलिस, कोर्ट, दंड संहिता, पूरा कर्मचारी तंत्र, पद-सोपान, वेतन-पेंशन, नियमावली, आदि की सारी व्यवस्था बना, चला कर, लाखों भारतीयों को उन सब क्षेत्रों में प्रशिक्षित करके दी। स्थानीय स्वशासन की म्युनिसिपैलिटी से लेकर प्रांतीय, राष्ट्रीय स्वशासन तक के लिए एक्ट और संसद भवन तक बनाकर अंग्रेजों ने ही दिया!
कोई ‘लुटेरा’ वह सब नहीं किया करता! उस से पहले सात सदियों में, मुहम्मद घूरी से लेकर टीपू सुल्तान तक, किसी बाहरी शासक की दी हुई कोई जन-हित की चीज शायद ही दिखाई जा सकती है। तमाम मुस्लिम शासक छोटे-बड़े जुल्मी, व हिन्दू धर्म के शत्रु- विध्वंसक ही रहे। आज भी उन की विरासत ढोने वाले ही भारत के लिए समस्या हैं! जबकि ब्रिटिश विरासत पर चलने वाले आज भी भारत को कुछ सकारात्मक दे रहे हैं — यहाँ भी और इंग्लैंड में बस कर, विदेशी बन कर भी। असंख्य गोरे विदेशी भी।
जबकि अपने अनेक ‘देशी भाई’ आज भी भारत में गोधरा से नंदीमर्ग, और मराड से मुर्शिदाबाद तक हिन्दुओं के साथ वही करते हैं — जो विदेशी अंग्रेजों ने कभी नहीं किया। बल्कि उस तमाम जिहाद को अंग्रेजों ने ही खत्म किया जो सदियों से हिन्दुओं पर होता रहा था। पर वे जिहाद-उसूल वाले हुए ‘अपने देशी’, ‘राष्ट्रीय मुस्लिम’। जबकि आज हिन्दुओं द्वारा उपयोग की जा रही सारी व्यवस्थाएं, संस्थाएं, इंतजाम, नियम, कानून, कार्यालय, पदनाम, डिग्री, प्रमाणपत्र, विश्वविद्यालय, संग्रहालय, टकसाल, डाकखाने, रेलवे, लाखों लोगों के लिए नये रोजगार, हुनर, नौकरी, वेतन-पेंशन, आदि की संपूर्ण आधुनिक सभ्यता देने वाले अंग्रेज ही ‘विदेशी लुटेरे’ भर थे! उन ब्रिटिश व्यवस्थाओं में एक भी समाज के लिए अनुपयोगी होती तो 1947 के बाद उन्हें त्याग दिया जाता। किन्तु उन सब, एक-एक चीज को भारतीयों ने मजे से बनाए रखा है! इसीलिए क्योंकि वे सब लोगों की सहायता, उन्हें ऊपर उठाने की चिन्ता से भी बनाई गई थी।
अंग्रेजी शासकों की वह सब देन — राजनीतिक, रणनीतिक, राष्ट्रीय सुरक्षा क्षेत्र में तथा आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक क्षेत्र में भी — की तुलना ठोस पैमानों पर देसी राज के नेताओं द्वारा उन्हीं क्षेत्रों में करके भी देखना चाहिए। तब दिखेगा कि ‘भारत की लूट’ और ‘मैकॉले’ के दो जुमले के सिवा हिन्दू बौद्धिकों ने गत सौ सालों में शायद ही कोई अध्ययन सामने रखा जिस से अंग्रेज शासकों और उन के बाद देसी शासकों की देन/लूट का ठोस हिसाब हो सके। सो, भारत विभाजन पर भी हमारे आम नेताओं-बौद्धिकों के बीच अंग्रेजों को दोष देने की तोतारटंत ही प्रचलित है।
पर ठंढे दिमाग से, बिना दलबंदी या राष्ट्रवादी झक के विचार करें तो इस मामले में ‘विदेशी’ शक्तियों को दोष देना पूरी आत्म-प्रवंचना ठहरेगी।
भारत में अंग्रेजी राज किसी ‘फूट डालो राज करो’ पर नहीं, बल्कि भारतीय राजाओं के साथ मजबूत रणनीतिक साझेदारी, सैनिक शक्ति, ठोस समीकरणों, तथा आम जनता के लिए सुरक्षा एवं सुविधाओं की संपूर्ण व्यवस्था पर खड़ा था। उसे 1858 के बाद वस्तुत: किसी भारतीय नेता, दल, या समूह द्वारा कभी कोई गंभीर चुनौती नहीं रही। सशस्त्र छापेमारी करने वाले क्रांतिकारियों के सिवा उन्हें कभी किसी से खतरा तक नहीं रहा था। चुनौती तो दूर रही! वे भारत भर में अपने विस्तृत खुले बंगलों, खुले इलाकों में रहते थे। जैसा विभाजन-विभीषिका झेलने और देखने वाले प्रो. कपिल कपूर कहते हैं: सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रयासों के अतिरिक्त ‘’यहाँ कोई स्वतंत्रता आंदोलन नहीं था’’।
फिर, भारतीय स्वयं ही दर्जनों तरह से फूटे रहे थे। हिन्दू-मुसलमान ही नहीं, ऊँची-नीची जातियाँ, अछूत वर्ग, आपसी ईर्ष्या-द्वेष में डूबे राजे-नबाव, आदि स्थायी विखंडित भारतीय समाज के जीते-जागते इश्तहार थे। इसलिए, सब से गंभीर सत्य तो यह है कि आधुनिक राष्ट्रीय एकता की संपूर्ण ऐतिहासिक राजनीतिक प्रक्रिया, और उस के ठोस भौतिक सरंजाम ही अंग्रेजों की देन हैं! किसी अन्य की नहीं।
इसलिए भी, ‘भारत विभाजन अंग्रेजों ने किया’ कहना घोर प्रवंचना ही नहीं, सदभाव-फरामोशी भी है। दरअसल, अंग्रेज शासकों ने ही 1940 से मार्च 1947 तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच समझौता करा कर भारत को एक रखने के अनेक प्रयास किए। यह इतने विस्तार से अनेक मिशनों, संयुक्त वार्ताओं, दस्तावेजो, घोषणाओं, वक्तव्यों और निजी नोट्स तक में प्रमाणित है कि हिन्दू बौद्धिकता पर हैरत होती है!
पर वह सपाट रूप से तमाम मुस्लिम माँगों, बयान, प्रस्ताव, आदि को भी ‘अंग्रेजों ने करवाया’ कहती है। जब कि मुस्लिम एकदम अलग और ऊँचे हैं, यह अल्लामा इकबाल ने सनसनीखेज रूप से और इस्लामी सिद्धांत के साथ 1909-11 में ही अपनी शानदार कृतियों ‘शिकवा’ और फिर ‘जबावे शिकवा’ में रख दिया था। वही पाकिस्तान आंदोलन का ‘पहला घोषणापत्र’ माना जाता है। जब किसी ने जिन्ना का नाम भी नहीं सुना था और माऊंटबेटन स्कूली बालक थे। अतः इस्लामी मतवाद, इतिहास, तथा सर सैयद, इकबाल, या जिन्ना को अंग्रेजों ने ‘पट्टी पढ़ाई’ कहना मूर्खता है। जो केवल हिन्दू नेता-बौद्धिक कर सकते हैं। जो कुछ करना तो दूर, बोलने में भी हमेशा सुभीते वाली, निरापद बात बोलना, सुनना चाहते हैं। जिस में अपने लिए किसी कष्ट, परिश्रम, या जोखिम न लेना पड़े। इसीलिए बड़े-बड़े हिन्दू नेता और बुद्धिजीवी सत्य और प्रोपेगंडा में अंतर करने में असमर्थ हैं।
पर तथ्य यह है कि अंग्रेजों ने अंततः हार मान कर, और कांग्रेस की स्वीकृति के बाद ही, विभाजन की रूपरेखा बनाई। लॉर्ड माउंटबेटन की गलती विभाजन जल्दबाजी में, और बिना पूरी तैयारी किए कार्यान्वित करना था। सत्ता हस्तांतरण का पूर्व-घोषित समय जून 1948 को खींच कर अगस्त 1947 कर देना। यह दोनों बहुत बड़ी भूलें थीं। पर यह भी कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सहमति से हुई।
सभी प्रमाण दिखाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने फरवरी 1947 तक विविध कोशिशें की कि उन का बनाया ‘सुंदर साम्राज्य’ बना रहे। यहाँ तक कि उस पर टिके रहने के लिए लॉर्ड वावेल को अपमानित होकर वायसराय पद से हटना पड़ा! असलियत राम मनोहर लोहिया (जो गाँधी-नेहरू के सम्मानित सहयोगी थे। गाँधी ने उन्हें पटेल की जगह गृह मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था!) ने लिखी है, कि नेहरू और पटेल विभाजन स्वीकार कर लेना तय कर चुके थे। जब उन्हें लगा कि जिन्ना पीछे नहीं हटेंगे यदि अपनी शर्त पर सत्ता में साझेदारी न मिले।
लोहिया कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक (14-15 जून 1947) में मौजूद थे जिस ने विभाजन का निर्णय स्वीकार किया। लोहिया के अनुसार सत्ता की अधीरता और लालच में नेहरू और पटेल ने, गाँधी जी को बिना बताए, विभाजन कर लेना पहले ही तय कर लिया था। अर्थात्, विभाजन के पक्के विरोधी वायसराय लॉर्ड वावेल के समय में ही कांग्रेस के सर्वोच्च नेता विभाजन कर लेना बेहतर मान चुके थे! उन्होंने वावेल को दिया वचन भी तोड़ दिया, जो अविभाजित भारत हेतु जिन्ना को संतुष्ट करने वाला प्रस्ताव स्वीकार करके दिया था। वायसराय वावेल ने दुःखपूर्वक अपनी डायरी में 1947 में लिखा: ‘‘कांगेस में कोई स्टेट्समैनशिप या उदारता नहीं है।’’
सो, ‘डिवाइड एंड रूल’ को मनमाने तोड़-मरोड़ कर ‘डिवाइड एंड पार्टीशन’ कर देना अपने को ही भुलावा देना है। इस से बँटवारा करने वाले असली लोग आगे भी प्रोत्साहन पाते हैं। जो कश्मीर, असम, बंगाल, आदि अनेक प्रांतों में आज भी हो ही रहा है। ठीक उन्हीं नारों, तरीकों और दावों के बल पर जिस से विभाजन हुआ था। तब हिन्दुओं की आत्म-प्रवंचना कितनी दयनीय है -– उन के नेताओं-बौद्धिकों को इस का भी अहसास नहीं! वे एंडरसन की कहानी वाले नंगे राजा से भी बदतर, नंगे फटीचर लगते हैं। उस राजा से लोग कम से कम डरते तो थे। फटीचर की वास्तविकता जानने वाले क्या करेंगे!
यह सच्चाई है कि सभी क्लासीफाइड दस्तावेजों को सार्वजनिक कर दिए जाने के बाद भी, हजारों नोट्स, विवरणिका, मिनट्स, निर्णय, डायरी, पत्र, आदि कहीं एक भी चीज नहीं मिलती जो संकेत भी करे कि भारत का बँटवारा किसी ब्रिटिश का विचार भी था। ब्रिटिश राज दर्जनों देशों में था। यह जानी-मानी बात है कि वे एक-एक काम व्यवस्थित और जिम्मेदार ढंग से करते थे। यदि एक बार भी कहीं कुछ तय या गोपनीय विचार भी हुआ हो, तो उस का रिकॉर्ड निश्चित रूप से कई स्थानों पर, कई रूपों में रहता था।
दूसरे, यदि अंग्रेज भारत का विभाजन करना चाहते तो वे दो क्या, दर्जन भर स्वतंत्र देश सरलता से बना सकते थे। उन का हाथ पकड़ना तो दूर, छूने वाला भी कौन था! ऊपर से अनेक शक्तिशाली रजवाड़े भौगोलिक रूप से सुविधाजनक स्थिति में थे। जैसे, जूनागढ़, त्रावनकोर, हैदराबाद, राजपुताना, पटियाला, आदि। उन में कई स्वतंत्र रहने के इच्छुक भी थे। जिन रजवाड़ों की ओर कांग्रेस के नेता ताकने की भी हिम्मत कभी नहीं कर सके थे। उन के कथित स्वतंत्रता आंदोलन के सभा-सम्मेलन केवल ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में होते थे — इसलिए कि अंग्रेजों ने उदारतापूर्वक उन्हें इस की अनुमति दे रखी थी।
किसी महत्वपूर्ण देसी रजवाड़े में कांग्रेसी नेता कभी प्रवेश भी नहीं कर सके थे! तब वे किस बल पर किसी रजवाड़े को अपने भारतीय क्षेत्र में रखने की सोचते, यदि खुद अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र रहने का विकल्प दे दिया होता? इसलिए, ‘अंग्रेजों ने विभाजन किया’ इतना बड़ा झूठ है कि हिन्दू बौद्धिकता की दयनीय हालत पर हैरत होती है! हमारा बौद्धिक स्वास्थ्य इस से कई गुना बेहतर ब्रिटिश राज में था। (जारी)