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भारत नेतन्याहू की छाया में रहेगा या ग्लोबल साऊथ का झंडाबरदार बनेगा?

इतिहास के सही पक्ष का तकाजा है जो भारत गुटनिरपेक्ष आत्मा के प्रति सच्चा रहते हुए संघर्षविराम की माँग करे, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के वारंट लागू करे और पुल बनाए—खंडहरों पर नहीं, बल्कि जवाबदेही पर। ग़ज़ा की खामोशी में, ग्लोबल साउथ अपने उस पुराने चैंपियन, निर्गुट भारत को पुकार रहा है। पर क्या भारत जवाब देगा?

ग़ज़ा के खंडहरों की छाया में—जहाँ अब तक कोई 55 हज़ार से ज़्यादा फ़िलिस्तीनियों की जान जा चुकी है, जिनमें 17 हज़ार बच्चे शामिल हैं—फिर यह गूंजता सवाल है कि पीड़ितों के साथ एकजुटता कब उनकी मिटाई जा रही पहचान की अनदेखी करने लगती है? दो साल की बमबारी ने 23 लाख आबादी वाले इलाके को मलबे में बदल दिया है, लोगों को उजाड़ दिया है, इलाके में अकाल बनाती नाकेबंदी है जिसकी वास्तविकताओं में  अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय इस सबकों युद्ध अपराध करार दे चुका है।

गंजा की इस भयावहता के बीच एक और अंधेरी कथा खुलती है। और वह है अमेरिकी कट्टरपंथी नेता चार्ली कर्क की हत्या। कर्क 10 सितंबर 2025 को यूटाह वैली यूनिवर्सिटी में मारे गए। कुछ ही हफ्ते पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से सवाल उठाया था कि 7 अक्तूबर का हमासक्या “स्टैंड डाउन ऑर्डर” के कारण संभव हुआ, जिसमें 1,200 इजराइली मारे गए थे। दुनिया की सबसे कड़ी सुरक्षा वाली इजराइली सीमा में ऐसी सेंध कैसे हुई? इसकी जांच की माँग अभी भी है: जहाँ एक-एक फ़िलीस्तीनी क़दम मौत का जोखिम है, वहाँ घंटों तक हमास के हमलावर बेरोक-टोक अपना आंतक मचाते रहे और मोसाद की खुफिया एजेंसी नाकाम थी?

कर्क ने यह सवाल किया था। उसकी शंका इजराइली व्हिसलब्लोअर्स ने भी दोहराई, जिन्होंने झूठी कहानियाँ गढ़ने का आरोप लगाया। इसके बाद कर्क का रिश्ता इजराइल-समर्थक धारा से टूटा। रिपोर्टें आईं कि नेतन्याहू के करीबी लोगों ने उनकी संस्था टर्निंग प्वाइंट यूएसए को 150 मिलियन डॉलर का प्रलोभन दिया जिसे कर्क ने ठुकरा दिया। यहाँ तक कि नेतन्याहू ने भी उन्हें मनाने की कोशिश की। कर्क के ट्रंप-समर्थक दोस्त ने बाद में खुलासा किया कि कर्क “इजराइल लॉबी” से डरे हुए थे। उन्हें शक था कि अमेरिकी प्रशासन में इजराइली जासूसी हो रही है।

18 सितंबर को नेतन्याहू का बयान कि “इजराइल ने चार्ली कर्क की हत्या नहीं की”—बहुतों को खोखला लगा। टकर कार्लसन ने शोकसभा में यरुशलम की पुरानी साजिशों का हवाला देते हुए कर्क की मौत को मसीह की सूली से तुलना की। यह भाषण तुरंत यहूदी नेताओं और एंटी-डिफेमेशन लीग ने “यहूदी-विरोधी रक्त मिथक” करार दिया। भले ही 22 वर्षीय एक युवक ने गोली चलाने की बात कुबूल कर ली हो, पर नेतन्याहू की भूमिका और कर्क की पहले की अवज्ञा ने अमेरिकी दक्षिणपंथी हलकों में संदेह और षड्यंत्र की फुसफुसाहट को तेज किया हुआ है।

यह कोई अकेली त्रासदी नहीं है। यह उस वैश्विक व्यवस्था की निशानी है जो दंडहीनता के बोझ से टूट रही है। जिसमें मनमानी को छूट है। संयुक्त राष्ट्र के तीन-चौथाई सदस्य—कुल 157 राष्ट्र, जिनमें ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल, फ्रांस, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, माल्टा और अंडोरा जैसे हालिया समर्थक भी शामिल हैं—अब फ़िलिस्तीन की संप्रभुता मान चुके हैं। स्लोवेनिया ने नेतन्याहू के प्रवेश पर रोक लगा दी है। यूरोप के कई देश आईसीसी (ICC) के वारंट के आधार पर उनकी गिरफ्तारी की क़सम खा चुके हैं। यहाँ तक कि न्यूयॉर्क की संयुक्त राष्ट्र सभा में शामिल होने के लिए नेतन्याहू का विमान फ्रांस और स्पेन के हवाई क्षेत्र से बचते हुए घुमावदार रास्ते से गया, डर था कि कहीं आपात लैंडिंग उन्हें हेग न पहुँचा दे।

इस बीच अमेरिका  लगभग अंधभक्ति में है। विदेश मंत्री ने बाइबिल के हवाले से इजराइल की सुरक्षा की बात कही और युद्ध के बाद ग़ज़ा में “सुधारित” फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण का शासन प्रस्तावित किया। लेकिन उनके शब्द खोखले लगे क्योंकि अमेरिका ने लगातार संयुक्त राष्ट्र की संघर्षविराम प्रस्तावों पर वीटो लगाया है और एक वह बिल लाया है जो उन लोगों की नागरिकता रद्द करने की बात करता था जिन्हें “आतंकवाद” में मददगार माना जाए। विरोध के बाद भाषा बदली गई, पर डर बना हुआ है: ग़ज़ा पर असहमति जताना अमेरिका में निर्वासन का खतरा भी बन गया है।

इसी माहौल में ग्रेटा थनबर्ग के नेतृत्व वाले उतरी “ग्लोबल सुमूद फ़्लोटिला”—50 जहाज़ों का काफ़िला, ग़ज़ा को राहत पहुँचाने और नाकेबंदी तोड़ने के लिए रवाना हुआ। पर इजराइली ड्रोन ने ट्यूनीशिया के पास फ्लैशबॉम्ब गिराए, क्रेते के पास एबीबीए के गीतों से रेडियो जाम किए, और आधी रात को एक जहाज़ पर हमला कर कार्यकर्ताओं को रसायन से भरपूर धुएँ में दम घुटने पर मजबूर किया।इजराइल ने उन्हें “आतंकवादी” ठहराने की धमकी दी, तो इटली और स्पेन ने अपने युद्धपोत भेज दिए, ताकि कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दी जा सके। यह वही भूमध्यसागर है जिसे कभी फोनीशियन व्यापारी शांति के जहाज़ों से पार करते थे, अब राहत-दया के जहाज़ों को युद्धपोत ढाल बना रहे हैं।  मतलब नैतिकता से एकदम उलट परिदृश्य।

और इस सबके बीच भारत के आगे विकट चुनौती है। भारत को अपने रास्ते पर सोचना होगा। कभी गुटनिरपेक्ष आंदोलन का तारा, भारत शुरू से फ़िलिस्तीन की स्वतंत्रता का समर्थक रहा है।  भारत ने 1988 में फिलीस्तीन राष्ट्र को मान्यता दी थी और 1992 तक इजराइल से दूरी बनाए रखी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उपनिवेशवाद विरोधी संवेदना को तब रणनीतिक समझ के साथ जोड़ा था। भारत ने यासिर अराफ़ात की मेजबानी की, ग़ज़ा के स्कूलों और अस्पतालों की मदद की, और संयुक्त राष्ट्र में उपनिवेशी बस्तियों के खिलाफ आवाज़ उठाई।

लेकिन आज? सोनिया गांधी ने 25 सितंबर को ‘द हिंदू’ में लिखे अपने लेख में मोदी सरकार की “गहरी चुप्पी” को “नरसंहार में साझेदारी” करार दिया। उन्होंने लिखा, “स्वतंत्रता और मानव गरिमा की लड़ाई में भारत की आवाज़, जो कभी अडिग थी, अब जानबूझकर मंद (conspicuously muted है।” वे ग़ज़ा की तबाह बुनियादी ढांचे और कृत्रिम अकाल की ओर इशारा करती हैं और मोदी-नेतन्याहू की व्यक्तिगत कूटनीति को संवैधानिक मूल्यों के ऊपर हावी बताती हैं। उनका कहना है कि भारत को अपने स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा से जुड़ी नैतिक नेतृत्वकारी भूमिका निभानी चाहिए: “फ़िलिस्तीन हमारा कर्ज है…और  हमें उस सहानुभूति को ठोस कार्रवाई में बदलने का साहस दिखाना होगा।”

तो भारत की नीति में बदलाव क्यों? जवाब है व्यवहारिकता, जो वैचारिक आवरण में लिपटी है। इजराइल के साथ भारत का व्यापार 10 अरब डॉलर पार कर चुका है। कश्मीर में निगरानी करने वाले ड्रोन हों या लद्दाख में सुरक्षा देने वाली मिसाइलें—इजराइल के कुल हथियार निर्यात का 37 प्रतिशत भारत खरीद रहा है। यूरोप में नेतन्याहू अछूत हैं,जबकि दिल्ली में उनका सम्मान है। ग़ज़ा की घेराबंदी के बीच निवेश समझौता इसी “क्रोनी गणित” का सबूत है।

दरअसल में यह “डी-हाइफ़नेशन”—इजराइल और फ़िलिस्तीन को अलग फाइल मानने की नीति—गहरी दरार को छुपाती है। हिंदुत्व का उभार, यहूदी बस्तियों के जुनून से मेल खाता है। अयोध्या में मोदी का राम मंदिर उद्घाटन यरुशलम की विवादित पहाड़ी की प्रतिध्वनि लगता है। युवाओं का झुकाव भी बदल रहा है: सर्वे बताते हैं कि जो कभी फ़िलिस्तीनी संघर्ष के पक्षधर थे, अब इजराइल की “धीरज” और “मजबूती” की तारीफ़ करते हैं। निश्चित ही भाजपा के मीडिया प्रचार ने यह माहौल रचा है।

पर इसकी भारी क़ीमत है। संयुक्त राष्ट्र में भारत का बार-बार अनुपस्थित रहना याकि संघर्षविराम पर, फ़िलिस्तीन की स्थिति पर इजराइल पक्षधरता से ग्लोबल साउथ में नैतिक विश्वसनीयता को गंवाना है। खाड़ी के सहयोगी, सऊदी अरब से क़तर तक, भारत की इस चुप्पी से अब नाराज़ हैं। इससे देश की ऊर्जा सुरक्षा और 90 लाख प्रवासी भारतीयों की रोज़ी-रोटी खतरे में है। देश के भीतर, फ़िलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनकारियों की गिरफ़्तारी उस बहुलतावाद को दबा रही है, जो कभी भारतीय लोकतंत्र की पहचान थी।

भारत मोड़ पर खड़ा है। और उसे तय करना है कि क्या वह नेहरू की विरासत सभालेगा और 157 देशों की तरह फ़िलिस्तीन की गरिमा का समर्थन करेगा, या नेतन्याहू के साये में रहेगा? सोनिया गांधी का कहा सपाट है: यह केवल “विदेश नीति” का सवाल नहीं, बल्कि भारत की “नैतिक और सभ्यतागत धरोहर” की परीक्षा है।

जैसे-जैसे जहाज़ ड्रोन का सामना कर रहे हैं और कर्क की आत्मा अमेरिका की गलियारों में मंडरा रही है तो भारत को भी तय करना है: वह नेताओं को गले लगाएगा या मूल्यों को उठाएगा? इतिहास के सही पक्ष का तकाजा है जो भारत गुटनिरपेक्ष आत्मा के प्रति सच्चा रहते हुए संघर्षविराम की माँग करे, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के वारंट लागू करे और पुल बनाए—खंडहरों पर नहीं, बल्कि जवाबदेही पर।

ग़ज़ा की खामोशी में, ग्लोबल साउथ अपने उस पुराने चैंपियन, निर्गुट भारत को पुकार रहा है। पर क्या भारत जवाब देगा?

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