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‘वोट चोरी’: कहां तक जाएगी विपक्ष की मुहिम?

यह सिर्फ विपक्ष का मुद्दा नहीं है। यह भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है। सत्ता पक्ष पहले ही अनेक संवैधानिक आजादियों को सिकोड़ चुका है। संवैधानिक प्रावधानों की उसने मनमानी व्याख्या की है। अब बात वोट के अधिकार की सार्थकता पर आ पहुंची है। वयस्क मताधिकार आधारित एक व्यक्ति- एक वोट- एक मूल्य का सिद्धांत नागरिकों के हाथ में एकमात्र औजार है, जिससे वे सत्ता तंत्र को प्रभावित कर सकने की आशा रखते हैं। इसे सीमित कर दिया जाए, तो फिर सत्ता को पूर्णतः निरंकुश होने से कोई नहीं रोक सकता।

कर्नाटक महादेवपुरा विधानसभा सीट के तहत मतदाता सूची में बड़ी हेरफेर का मामला सामने आने से भारत में निर्वाचन प्रक्रिया को लेकर पहले से जारी शक और गहरा गया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा है कि उनकी पार्टी ने महादेवपुरा में मतदाता सूची की पड़ताल की, मगर उसका यह मतलब नहीं है कि सिर्फ वहीं ऐसा हुआ। यानी महादेवपुरा सिर्फ एक सैंपल है।

राहुल गांधी ने कहा है कि बैंगलोर सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र के तहत पड़ने वाले महादेवपुरा में मतदाता सूची में जो गड़बड़ियां सामने आईं, वे संयोगवश नहीं है। वे मानवीय भूल का नतीजा नहीं है। बल्कि वहां जो हुआ, वह जानबूझ कर केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के अनुकूल चुनाव नतीजा लाने के मकसद से किया गया।

राहुल गांधी ने अपनी पार्टी की पड़ताल से सामने आए “तथ्यों” को उस समय उजागर किया है, जब बिहार में मतदाता सूचियों के हुए विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर विपक्षी दलों में पहले से गहरा विरोध भाव फैला हुआ है। बिहार में लगभग 65 लाख नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैँ। उनके अलावा क्या कथित रूप से कई “फर्जी” नाम जोड़े भी गए हैं, यह सवाल भी चर्चा में है।

यह चर्चा इस समय एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा है। हर शिकायत को सिरे से ठुकरा देने के निर्वाचन आयोग के नजरिए और भारतीय जनता पार्टी एवं उसके समर्थक समूहों की तरफ से शिकायतकर्ता के खिलाफ ही आक्रामक मुहिम छेड़ देने के बावजूद ये सवाल एक बड़ा मुद्दा बना है। ऐसा हो सका है, तो उसका कारण इसकी पहले से बनी पृष्ठभूमि है। मतदाता सूचियों में कथित हेरफेर के जरिए चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है, ऐसे आरोप गुजरे वर्षों में अनेक राज्यों में लगाए गए। इसी वर्ष दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने हजारों (खासकर गरीब एवं अल्पसंख्यक) मतदाताओं के नाम काटने और उतनी ही संख्या विवादास्पद नाम जोड़ने की शिकायत लिखित रूप में की थी। उधर महाराष्ट्र का मुद्दा तो कांग्रेस और शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) ने गरमाए ही रखा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस मतदाता सूची में हेरफेर की कई शिकायतें दर्ज करा चुकी है।

लेकिन बात यहीं तक नहीं है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में वोटों की “डकैती” होने का इल्जाम लगाते रहे हैं। उनकी “डकैती” की परिभाषा में सत्ताधारी पार्टी के “अनुकूल” अधिकारियों की नियुक्ति, “प्रतिकूल” अधिकारियों का तबादला, अल्पसंख्यक मतदाताओं के वोट डालने की राह में अनेक रुकावटें डालना तथा मतगणना में अवांछित प्रशासनिक दखल आदि शामिल हैं। दरअसल, प्रशासन की भूमिका पर सवाल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी उठे थे। तब राष्ट्रीय जनता दल ने आरोप लगाया था कि अनेक सीटों पर अंतिम वक्त में चुनाव नतीजों को बदल कर उससे बहुमत को छीन लिया गया।

और पीछे जाकर देखें, तो फिलहाल चर्चित आरोप अपेक्षाकृत नए मालूम पड़ेंगे। याद कीजिए, अभी कुछ समय पहले तक संदेह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को लेकर जताया जाता था। सभी ईवीएम से जुड़े वीवीपैट में दर्ज सभी वोटों की गिनती की जाए, ऐसी गुजारिश लेकर संबंधित पक्ष सुप्रीम कोर्ट तक गए। उसी क्रम में फिर से मतपत्र से वोटिंग कराने की मांग भी उठी थी। फिलहाल, मतदाता सूची में हेरफेर का मुद्दा इतना गरमाया हुआ है कि ईवीएम का मसला चर्चा क्रम में नीचे चला गया है। लेकिन उससे जुड़े शक खत्म हो गए हैं, यह नहीं कहा जा सकता।

इनके अलावा कई अन्य मसले हैं, जिनका सीधा संबंध मतदान और मतगणना से नहीं है। लेकिन उनका संबंध चुनाव प्रक्रिया में सभी पक्षों को समान धरातल उपलब्ध होने से है। इनकी चर्चा कुछ विपक्षी नेता जब-तब करते रहे हैं, लेकिन उनका संदर्भ बड़ा होने की वजह से उन पर ठोस एवं बिंदुवार बात नहीं हो पाई है। जबकि उनके मौजूद रहते चुनाव कभी भी जन इच्छा की वास्तविक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बन सकते। मसलन, ध्यान दीजिएः

  • आम धारणा है कि देश के पूंजीपति वर्ग ने अपना पूरा दांव भाजपा के पीछे लगा रखा है। इसकी वजह उसकी ये समझ है कि उसके हितों को साधने के लिहाज से भाजपा सबसे प्रभावी राजनीतिक माध्यम है। भाजपा के पास यह क्षमता है कि रोजी-रोजी और विकास के आम सवालों को दरकिनार रखते हुए भी वह अपने लिए वोट जुटा सकती है। अपनी हिंदुत्व की भावनात्मक राजनीति के कारण वह ऐसा करने में सक्षम है।
  • पूंजीपति वर्ग के पूरे समर्थन का अर्थ है कि संबंधित पार्टी के पास संसाधनों की अकूत उपलब्धता। इस बिंदु पर उसके प्रतिस्पर्धी दल उससे इतने पीछे रह जाते हैं कि उनके लिए चुनावी मुकाबले में बने रह पाना कठिन हो जाता है।
  • चूंकि समाचार एवं संचार के माध्यमों पर पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण है, तो उनकी पसंदीदा पार्टी को जनमत को अपने हक में ढालने और बनाए रखने का अनियंत्रित साधन उपलब्ध हो जाता है। चुनावी लोकतंत्र में नैरेटिव्स की एक हद तक निर्णायक भूमिका होती है। आज के भारत में आम तजुर्बा है कि मीडिया पर अपने नियंत्रण की वजह से बहस की शर्तें भाजपा तय करती है, जबकि विपक्ष उस पर हमेशा जवाब देने की मुद्रा में होता है।
  • यह आम अनुभव है कि मजबूत दल या नेता के लिए शासन तंत्र से जुड़ी संस्थाओं पर अपना पूर्ण नियंत्रण बना लेना आसान होता है। यहां तक कि संवैधानिक संस्थाओं में भी अपने अनुकूल लोगों को बैठा कर वे उन्हें मोटे तौर पर अपना माध्यम बना लेते हैं। आम शिकायत है कि इस समय तमाम संस्थाओं में भाजपा समर्थक व्यक्तियों का दबदबा है।
  • हाल के वर्षों में यह धारणा बनी है कि निर्वाचन आयोग भाजपा के माफिक चुनाव कार्यक्रम तय करता है। उसके लाभ-हानि को ध्यान में रखते हुए मतदान की तारीखें तय की जाती हैं या उन्हें बदल दिया जाता है। आयोग का ऐसा ही नजरिया आदर्श चुनाव आचार संहिता को लागू करने में मामले में रहता है। आचार संहिता तोड़ने के एक जैसे मामलों में उसकी कार्रवाई इससे तय होती है कि आरोप सत्ता पक्ष के नेता पर है या विपक्ष के।
  • शिकायत यह भी है कि न्यायपालिका ने भी पैदा होते गए ऐसे असंतुलनों को सुधारने में सक्रियता नहीं दिखाई है। अगर आज यह महसूस किया जाता है कि चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए समान धरातल नहीं है, तो उसकी काफी जिम्मेदारी न्यायपालिका पर भी जाती है।

और इन शिकायतों के साथ अब मतदाता सूची में हेरफेर का आरोप आ जुड़ा है। यानी पानी तो पहले ही चढ़ रहा था, अब यह सिर के ऊपर से गुजरने की स्थिति में आ पहुंचा है!

अगर उपरोक्त शिकायतें सच हैं, तो फिर समाधान क्या है? अगर निर्वाचन आयोग एकतरफा भूमिका निभा रहा है और न्यायपालिका संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी भूमिका निभाने के लिए सक्रिय नहीं है, तो फिर किससे उम्मीद जोड़ी जा सकती है? अगर सचमुच चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं हो रहे हैं, तो फिर चुनाव के जरिए सत्ता परिवर्तन की कितनी संभावना रह जाती है?

ये सवाल ना सिर्फ विपक्ष, बल्कि देश के तमाम जागरूक नागरिकों के सामने आज मौजूद हैं। अब तक का तजुर्बा यह है कि इस गंभीर मसले पर भी विपक्ष का रुख औपचारिक रहा है। यानी विपक्ष की गतिविधियां सोशल मीडिया पर बयान देने, विधायिका में हंगामा करने, निर्वाचन आयोग को शिकायत पत्र देने और कभी-कभार न्यायपालिका में याचिका दायर करने तक सीमित रही हैं। सिविल सोसायटी के जो हिस्से चुनाव प्रक्रिया के संदिग्ध होने को लेकर चिंतित हैं, उनका विरोध भी सोशल मीडिया/ मीडिया से आगे नहीं बढ़ पाया है।

मगर ऐसे औपचारिक विरोध से सत्ता पक्ष पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उसका नजरिया संभवतः यह है कि विरोध के स्वर सुनने या विरोधियों के प्रति नरम रुख अपनाने से उनका हौसला और बढ़ता है। उस स्थिति में उन्हें अधिक स्पेस मिलता है, जिसे वे आगे और बड़े प्रतिरोध की जमीन में तब्दील कर सकते हैं। इसलिए बेहतर नजरिया यह है कि ऐसी आवाजों को नजरअंदाज किया जाए और जहां संभव हो, उन्हें आरंभ में ही दबा दिया जाए। वैसे भी अपने समर्थकों की निगाह में विपक्ष की साख और legitimacy को नष्ट करना या संदिग्ध बनाना भाजपा/ आरएसएस एक सुविचारित रणनीति रही है।

इसीलिए गुजरे 11 साल में आर्थिक एवं विकास के मोर्चों पर अत्यंत खराब प्रदर्शन के बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार मतदाताओं के एक बहुत बड़े हिस्से में अपना समर्थन बरकरार रखने में सफल है। उसकी विफलताओं पर विपक्ष की आलोचना उसके समर्थक वर्ग में सेंध नहीं लगा पाई है, तो उसका एक प्रमुख कारण उन समूहों की निगाह में विपक्षी दलों की साख का अत्यंत न्यून होना है। बेशक इसकी एक दूसरी वजह भी है- वो यह कि मीडिया पर सत्ता पक्ष के लगभग संपूर्ण नियंत्रण के कारण विपक्ष की बातें उस रूप में लोगों तक नहीं पहुंचती, जिस रूप में विपक्ष पहुंचाना चाहता है।

अब कथित ‘वोट चोरी’ के मामले में भी ये बातें लागू हो रही हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता पक्ष की रणनीति के तहत विपक्षी नेताओं को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है। संदेश देने की कोशिश हो रही है कि बार-बार अपनी चुनावी हार से हताश विपक्षी नेता अब चुनाव प्रक्रिया पर ही लांछन लगाने लगे हैं। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह नैरेटिव कितना प्रभावी होगा। मगर एक बात साफ है कि चाहे एसआईआर हो या मतदाता सूचियों में हेरफेर का आरोप- इसको लेकर देश में सार्वजनिक आक्रोश के संकेत अब तक नहीं हैं। किसी स्थान से नागरिकों के स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन की खबर नहीं आई है।

जबकि हकीकत यही है कि यह सिर्फ विपक्ष का मुद्दा नहीं है। यह भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है। सत्ता पक्ष पहले ही अनेक संवैधानिक आजादियों को सिकोड़ चुका है। संवैधानिक प्रावधानों की उसने मनमानी व्याख्या की है। अब बात वोट के अधिकार की सार्थकता पर आ पहुंची है। वयस्क मताधिकार आधारित एक व्यक्ति- एक वोट- एक मूल्य का सिद्धांत नागरिकों के हाथ में एकमात्र औजार है, जिससे वे सत्ता तंत्र को प्रभावित कर सकने की आशा रखते हैं। इसे सीमित कर दिया जाए, तो फिर सत्ता को पूर्णतः निरंकुश होने से कोई नहीं रोक सकता।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनावी लोकतंत्र अपने आप में एक सीमित लोकतांत्रिक व्यवस्था है। इसके तहत यह मान्यता सिर्फ सैद्धांतिक है कि हर नागरिक को वोट देने और निर्वाचित होने (right to elect and to be elected) का अधिकार है। असल में निर्वाचित होने का ख्वाब सिर्फ वो लोग देख सकते हैं, जो खुद बेहद धनी हों या जिन पर धनिक वर्ग अपना दांव लगाने को तैयार हो। आरंभ में अगर कभी किसी आम शख्स का निर्वाचित हो सकना संभव भी था, तो बाद के दौर में ऐसा नहीं रह गया- जब धनिक वर्ग ने सिस्टम पर पूरा कंट्रोल जमा लिया। उसके बाद राजनीति में आगे बढ़ पाना सिर्फ उन व्यक्तियों के लिए संभव रह गया, जो शासक वर्ग के हितों के अनुरूप अपने को ढालने को तैयार हों। इस कारण राजनीति में जन हित का पहलू पहले ही काफी सिमट चुका है।

अब बात right to elect को भी नियंत्रित करने पर आ गई है। इसका परिणाम यह होगा कि राजनीति से जन हित सधने की गुंजाइशें और कम हो जाएंगी। इसलिए अपेक्षित यह है कि लोग खुद इस खतरे को समझें और अपनी पहल पर इसका विरोध करें। मगर यह होता नहीं दिखा है, तो उसकी एक वजह संभवतः सत्ता पक्ष का नैरेटिव कंट्रोल है। और शायद यह भी एक कारण है कि देश की बहुत बड़ी आबादी इस सवाल को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के मसलों से असंबंधित मानती है।

इसलिए कहा जा सकता है कि चुनौतियां गंभीर हैं। सबसे बड़ी चुनौती आम जन तक बात को ले जाने और उसे गोलबंद करने की है। मगर सोशल मीडिया के दायरे में सिमटे रहते हुए ऐसा नहीं किया जा सकता। उसके लिए अपने दिमाग में राजनीति का अर्थ बदलने की जरूरत होगी। सिर्फ चुनावी समीकरण राजनीति नहीं हैं। राजनीति का कहीं बड़ा अर्थ ऐसी जन शक्ति निर्मित करना है, जो राजसत्ता को प्रभावित कर सके। सिर्फ उन नेताओं और समूहों ने इतिहास को प्रभावित किया है, जो ऐसा कर पाए। भारत में फिलहाल, इस दृष्टि एवं समझ का गहरा अभाव है। इसलिए अतीत के अनेक मौकों की तरह ‘वोट चोरी’ के मुद्दे पर भी सत्ता पक्ष स्थितियों को अपने हक में ढालने में सफल हो जाए, तो उस पर बहुत आश्चर्य करने की जरूरत नहीं होगी।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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