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कर्पूरी-नीतीश मॉडल देश भर में चलेगा

भारत सरकार जाति गणना कराने जा रही है, जैसे बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने कराया था। नीतीश कुमार पहले से भाजपा के साथ रहते हुए कर्पूरी ठाकुर के फॉर्मूले पर काम कर रहे थे। उन्होंने पिछड़ों को पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग में और दलितों को दलित व महादलित वर्ग में बांट रखा था। बिहार के पासवान पूरी तरह से रामविलास पासवान के साथ थे तो नीतीश सरकार ने उनको दलित वर्ग में रखा और बाकी सभी दलित जातियों को महादलित वर्ग में डाल दिया। इसी फॉर्मूले के आधार पर बिहार में जातियों की गिनती हुई। जाति गणना के हिसाब से पिछड़े 27 फीसदी हैं, जिसमें पिछड़े मुस्लिम भी हैं और अति पिछड़े 36 फीसदी हैं। इसमें मुस्लिम भी हैं। दलित आबादी 20 फीसदी और सवर्ण 15 फीसदी हैं, जिसमें पांच फीसदी के करीब मुस्लिम हैं।

बिहार में जातियों की गिनती के आंकड़े के हिसाब से देखें तो पांच फीसदी से ज्यादा की आबादी वाली सिर्फ तीन जातियां हैं यादव, पासवान और चमार। 36 फीसदी अति पिछड़ों में सिर्फ दो जातियां हैं, जिनकी आबादी दो फीसदी से ज्यादा है। बाकी करीब 80 जातियां ऐसी हैं, जिनकी आबादी 0.10 फीसदी से लेकर एक फीसदी के नीचे है। पिछड़ों में यादवों के अलावा कोई पांच फीसदी आबादी वाली जाति नहीं है और सवर्णों में भी कोई जाति नहीं है, जिसकी आबादी पांच फीसदी या उससे ज्यादा हो। इस तरह जातियों के वर्चस्व वाली बात लगभग समाप्त हो गई। जातियों की संख्या बता कर नीतीश कुमार ने उनके बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी। इस वजह से पार्टियों को टिकट बंटवारे में विविधता लानी पड़ रही है। हर छोटी बड़ी जाति को उसकी आबादी के हिसाब से एडजस्ट करना पड़ रहा है।

इस तरह नीतीश कुमार ने बिहार में व्यापक हिंदू एकता बनाने की संभावना को लगभग हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। इस तरह अपने दम पर भाजपा के बड़ी ताकत बनने या उत्तर प्रदेश जैसी राजनीति करने से रोक दिया। अगर बिहार की बात करें तो जातीय हिंसा या टकराव के लंबे इतिहास की वजह से वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं होता है और पिछले 30 साल में नीतीश ने भाजपा के साथ रह कर भाजपा का कोई ऐसा नेता नहीं बनने दिया, जो व्यापक हिंदू समाज का चेहरा बन सके। तभी बिहार में भाजपा पूरी तरह से नीतीश और उनकी पार्टी जनता दल यू पर निर्भर हो गई। चूंकि इतनी छोटी छोटी जातियां हैं उनका नेता बनने में बहुत समय लगेगा। तब तक नीतीश ही उनके नेता हैं क्योंकि सामाजिक स्तर पर सबसे बड़ी जाति यादवों के साथ उनका टकराव ऐतिहासिक रूप से रहा है।

ऐसा लग रहा है कि इस चिंता में कि कहीं देश के दूसरे हिस्सों में प्रादेशिक क्षत्रप इस राजनीति को आगे बढ़ाएं या राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी इस राजनीति का चेहरा बनें, नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में जाति गणना कराने का फैसला लिया। जब जातियों की गिनती होगी तो सिर्फ उनका विभाजन ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि जाति ज्यादा गहराई से समाज में स्थापित होगी। जातियों का नए सिरे ध्रुवीकरण भी हो सकता है। इसका एक अनिवार्य नतीजा यह होगा कि जातियां सत्ता की संरचना में अपनी जगह बनाने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगी। मतलब व्यापक हिंदू एकता के प्रयासों की संभावना कम होती जाएगी। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि कई राज्यों में सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने भी यह काम किया है। संघ ने अनेक जातियों के महापुरुषों को इतिहास के पन्नो से निकाला और उनको स्थापित किया। उन महापुरुषों के जरिए जातियों की अस्मिता और सामाजिक पूंजी बनाई, जिसे बाद में राजनीतिक पूंजी में बदला गया। उत्तर प्रदेश में राजभर समाज इसकी मिसाल है।

राजा सुहेलदेव को मोहम्मद गजनवी की सेना से लडऩे और उसे हराने वाला बता कर स्थापित किया गया। आज सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में एक ताकत बन गई है। इसी तरह सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल या संजय निषाद की निषाद पार्टी है। यह भी संयोग है कि जाट से लेकर कुर्मी और राजभर से लेकर निषाद तक जातीय पहचान वाली जितनी पार्टियां उत्तर प्रदेश में हैं सब भाजपा के साथ हैं। बिहार में मुकेश सहनी और एकाध बिल्कुल नए उभरे जातीय नेताओं को छोड़ कर बाकी सब भाजपा के साथ हैं। उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी, चिराग पासवान सब किसी न किसी जाति की पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और भाजपा के साथ हैं। पिछले चुनाव में मुकेश सहनी भी भाजपा के साथ ही थे।

तभी सवाल है कि क्या भाजपा और संघ को लग रहा है कि वे जातियों को और ज्यादा विभाजित करके, उनकी पार्टियों की जड़ें मजबूत करके जातियों के तमाम विरोधाभास को साध लेंगे और सबको किसी न किसी तरीके से अपने साथ कर लेंगे? अगर सत्ता रहती है तो इसे साधना आसान है। संभवतः इसलिए सत्ता के दम पर सभी जातियों को सत्ता की मलाई चखाते हुए उनको भाजपा के साथ जोड़े रहने का काम चल रहा है। लेकिन यह तो बहुत अस्थायी या क्षणभंगुर है। यह सामाजिक स्तर पर सदियों से बनी हिंदू एकता का विकल्प नहीं हो सकता है कि सत्ता के आधार पर हिंदू जातियों की एकता बने।

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